परीक्षा का पेपर
यूपी का एक मुसलमान दिल्ली में आकर बस गया। उसने प्रॉपर्टी का कारोबार किया और इस कारोबार में काफ़ी धन कमाया, लेकिन उसके यहाँ कोई संतान नहीं थी। एक बार उसकी माँ दिल्ली आई। उन्होंने देखा कि उसका बेटा दिल्ली में एक बड़े घर में रहता है। दुनिया की हर चीज़ उसके पास है, लेकिन शादी को काफ़ी समय बीत जाने के बावजूद उसके यहाँ कोई संतान नहीं थी। उसकी माँ इस बात से काफ़ी परेशान थीं। वे अक्सर कहती थीं — “हाय मेरे बेटे की दौलत कौन लेगा।”
इस घटना से पता चलता है कि क़ुरान में बच्चों को फ़ित्ना क्यों कहा गया है। इसका कारण यह है कि लोग अपने बेटे को अपनी ही पहचान का विस्तार समझते हैं। उन्हें यक़ीन होता है कि उनकी कमाई उनके बाद ज़ाया नहीं होगी, बल्कि उनके बेटे के रूप में उन्हें अप्रत्यक्ष रूप से मिलती रहेगी।
बच्चों के बारे में इसी सोच के कारण लोग उन्हें फ़ित्ना समझने लगते हैं। इस सोच के तहत जो मानसिकता बनती है, उसका सबसे बड़ा नुक़सान यह है कि इंसान मौत की गंभीरता से बेख़बर हो जाता है। मौत के बाद की स्थिति के बारे में वह ज़्यादा संजीदगी से नहीं सोचता। जान-बूझकर या अंजाने में, वह मौत और उसके बाद की हक़ीक़तों से अंजान हो जाता है।
बच्चों का वास्तविक महत्त्व यह है कि उनके माध्यम से मानव जाति का अस्तित्व और निरंतरता बनी रहती है। जहाँ तक धन की बात है, वह पिता के लिए भी परीक्षा का एक पेपर है और बेटे के लिए भी। अगर इस सोच के तहत धन को देखा जाए तो धन कभी समस्या नहीं बनेगा।
इस हक़ीक़त को एक हदीस में इस तरह बयान किया गया है कि किसी माता-पिता द्वारा अपनी औलाद को सबसे बेहतरीन तोहफ़ा यह है कि वह उसे तालीम और तरबियत के ज़रिये अच्छा इंसान बनाए।।
(सुनन अल-तिर्मिज़ी, हदीस न० 1952)।