वर्तमान समय में इतिहास के अध्ययन का तरीक़ा यह है कि क़ौम या समुदाय को इकाई का नाम देकर इतिहास का अध्ययन किया जाता है। अर्नोल्ड टॉयनबी के इतिहास की फ़िलॉसफ़ी ने इसमें और परिवर्तन किया कि सभ्यता को इतिहास के अध्ययन के लिए इकाई का नाम देने का प्रयास किया है।
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. X, p. 76]
फिर भी इन दोनों विचारों की बुनियाद एक ही है। दोनों का मुद्दा यह है कि पूरे इतिहास में केवल शाही कार्यों और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों पर ध्यान केंद्रित नहीं किया जाए, बल्कि संपूर्ण मानवीय समूह की सभी गतिविधियों को इतिहास के अध्ययन का विषय बनाया जाए। इतिहास-लेखन में यह एक बहुत बड़ा परिवर्तन है, जो केवल पिछले कुछ सौ वर्ष के अंदर अस्तित्व में आया है। वर्तमान समय के इतिहास या इतिहास-लेखन को अगर ‘इंसाननामा’ (Man-story) कहा जाए तो प्राचीनकालीन इतिहास या इतिहास-लेखन को केवल ‘शाहनामा’ (King-story) कहा जाएगा। प्राचीनकाल में राजाओं के इतिहास का नाम शाहनामा होता था।
यह केवल वर्तमान समय की बात है कि इतिहास को किसी कार्यकाल के ज्ञान-विज्ञान, उस समय की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक स्थिति, उसकी सभ्यता और सांस्कृतिक स्थिति के अध्ययन से समझा जाता है। प्राचीन इतिहास-लेखन में साधारण इंसान चर्चा के योग्य नहीं था। चर्चा के योग्य केवल एक इंसान था और वह वही था, जिसके सिर पर राजशाही का ताज चमक रहा हो। इतिहास-लेखन को शाहनामा बनाने का यह स्वभाव इतना ज़्यादा बढ़ा हुआ था कि राजाओं के अतरिक्त लोगों (Non-kings) से संबंधित सच्ची घटनाएँ भी सिरे से चर्चा के योग्य ही नहीं समझी जाती थीं, चाहे अपने आपमें वह कितनी ही ज़्यादा बड़ी क्यों न हों।
साधारण इंसानों की स्थिति यह थी कि उनकी वास्तविक घटनाएँ भी चर्चा के योग्य नहीं समझी जाती थीं, लेकिन राजा से संबंध रखने वाली काल्पनिक और मनगढ़ंत कहानियाँ भी इस प्रकार निष्ठा और लगन के साथ लिखी जाती थीं, जैसे वह बहुत बड़ी सच्चाई हों। उदाहरण के तौर पर— मिस्र के प्रसिद्ध तटीय शहर सिकंदरिया को सिकंदर महान ने 322 ईसा पूर्व में आबाद किया। इसी कारण इसका नाम सिकंदरिया है। सिकंदर के इस ‘शाही कारनामा’ के बारे में उस समय के इतिहासकारों ने जो विचित्र कहानियाँ लिखीं हैं, उनमें से एक यह है कि सिकंदर ने जब समुद्र के तट पर इस शहर को बनाना शुरू किया तो समुद्री शैतानों ने रुकावटें डालीं। इसके बाद सिकंदर ने लकड़ी और शीशे का एक संदूक़ तैयार कराया। इसे लेकर वह समुद्र की तह में गया। वहाँ उसने समुद्री शैतानों को देखकर उनकी तस्वीरें बनाईं और फिर वापस धरती पर आया, फिर उन तस्वीरों के अनुसार उनकी धातु की मूर्तियाँ तैयार करवाईं और उन मूर्तियों को सिकंदरिया की बुनियाद में गाड़ दिया। इसके बाद जब समुद्री शैतान वहाँ आए और देखा कि उनकी जाति के लोगों को मारकर बुनियाद में दफ़न कर दिया गया है तो वे डरकर भाग गए।
इस मामले का एक और विचित्र उदाहरण वह है, जो पैग़ंबरों से संबंधित है। मानव इतिहास की शायद सबसे अधिक विचित्र घटना यह है कि इतिहास में वही बात लिखने से रह गई, जो सबसे अधिक महत्व रखने वाली थी। यह उन महान व्यक्तित्वों के हालात (जीवन-शैली) हैं, जिन्हें पैग़ंबर कहा जाता है।
मानवता के लिखित इतिहास में राजाओं की ब्योरेवार और विस्तृत चर्चाएँ हैं। उनके महलों से लेकर उनके फ़ौजी सरदारों तक के हाल का वर्णन किया गया है, लेकिन ख़ुदा के पैग़ंबरों ने अपने युग में जो काम किए, उसका लिखित मानव इतिहास में कोई वर्णन नहीं मिलता।
