तक़वा और शुक्र

हज़रत अबू उमामा कहते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरे रब ने मेरे सामने यह पेशकश की कि मक्का की घाटी को तुम्हारे लिए सोना बना दिया जाए। मैंने कहा कि मेरे रब, नहीं बल्कि मुझे यह पसंद है कि मैं एक दिन खाऊं और एक दिन भूखा रहूं। बस जब मुझे भूख लगे तो मैं तेरी तरफ़बेबसी ज़ाहिर करूं और तुझको याद करूं और जब मुझे सेरी (तृप्ति) हासिल हो तो मैं तेरी तारीफ़ करूं और तेरा शुक्र अदा करूं।

अल्लाह तआला अपने बन्दों से दो चीज़ें चाहता है। एक यह कि वह अल्लाह की क़ुदरत को स्वीकार करके उसके आगे अपने इज्ज़ (बेबसी), विनम्रता का इज़हार करें। दूसरे यह कि वह अल्लाह की नेमतों को महसूस करके उस पर शुक्र करने वाले बन जाएं। ये दोनों बातें निहायत साफ़ तौर पर क़ुरआन और हदीस में बताई गई हैं। मगर इसका सबसे बड़ा अमली तजुर्बा वह है जो भूख और तृप्ति की सूरत में इन्सान के साथ पेश आता है। जब आदमी को भूख लगती है, जब उसको प्यास लगती है, उस वक़्त उसको आख़िरी हद तक इस हक़ीक़त का एहसास होता है कि वह कितना कमज़ोर और मोहताज है। इसी तरह जब भूख और प्यास की शिद्दत के बाद उसको खाना और पानी मिलता है तो उस वक़्त उसको आख़िरी तौर पर महसूस होता है कि खाना और पानी कितनी क़ीमती चीज़ें हैं।

इस दुनिया में आदमी को भूख का तजुर्बा भी होना चाहिए और तृप्ति का भी। उसे इस हालत से भी गुज़रना चाहिए कि उसका हल्क़ प्यास की वजह से सूख गया हो और इसी के साथ यह कैफियत भी कि उसने ठंडा पानी पिया और उसके बाद उसका वह हाल हो गया, जिसको हदीस में इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है: प्यास चली गई और रगें तर हो गईं।

ऊपर वाली हदीस से मालूम होता है कि हालात के बग़ैर कैफियत (अनुभूतियां) पैदा नहीं होतीं। रोज़ा इसी क़िस्म के हालात पैदा करने की एक सालाना तदबीर है। रोज़े के ज़रिए आदमी को भूख और तृप्ति दोनों का तजुर्बां कराया जाता है, ताकि वह ख़ुदा के आगे आजिज़ी करने वाला, विनम्रता दिखाने वाला और गिड़गिड़ाने वाला भी बने और इसी के साथ उसका शुक्र करने वाला भी।

क़ुरआन में रोज़े का हुक्म देते हुए कहा गया है कि ईमान वालो, तुम पर रोज़ा फ़र्ज किया गया जिस तरह तुमसे पहले के लोगों पर फ़र्ज़ किया गया था, ताकि तुम परहेज़गार बनो... रमज़ान का महीना जिसमें क़ुरआन उतारा गया... पस तुम में से जो शख़्स इस महीने को पाए, वह इसके रोज़े रखे...और अल्लाह की बड़ाई करे। इस पर कि उसने तुमको राह बताई, और ताकि तुम उसके शुक्रगुज़ार बनो (अल-बकर: 183-85)

इन आयतों में रोज़े के दो ख़ास फ़ायदे बताए गए हैं। एक यह कि रोज़ा आदमी के अन्दर तक़्वा (संयम) पैदा करने का ज़रीआ है। दूसरे यह कि इससे आदमी के अन्दर यह सलाहियत पैदा होती है कि वह अपने रब का शुक्र करने वाला बने।

क़ुरआन में जिस दीनी कैफियत के लिए तक़्वा और शुक्र का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, उसी को हदीस में तज़र्रु’(मिन्नत) और शुक्र कहा गया है। यही दोनों कैफियतें बन्दगी की जान हैं। अल्लाह के मुक़ाबले अपने इज्ज़ और छोटेपन का एहसास आदमी के अन्दर तज़र्रु और तक़वा का एहसास उभारता है। और अल्लाह की दी  हुई चीज़ों का एहसास उसके अन्दर हम्द, अनुशंसा और शुक्र के जज़्बात पैदा करता है।

अगर आदमी की चेतना जागी हुई हो, ये दोनों कैफियतें हर रोज़ हर तजुर्बे से आदमी के अन्दर पैदा होती रहेंगी। वह हर घटना से दोनों रब्बानी ग़िज़ाएं हासिल करता रहेगा। फिर इन्हीं दोनों कैफ़ियतों को और भी ज़्यादा और गहराई से हासिल करने के लिए रमज़ान के महीने का रोज़ा मुक़र्रर किया गया है। रमज़ान का रोज़ा गोया अमूमी (सामान्य) तरबियत का ख़ुसूसी (विशेष) कोर्स है।

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