इबादत
क़ुरआन में है कि अल्लाह ने इन्सान और जिन्न को सिर्फ़ इसलिए पैदा किया है कि वे उसकी इबादत (उपासना) करें। यह आयत सत्य के इतने क़रीब है कि अगर सिर्फ़ इसी एक आयत पर ग़ौर किया जाए तो वह किसी आदमी के अन्दर यह यक़ीन पैदा करने के लिए काफी होगी कि क़ुरआन ख़ुदा की किताब है, इन्सान जैसा जीव इस क़िस्म की किताब को वजूद में नहीं ला सकता।
इन्सान के अस्तित्व के दो पहलू हैं। एक मानसिक (या रूहानी) और दूसरा शारीरिक। इन दोनों पहलुओं से इन्सान की तरकीब ऐसी है कि जैसे वह ख़ुदा की इबादत के लिए ही पैदा किया गया है।
इबादत का सबसे कामिल रूप नमाज़ है। इस आयत की रोशनी में नमाज़ और इन्सानी शख़्सियत का जायज़ा लीजिए।
इन्सान की मानसिक रचना का जायज़ा बताता है कि इन्सान ठीक अपनी रचना के लिहाज़ से यह चाहता है कि कोई हो, जिसके आगे वह अपने आपको झुका दे। यही वजह है कि ज़्यादातर इन्सान किसी न किसी के आगे अपने आपको झुकाए हुए हैं, और इस झुकाव से उन्हें खास संतुष्टि हासिल होती है। मगर ग़ैर-ख़ुदा के आगे झुकना इस जज़्बे का ग़लत इस्तेमाल है। इस तरह आदमी ग़ैर-ख़ुदा को वह चीज़ दे देता है जो उसे सिर्फ़ ख़ुदा को देनी चाहिए।
नमाज़ में जब आदमी ख़ुदा के आगे झुकता है तो उसको अपने इस जज़्बे की पूरी तस्कीन (तुष्टि) हासिल होती है। नमाज़ में ख़ुदा के आगे झुक कर वह अपने वजूद के उस पूरे तक़ाज़े का जवाब पा लेता है, जो उसके अन्दर रचा-बसा हुआ था कि वह उसको निकालना चाहे तब भी वह उसको निकाल न सके। यह एक हक़ीक़त है कि इन्सान के स्वाभाविक जज़्बे का मर्जअ (पनाहगाह) हक़ीक़त में ख़ुदा के सिवा और कोई नहीं हो सकता।
इसके बाद इन्सान के जिस्म को लीजिए। आप किसी आदमी को नमाज़ पढ़ते हुए शुरू से आख़िर तक देखें। आप महसूस करेंगे कि नमाज़ आदमी के पूरे जिस्म का मुकम्मल इस्तेमाल है। आपको ऐसा मालूम होगा जैसे आदमी इसीलिए बनाया गया है कि वह नमाज़ पढ़े।
नमाज़ के लिए आदमी का अपने दोनों पैरों पर खड़ा होना। क़िब्ले की तरफ़ रुख़ करके उसी तरफ़ ध्यान लगाना। फिर हाथ बांधना। ज़बान से नमाज़ के कलमात अदा करना और इमाम की आवाज़ सुन कर एक हालत से दूसरी हालत की तरफ़ जाना; दोनों हाथ घुटनों पर रख कर रुक करना, हाथ और पेशानी और बाक़ी पूरे जिस्म को इस्तेमाल करते हुए सज्दा करना, फिर चेहरे को दाएं-बाएं घुमा कर सलाम करना, दोनों हाथ उठा कर अल्लाह से दुआ करना, वगै़रह।
ये सारी चीज़ें इन्सान के जिस्म से इतना ज़्यादा अनुकूलता रखतीं हैं, और इन हरकतों में इन्सान के तमाम हिस्से इस तरह शामिल हो जाते हैं कि ऐसा मालूम होता है जैसे इन्सान का पूरा जिस्म इसीलिए बनाया गया था कि वह नमाज़ की शक्ल में रब की इबादत करे।
तमाम इन्सान अल्लाह की फ़ितरत पर पैदा किए गए हैं। ख़ुदाई फितरत यह है कि आदमी अल्लाह की तरफ़ ध्यान लगाए और नमाज़ की सूरत में उसकी इबादत करे। क़ुरआन में कहा गया है:
तो फिर तुम एकाग्र होकर अपना रुख इस दीन की तरफ़ सीधा रखो। अल्लाह की फ़ितरत जिस पर उसने लोगों को बनाया है। उसके बनाए हुए को बदलना नहीं। यही सीधा दीन है। लेकिन अक्सर लोग नहीं जानते। उसी की तरफ़ लौ लगाओ और उसी से डरो और नमाज़ कायम करो और मुश्रिकों में से न बनो।
नमाज़ की यही ख़ास ख़ूबी है, जिसकी बदौलत इतिहास में इस तरह की मिसालें मिलती हैं कि बहुत से लोगों ने सिर्फ़ मुसलमानों को नमाज़ पढ़ते हुए देख कर इस्लाम क़ुबूल कर लिया।
आदमी के अन्दर जो फ़ितरत (प्रकृति) है वह इबादत की फितरत है। आदमी का पूरा वजूद इबादत का तलबगार है। दूसरे लफ़्ज़ों में कहा जा सकता है कि हर आदमी पैदाइशी तौर पर नमाज़ पढ़ने का जज़्बा लिए हुए है। आदमी का पूरा जिस्म और उसके तमाम हिस्से नमाज़ की सूरत में ढल जाने की ख़ामोश आकांक्षा (desire) लिए हुए हैं।
जब एक आदमी किसी नमाज़ी को नमाज़ पढ़ते हुए देखता है तो उसका पूरा वजूद कह उठता है कि यही वह अमल है जिसकी तलब और लालसा वह अपने अन्दर लिए हुए था। नमाज़ उसको ख़ुद अपनी तलाश का जवाब मालूम होने लगती है। उसकी फितरत की यह तड़प उसको मजबूर करती है और वह नमाज़ियों के साथ नमाज़ में झुक जाता है।