अगर हिंदुस्तान की स्वतंत्रता का ऐसा इतिहास लिखा जाए, जिसमें महात्मा गाँधी का नाम न हो। अगर कम्युनिस्ट सोवियत संघ का ऐसा इतिहास लिखा जाए, जो लेनिन की चर्चा से वंचित हो तो ऐसा इतिहास लोगों को बहुत विचित्र लगेगा, लेकिन इसी प्रकार की सबसे विचित्र घटना यह है कि मानवता का लिखित इतिहास केवल अंतिम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद को छोड़कर उन आत्मिक व्यक्तित्वों की चर्चा से पूरी तरह से वंचित है, जिन्हें पैग़ंबर कहा जाता है। चूक के इस नियम के एकमात्र अपवाद केवल अंतिम पैग़ंबर हज़रत मुहम्मद हैं और इसका कारण यह है कि उन्होंने स्वयं उस इतिहास को बदल दिया, जिसके परिणामस्वरूप प्राचीनकाल में मानव इतिहास-लेखन में बार-बार ऐसी आश्चर्यजनक ग़लतियाँ सामने आ रही थीं। प्राचीनकाल में यह सबसे बड़ी ऐतिहासिक लापरवाही इसलिए हुई कि प्राचीनकाल के इतिहासकारों के निकट केवल ‘राजा’ और उससे संबंध रखने वाले मामले ही चर्चा एवं उल्लेख के योग्य थे, इसके अतिरिक्त दूसरी सभी चीज़ें उनके निकट सिरे से इस योग्य ही न थीं कि उनकी चर्चा की जाए।
इस्लाम से पहले पूरे प्राचीन युग में यही स्थिति पूरी दुनिया की थी। ज्ञात मानव इतिहास में अरब इतिहासकार इब्ने-ख़ल्दून (1332-1406 ईo) वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतिहास लिखने की शैली को बदला और इतिहास-लेखन को ‘शाहनामा’ (King-story) की जगह से निकालकर ‘इंसाननामा’ (man-story) के युग में प्रविष्ट किया। उन्होंने इतिहास को ‘राजाओं का ज्ञान’ के बजाय ‘मानव समाज का ज्ञान’ यानी सोशियोलॉजी बना दिया। वास्तविकता यह है कि वह विज्ञान, जिसे आज के युग में सोशियोलॉजी कहा जाता है, वह इब्ने-ख़ल्दून की ही देन है। इब्ने-ख़ल्दून ने अपने बारे में लिखा है कि वह एक नए ज्ञान (समाजशास्त्र) का संस्थापक है और उनका यह दावा निश्चित रूप से सही है।
यह दरअसल इब्ने-ख़ल्दून हैं, जिन्होंने यूरोप को इतिहास-लेखन की नई शैली और विज्ञान प्रदान किया और स्वयं इब्ने-ख़ल्दून को, जिससे यह चीज़ मिली, वह इस्लाम था। इस्लामी क्रांति ने इब्ने- ख़ल्दून को पैदा किया और इब्ने-ख़ल्दून ने इतिहास-लेखन की नई शैली और विज्ञान को।
इब्ने-ख़ल्दून ने इतिहास-लेखन के दृष्टिकोण में जो परिवर्तन किया, उनके इस कार्य को 20वीं सदी के प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी ने इन शब्दों में स्वीकार किया है—
“इब्ने-ख़ल्दून ने इतिहास की एक फ़िलॉसफ़ी पैदा की। यह निःसंदेह अपनी तरह का किया गया सबसे बड़ा काम है, जो कभी भी किसी ज़हन ने किसी युग में अथवा किसी स्थान पर किया हो।”
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. 9, p. 148]
इस तरह एक स्कॉटिश धर्मशास्त्री और दार्शनिक तथा प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ़ दि फ़िलॉसफ़ी ऑफ़ हिस्ट्री’ के लेखक रॉबर्ट फ्लिंट ने इन असाधारण शब्दों में उनकी महानता को स्वीकार किया है—
“इतिहास के विचारक की हैसियत से किसी भी दौर या किसी भी मुल्क में उनके जैसा दूसरा नहीं हुआ, यहाँ तक कि उनके तीन सौ वर्ष बाद वायको पैदा हुआ। प्लेटो, अरस्तू, ऑगस्टिन उसके बराबर के नहीं थे।”
“As a theorist on history he had no equal in any age or country until Vico appeared, more than three hundred years later; Plato, Aristotle and Augustine were not his peers.”
