इन्साफ़ का तरीका

मक्का के आरंभिक ज़माने में जब कुरैश की ज्यादतियां बहुत बढ़ गईं तो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने मुसलमानों से कहा कि तुम लोग मक्का को छोड़ कर हबश चले जाओ। हबश में एक बादशाह है, जिसके यहां किसी पर कोई ज़ुल्म नहीं किया जाता। तुम लोग उसके मुल्क में चले जाओ। यहां तक कि अल्लाह तआला तुम्हारे लिए कोई गुंजाइश पैदा कर दे ।

तो इस तरह सहाबा एक सौ से ज़्यादा तादाद में अपना वतन छोड़ कर हबश चले गए। मक्का के कुरैश को मालूम हुआ तो उन्होंने मश्वरा करके अपने दो आदमियों को हबश रवाना किया। वहां उन्होंने बादशाह के दरबारियों को तोहफ़े दे कर इस पर राज़ी कर लिया कि बादशाह के यहां वे उनकी सिफ़ारिश करेंगे। इसके बाद मक्का का प्रतिनिधि मंडल हबश के बादशाह नजाशी के दरबार में दाखिल हुआ। उन्होंने बादशाह से कहा कि हमारे शहर के कुछ नादान लोग अपने बाप-दादाओं का दीन छोड़ कर आपके मुल्क में आ गए हैं। अब उनके ख़ानदान और क़बीले के लोगों ने हमको यहां भेजा है कि हम उन्हें उनके घरों की तरफ़ वापस ले जाएं। हम चाहते हैं कि आप हमें इसकी इजाज़त दें दें और उनको हमारे हवाले कर दें। तमाम दरबारियों ने उनकी इस मांग की हिमायत की ।

मक्का का प्रतिनिधिमंडल यह चाहता था कि सिर्फ़ उनके कहने पर बादशाह मुसलमानों को उनके हवाले कर दे। और ख़ुद मुसलमानों को बुला कर उनसे कोई पूछताछ न करे। जब उन्होंने बादशाह से अपनी इस ख़्वाहिश का इज़हार किया तो बादशाह बिगड़ गया। उसने कहा, “ख़ुदा की क़सम नहीं। मैं हर्गिज़ उनको तुम्हारे हवाले नहीं करूंगा, जब तक ऐसा न हो कि मैं उनको अपने यहां बुलाऊं और उनसे बात करूं और देखूं कि उनका मामला क्या है ।

मूसा इब्ने उक्बा कहते हैं कि नजाशी के दरबारियों ने मक्का के प्रतिनिधिमंडल की मांग की हिमायत की और बादशाह को मश्वरा दिया कि वह मुसलमानों को फ़ौरन उनके हवाले कर दे। मगर नजाशी ने कहा कि ख़ुदा की क़सम नहीं। मैं इस मामले में कोई फ़ैसला नहीं कर सकता, जब तक उनकी बात न सुन लूं और यह जान लूं कि वे लोग किस चीज़ पर हैं ।

इसके बाद नजाशी ने हुक्म दिया कि मक्का के जो मुसलमान हमारे मुलक में आए हैं, उनको मेरे दरबार में हाज़िर किया जाए। वे लोग लाए गए। वे लोग दरबार में दाखिल हुए तो उन्होंने वहां के आम तरीके के मुताबिक बादशाह को सज्दा नहीं किया। नजाशी एक ईसाई बादशाह था। अपने अक़ीदे के मुताबिक वह हज़रत ईसा को ख़ुदा का बेटा मानता था। मगर बातचीत के दौरान जब हज़रत ईसा का ज़िक्र हुआ तो सहाबियों के नुमाइन्दे जाफ़र बिन अबी तालिब ने साफ़ कह दिया कि वह ख़ुदा के पैग़म्बर थे, वह ख़ुदा के बेटे न थे। वगै़रह ।

नजाशी ने पूरी बात मालूम करने के बाद प्रतिनिधि मंडल के अनुदान और तोहफ़े वापस कर दिए। उसने उनसे कहा कि तुम लोग अपने मुल्क लौट जाओ। मैं इन मुसलमानों को हर्गिज़ तुम्हें सौंपने वाला नहीं। वे मेरे मुल्क में जब तक चाहेंगे रहेंगे (सीरत इब्ने कसीर, दूसरा हिस्सा, पेज 22)

