अध्यात्मिक माहौल
एक पढ़े-लिखे मुसलमान से मुलाक़ात हुई। उन्होंने बड़ी ख़ुशी से बताया कि उनका रोज़ का यह नियम है कि वे हर सुबह अपने घरवालों को एक जगह बिठाते हैं और किसी अध्यात्मिक किताब का एक हिस्सा पढ़कर उन्हें सुनाते हैं। मुझे बहुत से ऐसे लोगों के बारे में पता है, जो इस तरीक़े को अपना रहे हैं। वे सोचते हैं कि ऐसा करके वे अपना धार्मिक फ़र्ज़ निभा रहे हैं, लेकिन यह तरीक़ा इंसान की क़ाबिलियत को कम आँकने जैसा है। इंसान ऐसी रस्मी बातों से अपना मन नहीं बदलता।
लेकिन इस तरह घरवालों को अध्यात्मिक किताब पढ़कर सुनाना असल ज़िम्मेदारी का आधा हिस्सा है। असली ज़िम्मेदारी का पहला हिस्सा यह है कि घर के अंदर अध्यात्मिक माहौल बनाया जाए। अगर घर में सही माहौल न हो, तो इस तरह किताब पढ़ने से मनचाहा नतीजा नहीं मिलेगा।
लोगों की हालत यह है कि उनके घर में पूरी तरह सांसारिक माहौल होता है। घर के अंदर दूसरों के ख़िलाफ़ शिकायतें होती हैं। घर में नकारात्मक ख़बरों की बातें होती रहती हैं। इंसानी भलाई की कोई चर्चा नहीं होती, बल्कि घर के अंदर ‘अपने’ और ‘पराए’ की भावना होती है। घर में ज़्यादातर बातें खाने, कपड़े, पैसे, व्यापार और नौकरी के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं।
घर में अध्यात्मिक किताब पढ़कर सुनाना निस्संदेह एक अच्छी बात है, लेकिन इसे असरदार बनाने के लिए घर के अंदर सही माहौल होना ज़रूरी है। किताब पढ़ने से पहले और बाद में घर का माहौल वैसा ही होना चाहिए, जैसा किताब में बताया गया है। किसी घर को अध्यात्मिक बनाना तभी मुमकिन है, जब इसे पूरी संजीदगी से किया जाए। घर का माहौल धर्म के अनुकूल बनाए बिना, सिर्फ़ किताब पढ़ने से ऐसा करना ऐसा है मानो हाथी की पूँछ में पतंग बाँधना। इस तरह से घर के ज़िम्मेदारों की ज़िम्मेदारी पूरी नहीं हो सकती।