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. 9, p. 148]
प्रोफेसर हिट्टी ने लिखा है—
इब्ने-ख़ल्दून की लोकप्रियता और ख्याति उनके ‘मुक़द्दमा’ (Introduction to his book on history) पुस्तक के कारण है। अपनी इस पुस्तक में उन्होंने पहली बार ऐतिहासिक स्थिति का एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, जिसमें जलवायु और भूगोल की प्राकृतिक सच्चाई को इतिहास में जगह दी गई और इसी के साथ आत्मिक, मानसिक तथा वैचारिक शक्तियों को भी, जो इतिहास पर प्रभावी होती हैं। जातियों के उत्थान और पतन के नियम-सिद्धांत को तैयार करने और उसे विकसित करने वाले की हैसियत से इब्ने-ख़ल्दून को इसका खोजकर्ता कहा जा सकता है, जैसा कि उन्होंने ‘मुक़द्दमा’ में स्वयं भी अपने आपको यही हैसियत दी है। उन्होंने इतिहास के वास्तविक कार्यक्षेत्र, उसके वास्तविक स्वरूप और उसकी विशेषताओं को खोजा या कम-से-कम समाजशास्त्र के विज्ञान (Science of Sociology) के वे वास्तविक संस्थापक हैं। कोई अरब लेखक और यहाँ तक कि कोई यूरोपियन लेखक नहीं, जिसने कभी भी इतिहास को इस प्रकार विस्तृत, समग्र और दार्शनिक अंदाज़ से देखा हो। आलोचकों और समीक्षकों की राय के अनुसार, इब्ने-ख़ल्दून सबसे बड़े ऐतिहासिक दार्शनिक थे, जिनको इस्लाम ने पैदा किया, बल्कि वह सारे युगों में पैदा होने वाले लोगों में सबसे बड़े इतिहासकार-दार्शनिक की हैसियत रखते हैं।
[Philip K. Hitti, History of the Arabs (London,1970), p. 568]
इब्ने-ख़ल्दून ने अपने ‘मुक़द्दमा’ के पहले भाग में सामान्य समाजशास्त्र (General Sociology) का वर्णन किया है, दूसरे और तीसरे भाग में राजनीतिक समाजशास्त्र (Sociology of Politics) का वर्णन है, चौथे भाग में शहरी जीवन का समाजशास्त्र, पाँचवें भाग में आर्थिक समाजशास्त्र का वर्णन किया गया है और छठे भाग में समाजशास्त्र (Sociology) की जानकारी और उसके ज्ञान की चर्चा है। इसका हर अध्याय शिक्षा और ज्ञान की दृष्टि से उच्चतम स्तर का है। इब्ने-ख़ल्दून का यह काम इतिहास-लेखन, अर्थशास्त्र, राजनीति एवं शिक्षा पर शानदार अवलोकनों और जाँच के कामों से भरा हुआ है। इस प्रकार वह एक ऐसे इतिहास के विज्ञान की नींव रखते हैं, जो केवल राजाओं के हालात पर आधारित न हो, बल्कि विस्तृत और व्यापक अर्थों में संपूर्ण मानव जाति के अर्थशास्त्र, राजनीति, शिक्षा, धर्म, नैतिकता और संस्कृति पर आधारित हो।
[Philip K. Hitti, History of the Arabs (London,1970), p. 568]
इतिहासकारों ने आम तौर पर स्वीकार किया है कि अब्दुल रहीम इब्ने-ख़ल्दून के आने तक इतिहास का विज्ञान अविकसित स्थिति में पड़ा हुआ था। इब्ने-ख़ल्दून वह पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने इतिहास की दार्शनिकता की शुरुआत की। एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका का यहाँ तक कहना है—
“उसने दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण इतिहास की दार्शनिकता को शुरू किया।”
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol.9, p.147]