यही इन्साफ़ का सही तरीक़ा है। इन्साफ़ एक तरफा कार्रवाई का नाम नहीं। इन्साफ़ दो तरफ़ा तहक़ीक़ के बाद न्यायपूर्ण फ़ैसला देने का नाम है। रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की प्रत्यक्ष पुष्टि के मुताबिक, नजाशी का अमल बेशक इन्साफ़ का ऊँचा नमूना है ।

हक़ीक़त यह है कि जब भी कोई ऐसा मसला सामने आए जो दो पक्षों से ताल्लुक रखता हो तो ऐसे मौके पर एक पक्ष की बात सुन कर फ़ैसला कर देना सरासर ज़ुल्म है। ऐसा करना किसी भी शख़्स के लिए दुरुस्त नहीं, चाहे वह कितने ही बड़े मन्सब और ओहदे पर क्यों न हो ।

बादशाह नजाशी ने बाद में इस्लाम क़बूल कर लिया था। इस लिहाज़ से नजाशी का नमूना एक न्यायप्रिय और मुस्लिम बादशाह का नमूना है। नजाशी इस मामले में न मक्का वालों के तोहफ़ों और नज़रानों से प्रभावित हुआ, न उसने अपने दरबारियों और करीबी लोगों के मश्वरे और सिफ़ारिश को माना, यहां तक कि नजाशी ने इसकी परवाह भी नहीं की कि मुसलमानों ने ख़ुद उसकी ताज़ीमो तकरीम नहीं की यानी उसके सामने सज्दा नहीं किया, जिसका वह आदी था। और इस तरह वे भरे दरबार उसकी तौहीन करने वाले बने। इतना ही नहीं, उन्होंने बादशाह और सारी क़ौम के मज़हबी अक़ीदों का खंडन किया और उसको ग़लत बताया ।

इन सब प्रतिकूल पहलुओं के बावजूद नजाशी ने किसी बात की कोई परवाह नहीं की। उसने मामले के सिर्फ़ अद्ल व इन्साफ़ के पहलू को देखा, दूसरे तमाम के निजी और ग़ैर-निजी पहलुओं को उसने सिरे से नज़रअन्दाज़ कर दिया। उसने दोनों पक्षों की बात सुन कर मामले की निष्पक्ष तहकीक की, और फिर जो इन्साफ़ का तक़ाज़ा था, उसके मुताबिक़ फ़ैसला सुना दिया।

ये वाक़िआत यह साबित करते हैं कि शाह नजाशी के अन्दर इन्सानियत का जज़्बा पूरी तरह मौजूद था। ख़ुदा ने जिस फ़ितरत पर उसको पैदा किया था, उस फ़ितरत को उसने अपनी अस्ल हालत पर बाक़ी रखा था ।

यही वजह है कि हक़ व सच्चाई जब उसके सामने आई, तो उसको समझने में उसे देर नहीं लगी। हालांकि ज़ाहिरी तौर पर वह उसकी धारणा के ख़िलाफ़ था, मगर उसने किसी लाग-लपेट के बिना और किसी पूर्वाग्रह के बिना उसकी सच्चाई का एतिराफ़ किया। वह फ़ौरन उसके आगे झुक गया ।

अपनी इन खुसूसियात की बिना पर वह इस काबिल ठहरा कि अल्लाह तआला उस पर रहमत की नज़र करे। उसको ईमान की तौफीक़ दे कर उसको आख़िरत की हमेशा रहने वाली नेअमतों का मुस्तहक़ बनाए। रिवायात से साबित है कि शाह नजाशी ने इस्लाम क़बूल किया और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम और सहाबा ने उसके हक़ में अल्लाह तआला से ख़ास दुआएं कीं ।

सबसे बड़ी नेकी यह है कि आदमी अद्ल व इन्साफ़ के मुताबिक़ फ़ैसला करे, चाहे उसके लिए उसके ऊपर कोई दबाव न हो, चाहे न्यायपूर्ण फ़ैसला करना उसके स्वार्थ के खिलाफ़ क्यों न हो। यही वे बुलन्द रूहें हैं, जिनको क़ियामत में अर्शे-ख़ुदावन्दी के साए में जगह दी जाएगी ।

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