आदमी की परख

अल्लामा इब्ने कय्यिम (691-751 हि.) ने अपनी किताब तरीक़ुल हिजरतेन में एक वाकिया इस तरह लिखा है:

हज़रत सुहैल बिन सअद कहते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सूर: मुहम्मद की यह आयत तिलावत फ़रमाई, “क्या ये लोग कु़रआन में ग़ौर नहीं करते या दिलों पर उनके ताले लगे हुए हैं।” उस वक़्त रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास एक लड़का बैठा हुआ था। उसने आयत सुन कर कहा, “हां, ख़ुदा की क़सम, ऐ अल्लाह के रसूल, बेशक दिल पर उसके ताले हैं। और उनको कोई नहीं खोल सकता, सिवा उसके जिसने उसको लगाया है ।” फिर जब हज़रत उमर बिन ख़त्ताब खलीफा हुए तो उन्होंने उस लड़के को बुलाया, ताकि उसको किसी काम पर लगाएं और उन्होंने कहा, “लड़के ने यह जो बात कही वह अक़्ल से कही।”

जो लोग सामूहिक मामलों के ज़िम्मेदार हों, उनके लिए व्यक्तियों की बेहद अहमियत होती है। किसी संस्था या किसी सामूहिक काम के बेहतर ढंग से पूरा होने में यही व्यक्ति काम आते है। ऐसे लोग हमेशा समाज में मौजूद रहते हैं, मगर जिन ज़िम्मेदारों के हाथ में व्यक्तियों को चुनने की ज़िम्मेदारी हो, उनके अन्दर एक गुण ज़रूर पाया जाना चाहिए, और वह यह कि वे आदमी की निजी क़ाबिलीयत की बुनियाद पर उसका चुनाव करें न कि किसी और बुनियाद पर।

किसी संस्था के ज़िम्मेदार में अगर पक्षपात हो; अगर वह खुशामदी इन्सानों को पसंद करता हो; अगर वह यह चाहता हो कि उसके आसपास के तमाम लोग उससे कमतर सलाहियत वाले हों, ताकि उसकी निजी बड़ाई कायम रहे-ज़िम्मेदार के अन्दर अगर इस क़िस्म का मिज़ाज हो तो वह संस्था को बेकार इन्सानों का कबाड़खाना बना देगा। इसके बरअक्स अगर उसके अन्दर वह मिज़ाज हो, जिसका एक नमूना ऊपर के वाक़ए में नज़र आता है तो उसका संगठन एक ऐसा बाग़ होगा, जिसमें हर किस्म के बेहतरीन दरख़्त लगे हुए हों और हमेशा वह अपना फल देता रहे।

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