पर सवाल यह है कि स्वयं इब्ने-ख़ल्दून के लिए यह कैसे संभव हुआ कि वह एक ऐसी चीज़ को पाए, जिसे इससे पहले का कोई व्यक्ति न पा सका था। इसका उत्तर यह है कि दूसरे इतिहासकार इस्लामी क्रांति से पहले पैदा हुए और इब्ने-ख़ल्दून इस्लामी क्रांति के बाद पैदा हुए। इब्ने-ख़ल्दून दरअसल इस्लामी क्रांति की पैदावार थे और यही वह चीज़ है, जिसने इब्ने-ख़ल्दून को इब्ने-ख़ल्दून बनाया।
इतिहास की दार्शनिकता की उन्नति में दोबारा वही चीज़ रुकावट बनी हुई थी, जिसे धार्मिक भाषा में अनेकेश्वरवाद कहा जाता है। इस्लाम से पहले का पूरा युग ईश्वरीय राजशाहियों का युग है। कुछ राजा सीधे-सीधे ईश्वर होने का दावा करते थे और लोगों से अपनी उपासना कराते थे, कुछ राजा अपने आपको ईश्वर का मानव रूप या अवतार या उसका प्रतिनिधि बताकर लोगों में यह आस्था बनाए हुए थे कि उन्हें अपनी प्रजा पर बिना शर्त संपूर्ण शासन का अधिकार प्राप्त है, ताकि उनकी पूर्ण संप्रभुता (sovereignty) पर कभी भी कोई सवाल न करे। कुछ राजा पूरी तरह से तो ईश्वर होने का दावा नहीं करते थे, लेकिन व्यावहारिक रूप से उनके क्षेत्र में भी वही वातावरण था, जो दूसरे देशों में पाया जाता था।
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. V, p. 816]
इस्लाम ने इन हालात को बदला। इस्लाम एकेश्वरवाद की बुनियाद पर वह क्रांति लाया, जिसके बाद राजा और साधारण व्यक्ति में कोई अंतर न रहा। सभी इंसान समान रूप से एक आदम और हव्वा (Adam and Eve) की औलाद कहलाए। यह एक बेमिसाल इंसानी बराबरी की एक महान क्रांति थी। इंसानी बराबरी की इस महान क्रांति के बाद ही यह संभव हुआ कि कोई इब्ने-ख़ल्दून पैदा हो, जो राजाओं को केंद्र बनाकर सोचने के बजाय साधारण इंसानों को केंद्र बनाकर सोचे और फिर इतिहास के नए विज्ञान की बुनियाद रखे।
पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद के पुत्र इब्राहीम मदीना में पैदा हुए। डेढ़ वर्ष की आयु में 632 ईo में उनका निधन हो गया। संयोग से इसी दिन सूरज ग्रहण हुआ। प्राचीनकाल में जिन अंधविश्वासों का रिवाज था, उनमें से एक यह था कि जब राजा या किसी बड़े व्यक्ति की मृत्यु होती तो सूरज ग्रहण या चाँद ग्रहण होता है, इस तरह मानो आसमान बड़े व्यक्तियों की मृत्यु पर शोक मनाता है। पैग़ंबर-ए-इस्लाम की हैसियत उस समय अरब के राजा जैसी थी। इसलिए मदीना के कुछ मुसलमानों ने पुराने विचार के तहत कहा कि यह सूरज ग्रहण इब्राहीम की मृत्यु के कारण हुआ है। पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद को पता चला तो आपने फ़ौरन इस बात का खंडन किया। इस संबंध में हदीस की पुस्तकों में कई स्थानों पर वर्णन किया गया है। एक वर्णन इस प्रकार है—
हज़रत मुहम्मद एक दिन घर से निकलकर तेज़ी से मस्जिद की ओर आए। उस समय सूरज ग्रहण था। आपने नमाज़ पढ़ी, यहाँ तक कि ग्रहण समाप्त हो गया, फ़िर आपने बताया कि अज्ञानता के समय के लोग कहा करते थे कि सूरज और चाँद में ग्रहण उस समय लगता है, जबकि धरती के बड़ों में से किसी की मृत्यु हो जाए, लेकिन सच्चाई यह है कि सूरज और चाँद में किसी इंसान की मृत्यु अथवा जीवन के कारण ग्रहण नहीं लगता। यह दोनों ईश्वर की बनाई हुई चीज़ों में से दो निर्मित चीज़ें हैं। ईश्वर अपने द्वारा निर्मित चीज़ों में जो चाहता है, करता है। हाँ, जब दोनों में से किसी में ग्रहण लगे तो तुम लोग नमाज़ पढ़ो, यहाँ तक कि वह समाप्त हो जाए या ईश्वर कोई बात स्पष्ट कर दे।
