संतान की स्थिति
एक आदमी का फ़ोन आया। उन्होंने कहा कि क़ुरान में बच्चों को ‘फ़ित्ना’ (इम्तिहान, उपद्रव,प्रलोभन) कहा गया है। इसका क्या मतलब है? उन्होंने कहा कि मुसलमान आमतौर पर बच्चों को ईश्वर का ईनाम समझते हैं, कोई भी अपनी संतान को फ़ित्ना नहीं कहता। फिर क़ुरान में उन आयतों का क्या मतलब है, जिनमें बच्चों को फ़ित्ना कहा गया है?
मैंने कहा कि बच्चे अपने आप में कोई फ़ित्ना नहीं हैं। ज़हर तो अपने आप में ज़हर है, लेकिन बच्चों का मामला यह नहीं है कि वे पैदा होते ही फ़ित्ना बन जाएँ। असल में यह फ़ित्ना पैदा करने का मामला है, न कि ख़ुद फ़ित्ना होने का। माता-पिता का ग़लत स्वभाव ही बच्चों को फ़ित्ना बना देता है। यदि माता-पिता अच्छे स्वभाव के हैं, तो उनकी संतान उनके लिए फ़ित्ना नहीं बनेगी। फ़ित्ना का शाब्दिक अर्थ परीक्षा है। यह दुनिया एक परीक्षा स्थल है। यहाँ इंसान को जो भी चीज़ें दी जाती हैं, वे सभी उसकी परीक्षा के लिए हैं। दौलत, संतान और बाक़ी सब चीज़ें भी परीक्षा का हिस्सा हैं। इंसान को इन सबका सही इस्तेमाल करना चाहिए।
इस मूल स्थिति को देखते हुए, उसे हमेशा इस परीक्षा में पास होने की कोशिश करनी चाहिए। इस पूरे मामले का सारांश यह है कि इंसान को अपने रचयिता को अपनी सबसे बड़ी चिंता का केंद्र बनाना चाहिए। सांसारिक चीज़ें, चाहे वह धन हो या संतान या सत्ता, उसकी प्राथमिकता नहीं होनी चाहिए। जो लोग इस परीक्षा में असफ़ल होते हैं, वे ईश्वर के बजाय अन्य चीज़ों को अपने ध्यान का केंद्र बना लेते हैं। ऐसे लोग मौत के बाद आने वाले जीवन में एक निराश इंसान की तरह उठाए जाएँगे, जब उनके सारे सहारे उनसे छिन चुके होंगे। उस समय वे अफ़सोस के साथ कहेंगे: “मुझे मेरा माल कोई फ़ायदा नहीं दे सका। मेरा सारा अधिकार चला गया।” (क़ुरान, 69:28-29)। सच तो यह है कि संतान एक ज़िम्मेदारी है, न कि गर्व या घमंड का विषय।