मानवीय गुण
क़ुरआन में मामूली लफ्ज़ी फ़र्क के साथ दो जगहों पर यह बात कही गई है कि अल्लाह किसी क़ौम की हालत को उस वक़्त तक नहीं बदलता जब तक कि वह उसको न बदल डाले जो उसके जी में है (अर रअद) ।
इस ख़ुदाई सुन्नत से मालूम होता है कि किसी गिरोह के क़ौमी और इज्तिमाई हालात उसके वैयक्तिक हालात पर निर्भर हैं। इसको दूसरे लफ़्ज़ों में इस तरह कहा जा सकता है कि क़ौमी हैसियत का दारोमदार मानवीय गुणों पर है। किसी क़ौम के लोगों में इन्सानी या अख़्लाक़ी या नैतिक खूबियां जैसी होंगी, उसी के मुताबिक उसको दुनिया में सामूहिक मुकाम हासिल होगा, न उससे कम और न उससे ज़्यादा ।
इस मामले को समझने के लिए मौजूदा ज़माने की एक मिसाल लीजिए। यह बात सभी लोग मानते हैं कि जापान ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद बहुत ग़ैरमामूली तरक्की की है। इस तरक्क़ी का एक खास राज़ उनकी एकता है। जापानी हर काम को एकजुट होकर करते हैं। एकता को आखिरी वक़्त तक बरकरार रखते हैं। इसकी वजह से उनकी ताक़त बहुत बढ़ जाती है। वे हर मामले में गै़रमामूली तौर पर कामयाब रहते हैं ।
जापान की इस एकता का राज़ वहां के लोगों का वैयक्तिक स्वभाव है, जो तक़रीबन तमाम जापानियों के अन्दर पाया जाता है। प्रोफ़ेसर ची नकानी (Chie Nakane) की जापानी भाषा में एक किताब है, जिसका तर्जुमा अंग्रेजी में जापानी समाज (Japanese Society) के नाम से छपा है। इस किताब में जापानी प्रोफ़ेसर ने लिखा है कि जापानी का वैयक्तिक मिज़ाज यह होता है कि वह समझता है कि मैं किसी के मातहत हूं,
I am under someone
दूसरे लफ़्ज़ों में यह कि हर जापानी अधीनता-भाव में जीता है। इसलिए जब भी कोई सामूहिकता कायम होती है तो वह फ़ौरन उससे जुड़ जाता है। वह तन्ज़ीम यानी संगठन के नेता को फ़ौरन अपना नेता मान लेता है, क्योंकि वह पहले ही से यह माने हुए था कि मैं किसी के मातहत हूं —यह है जापानियों की उस एकता का राज़ जिसके नतीजे में उन्होंने मौजूदा ज़माने में अप्रत्याशित तरक्की की है ।
अब मौजूदा ज़माने के मुसलमानों को देखिए। मुसलमानों का मामला जापानियों के बिल्कुल बरअक्स है। मसजिद से लेकर सियासत तक कोई मामला ऐसा नहीं, जिसमें मुसलमान मुत्तहिद या एक हों। मौजूदा मुसलमान दुनिया की सबसे ज़्यादा बरबाद क़ौम हैं, और इसकी सबसे बड़ी वजह बेशक उनमें इत्तिहाद और एकता का न होना है। इस ‘बेइत्तिहादी’ ने एक अरब इन्सानों की महान् क़ौम को दुनिया की सबसे कमज़ोर क़ौम बना दिया है ।
मौजूदा मुसलमानों की इस ‘बेइत्तिहादी’ का सबब क्या है? इसका सबब, दोबारा, उनके लोगों का वह ग़लत मिज़ाज है जो किसी भी इत्तिहाद की राह में एक स्थायी रुकावट बन गया है ।
मौजूदा ज़माने में जब मुसलमान पस्ती, मग़लूबियत और पतन का शिकार हुए तो उनके रहनुमाओं की तशख़ीस (मर्ज़ की जांच) यह थी कि पश्चिम के प्रभाव में आ जाने ने उनको पस्ती से दो-चार किया। इसलिए तमाम रहनुमाओं ने एक या दूसरी सूरत में यह किया कि इस्लाम को गर्वपूर्ण अन्दाज़ में पेश करना शुरू कर दिया, ताकि उनके प्रभुत्व को ख़त्म कर सकें। इसका नतीजा यह है कि मुसलमानों की पूरी नस्ल गर्व और हाकिमियत (शासकत्व) के एहसास पर परवरिश पा कर उठी है। हर आदमी नज़रिए और आस्था के लिहाज़ से अपने अन्दर बरतरी और बड़प्पन का जज़्बा लिए हुए है। क्योंकि यही जज़्बा उसके अन्दर उभारा गया था ।
यह मानसिकता एकता की क़ातिल है। एकता उस वक़्त कायम होती है जबकि एक शख़्स को बड़ा बना कर बाक़ी तमाम लोग उसके मुक़ाबले में छोटे बनने पर राज़ी हो जाएं। मगर मुसलमानों की गर्व की मानसिकता इसमें रुकावट है। इसका नतीजा यह है कि अब हर आदमी सरदार बनना चाहता है। हर आदमी चाहता है कि उसकी बात चले। हर आदमी चाहता है कि हाकिमाना सीट पर बैठे। ऐसी हालत में एकता कायम होना मुमकिन नहीं। और मुसलमानों की यही वह मानसिकता है, जिसने आज उनके दरमियान किसी भी एकता को सरासर नामुमकिन बना दिया है ।
मौजूदा ज़माने के मुसलमानों का अस्ल मसला सत्ता को खोना नहीं, बल्कि इन्सानी गुणों को खोना है। मौजूदा मुसलमान अपने रहनुमाओं और लीडरों की ग़लत रहनुमाई के नतीजे में ऊंचे मानवीय गुणों से खाली हो गए हैं। अब सबसे पहला ज़रूरी काम यह है कि मुसलमानों के अन्दर वे गुण पैदा किए जाएं जो आला इन्सानियत का निर्माण करते हैं। जब तक यह काम नहीं किया जाएगा मुसलमानों के हालात बदल नहीं सकते। कोई दूसरी कोशिश चाहे वह कितने ही बड़े पैमाने पर की जाए, मुसलमानों के लिए किसी नए भविष्य का निर्माण नहीं कर सकती ।