(Refence: Mishkat al-Masabih, Chapter entitled Salat al-Khushu)
प्राचीन युग के शासक, प्रजा की इन अंधविश्वासी आस्थाओं का संरक्षण और उनका समर्थन करते थे, ताकि लोगों के ऊपर उनकी महानता छाई रहे। ज्ञात इतिहास में पैग़ंबर-ए-इस्लाम पहले शासक हैं, जिन्होंने इन अंधविश्वासी आस्थाओं का खंडन किया और उसे बेबुनियाद घोषित किया। इस तरह आपने इंसान को एक नई मानसिकता और सोच दी। आपने एक इंसान और दूसरे इंसान के अंतर को वैचारिक एवं व्यावहारिक तौर पर समाप्त कर दिया। आपने उन मान्यताओं और अंधविश्वासों को बेबुनियाद सिद्ध कर दिया, जिनके माध्यम से इस प्रकार के सोच-विचार लोगों के ज़हन में गहराई से समाए हुए थे।
जब पूरे अरब पर इस्लाम का वर्चस्व हो गया तो पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद ने अपने अंतिम समय में लगभग सवा लाख साथियों के साथ हज अदा किया। इस हज में आपने अराफ़ात के मैदान में वह ऐतिहासिक ख़ुत्बा यानी धर्मोपदेश दिया, जिसे ‘ख़ुत्बा हज्जतुल विदा’ (अंतिम उपदेश) कहा जाता है। यह धर्मोपदेश अरब के शासक की हैसियत से मानवाधिकारों और साथ में मानवता के संविधान की आम घोषणा था। आपने कहा—
“ऐ लोगो! सुनो, सभी लोग एक पुरुष और एक महिला से पैदा किए गए हैं। इनमें जो अलग-अलग प्रकार का ज़ाहिरी या दिखाई देने वाला अंतर है, वह केवल पहचान और परिचय के लिए है। तुममें से ईश्वर के निकट सबसे अधिक सम्माननीय वह व्यक्ति है, जो सबसे अधिक ईश्वर से डरने वाला है। किसी अरबी को किसी ग़ैर-अरब के ऊपर श्रेष्ठता नहीं और किसी ग़ैर-अरब को किसी अरबी के ऊपर श्रेष्ठता नहीं, किसी काले को किसी गोरे पर श्रेष्ठता नहीं और किसी गोरे को किसी काले पर श्रेष्ठता नहीं। श्रेष्ठता की चीज़ केवल तक़वा है।”
फिर आपने कहा कि सुनो—
“इस्लाम से पहले अज्ञानता के युग की हर बात और हर मामला मेरे क़दमों के नीचे रौंद दिया गया।”
प्राचीन इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि समय के एक शासक ने लोगों के बीच हर प्रकार की ऊँच-नीच और हर प्रकार के झूठे भेदभाव को व्यावहारिक रूप से और लगभग पूरी तरह से समाप्त कर दिया। इसके बाद इंसानी दुनिया में एक नई सभ्यता पैदा हुई, जिसमें सभी इंसान बराबर की हैसियत रखते थे। हज़रत मुहम्मद के बाद जो लोग इस्लामी दुनिया के शासक बने, वह हालाँकि पुरानी आबाद दुनिया के बहुत बड़े हिस्से के शासक थे, लेकिन लोगों के बीच वे फ़क़ीरों की तरह रहते थे। पैग़ंबर-ए-इस्लाम के उत्तराधिकारी अबू बक्र और उमर के बारे में बोलते हुए महात्मा गाँधी ने इस प्रकार कहा है—
“वे हालाँकि एक विस्तृत और बड़ी सल्तनत के मालिक थे, लेकिन लोगों के बीच वे फ़क़ीरों की तरह रहते थे।”
“Though they were masters of a vast empire, they lived the life of paupers.”
यह क्रांति इतनी शक्तिशाली थी कि बाद के समय में जबकि हुकूमत के संस्थानों में और उसके ढाँचे में बिगाड़ आ गया और ‘ख़लीफ़ा’ के बजाय ‘सुल्तान या सम्राट’ होने लगे, तब भी इस्लामी सभ्यता के दबाव के तहत यह स्थिति थी कि कोई सुल्तान प्राचीन शैली का राजा बनकर नहीं रह सकता था। इस सिलसिले में इस्लामी इतिहास में अनगिनत घटनाएँ मौजूद हैं। यहाँ हम केवल एक घटना की चर्चा करते हैं—
सुल्तान अब्दुर रहमान द्वितीय (जन्म : 792 ई० में टोलेडो में, मृत्यु : 852 ई० में क़र्तबा में) मुस्लिम स्पेन का एक शक्तिशाली शासक था। एक साल उसने रमज़ान के महीने में एक रोज़ा बिना ऐसे कारण के छोड़ दिया, जो शरीयत की दृष्टि से मान्य हो। फ़िर भी राजा होने के बावजूद उसकी यह हिम्मत नहीं हुई कि वह अपने आपको क़ानून से श्रेष्ठ समझ ले। इसलिए उसने क़र्तबा (Cordova) के धार्मिक विद्वानों को दरबार में जमा किया और उनके सामने अपने साथ घटी घटना का वर्णन करके साधारण व्यक्ति की तरह उनसे फ़तवा यानी धार्मिक राय पूछी।
इतिहासकार अल-मक़्क़री ने लिखा है कि धार्मिक विद्वानों की उस सभा में इमाम याह्या भी उपस्थित थे। इमाम याह्या ने मामले को सुनकर फ़तवा दिया कि राजा अपनी इस ग़लती पर प्रायश्चित्त के रूप में लगातार साठ दिनों तक रोज़े रखे। जब वे फ़तवा देकर महल से बाहर निकले तो इस्लामी क़ानून के एक विद्वान ने कहा कि हज़रत, शरीयत में साठ ग़रीब लोगों को खाना खिलाने का आदेश भी तो मौजूद है, फ़िर आपने राजा को इतना कड़ा फ़तवा क्यों दिया? आप यह फ़तवा भी तो दे सकते थे कि राजा एक रोज़े के बदले साठ ग़रीब लोगों को खाना खिला दें?
इमाम याह्या ने ग़ुस्से से उस विद्वान की ओर देखा और कहा कि राजाओं के लिए साठ आदमी को खाना खिलाना कोई सज़ा नहीं। इसलिए स्पेन का इतिहास बताता है कि सुल्तान अब्दुर रहमान द्वितीय ने इमाम याह्या के फ़तवे को मानते हुए लगातार साठ रोज़े रखे और किसी प्रकार की कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई, यहाँ तक कि इमाम याह्या को उनके धार्मिक पद से निरस्त भी नहीं किया।
(Muslim Rulers, p. 415, with reference to Nafh al-Tayyib, Part I, pp. 362-368.)
यह उस क्रांति का प्रभाव था, जो इस्लाम ने पैदा की। इस क्रांति ने राजा और आम लोगों के अंतर को समाप्त कर दिया था। इस क्रांति ने इंसानी बराबरी का ऐसा वातावरण बना दिया कि कोई व्यक्ति अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ नहीं समझ सकता था। किसी राजा को हिम्मत नहीं होती थी कि वह अपने आपको साधारण लोगों से अलग या श्रेष्ठ बता सके और अपने लिए क़ानून की पाबंदी की ज़रूरत न समझे।
हालाँकि इस्लामी क्रांति से पहले यह एक स्वीकार की गई सच्चाई थी कि राजा साधारण लोगों से श्रेष्ठ और ऊँची हैसियत रखता है। उदाहरण के तौर पर— पैग़ंबर-ए-इस्लाम हज़रत मुहम्मद के समय का पूर्वी रोमन सम्राट हरक़ल हालाँकि अपने आपको ईसाई कहता था, लेकिन उसने अपनी बहन की बेटी से शादी कर ली, जो ईसाई शरीयत के विरुद्ध था।
“He had married his niece, Martina, thus offending the religious scruples of many of his subjects, who viewed his second marriage as incestuous.”
[Encyclopaedia Britannica (1984), Vol. 8, p. 782]
लोगों को मालूम था कि यह एक ग़ैर-कानूनी और अवैध संबंधों का विवाह है, लेकिन इसके बावजूद सभी लोग शांत रहे। इसका कारण यह था कि हरक़ल राजा था और राजा को अधिकार था कि वह जो चाहे करे। साधारण लोगों के नियम और क़ानून से वह ऊपर है, साधारण इंसानी मापदंड से उसे नापा नहीं जा सकता।
प्राचीन युग में कई प्रकार की अंधविश्वासी आस्थाओं के तहत राजा की महानता की ग़ैर-मामूली धारणा लोगों के ज़हन पर छा गई। वे राजा को अपने से ऊँची और श्रेष्ठ चीज़ समझने लगे, स्वयं राजा भी विशिष्ट संस्कारों के माध्यम से लोगों की इस सोच को दृढ करते रहे। इन परिस्थितियों में राजा को अपने साम्राज्य में वही महानता का स्थान प्राप्त हो गया, जो विशाल ब्रह्मांड में ईश्वर के लिए समझा जाता है। स्वाभाविक रूप से इतिहास-लेखन की शैली भी इससे प्रभावित हुई और आम आदमी की नगण्य चर्चाओं के साथ इतिहास लगभग पूरी तरह से राजाओं की चर्चाओं के नाम होकर रह गया।
अरब में और पड़ोसी देशों में जब इस्लामी क्रांति आई तो इसने जिस प्रकार प्राकृतिक चीज़ों, जैसे— सूरज, चाँद आदि को ईश्वरीय पद या दिव्य पद से हटाया, उसी प्रकार राजाओं को भी ग़ैर-मामूली और असाधारण महानता के पद से हटा दिया गया। अब राजा भी उसी प्रकार एक साधारण व्यक्ति था, जिस तरह आम लोग थे।
इस्लामी क्रांति का प्रभाव एशिया, अफ़्रीक़ा और कई यूरोपीय देशों की अधिकतर आबाद दुनिया पर पड़ा। विश्वस्तर पर एक नया माहौल पैदा हुआ। लोगों के अंदर एक नई सोच उभरी। राजा-केंद्रित (king-centred) प्राचीन मानसिकता समाप्त हो गई और उसकी जगह इंसान-केंद्रित (man-centred) सोच पैदा हुई। इतिहास-लेखन के मामले में इस मानसिकता का पहला प्रभावशाली सबूत अब्दुर रहमान इब्ने-ख़ल्दून थे। उन्होंने इतिहास पर नए अंदाज़ की एक पुस्तक लिखनी आरंभ की, जिसका संक्षिप्त नाम ‘किताब अल-इबर’ (Book of Lessons) है। उन्होंने इस पुस्तक में इतिहास-लेखन की शैली का अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस पुस्तक पर उन्होंने इतिहास-लेखन के बारे में एक सविस्तार प्रस्तावना लिखी। यह प्रस्तावना वास्तविक पुस्तक से अधिक मूल्यवान समझी जाती है, इसलिए अलग से वह ‘मुक़द्दमा इब्ने-ख़ल्दून’ के नाम से बार-बार कई भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी है।
ज्ञात इतिहासकारों में सबसे अधिक प्रसिद्ध इतिहासकार अल-मक़रिज़ी रहे हैं, जो इब्ने-ख़ल्दून के शिष्य थे। उन्होंने 15वीं सदी में इब्ने-ख़ल्दून के सिद्धांतों को मिस्र में प्रस्तुत किया और इस प्रकार इब्ने-ख़ल्दून के सिद्धांतों ने 15वीं सदी में मिस्र के विद्वानों पर प्रभाव डाला। उनके बाद दूसरे मुस्लिम देशों में भी इब्ने-ख़ल्दून के सिद्धांत और विचारों ने अपना प्रभाव डाला। 1860 और 1870 ईo के बीच उनके ‘मुक़द्दमे’ का पूरा अनुवाद फ़्रांसीसी भाषा में प्रकाशित किया गया। इस प्रकार इब्ने-ख़ल्दून के इतिहास-लेखन के सिद्धांत और विचार यूरोप में फैले। यहाँ उनके विचारों को बहुत लोकप्रियता मिली। इस प्रकार उनके विचारों ने यूरोप की मिट्टी में अपनी जड़ें जमा लीं। वायको (Giambattista Vico) और दूसरे पश्चिमी इतिहासकारों ने इस काम को आगे बढ़ाया। यहाँ तक कि वह चीज़ अस्तित्व में आई, जिसे इतिहास-लेखन का आधुनिक विज्ञान कहा जाता है।