इस्लाम के अरकान (स्तंभ)

हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर कहते हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाः इस्लाम की बुनियाद पांच चीज़ों पर रखी गई है। इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद (पूज्य) नहीं और यह कि मुहम्मद उसके बंदे और रसूल हैं। और नमाज़ क़ायम करना और ज़कात देना और हज करना और रमज़ान के रोज़े रखना।

इस हदीस के मुताबिक़ इस्लाम में पांच चीजें स्तंभ (pillars) की हैसियत रखती हैं। जिस तरह इमारत कुछ स्तंभों पर खड़ी होती है, उसी तरह इस्लामी ज़िंदगी पांच अरकान पर क़ायम होती है। ये पांच अरकान वैसे तो पांच शक्ली चीजों के नाम हैं। यानी ईमान के कलिमे के लफ़्ज़ों को दोहराना। नमाज़ के ढांचे को कायम करना, ज़कात की तयशुदा रक़म निकालना, हज के मरासिम/रस्मों को अदा करना, रमज़ान के रोज़े रखना। यानी इन शक्ली अहकाम का एक अर्थ है और उनकी वही अदायगी विश्वसनीय है, जिसमें उसका मर्म (हक़ीक़त) पाया जाए।

इस दुनिया में हर चीज़ का मामला यही है। मसलन टेलीफोन को लीजिए। जैसा कि मालूम है, टेलीफोन का एक ऊपरी रूप होता है। पर यही ऊपरी रूप वह चीज़ नहीं है, जो टेलीफोन से वांछित (desirable) है। टेलीफोन के लिए टेलीफोन वांछित नहीं होता, बल्कि संपर्क के लिए टेलिफोन वांछित होता है। अगर आप कहें कि मेरे पास टेलीफोन है तो इसका मतलब यह नहीं होगा कि टेलीफोन की आकृति की एक चीज़ आपके पास मौजूद है। इसका मतलब यह होगा कि टेलीफोन की हकीकतआपके पास मौजूद है। यानी एक ऐसी मशीन जिसके ज़रिए दुनिया के हर हिस्से से संपर्क स्थापित किया जा सके, जिसके जरिए दूर के लोगों से बातचीत की जा सके।

यही मामला इस्लाम के उपरोक्त पांच अरकान का भी है। ये अरकान उसी वक़्त इस्लाम के अरकान हैं, जबकि उनको इस तरह अपनाया जाए कि उनकी शक्ल के साथ-साथ उनकी रूह भी आदमी के अंदर पाई जा रही हो। रूह को जुदा करने के बाद शक्ल का मौजूद होना ऐसा ही है जैसे उसका मौजूद न होना।

ईमान स्पिरिट: यह इस्लाम का सबसे पहला रुक्न है। इसका ज़ाहिरी रूप इस्लाम के कलिमे को जुबान से कहना है। और इसकी अस्ल स्पिरिट इसे मानना है। इस कलिमे के जरिए एक इन्सान ख़ुदा को उसकी तमाम विशेषताओं और शक्तियों के साथ मानता है। वह मुहम्मद (सल्ल.) की इस हैसियत को स्वीकार करता है कि ख़ुदा ने उनको मेरे लिए और तमाम इन्सानों के लिए रहती दुनिया तक रहनुमा बनाया। यह हक़ीक़त जिसके दिल में उतर जाए वह उसकी पूरी मानसिकता में शामिल हो जाती है। ऐसे आदमी का सीना सच्चाई को स्वीकार करने के लिए खुल जाता है। वह एक ऐसा इन्सान बन जाता है, जिसके लिए कोई भी चीज़ कभी सच्चाई को मानने में रुकावट न बन सके।

नमाज़ स्प्रिटः नमाज़ की ऊपरी सूरत पांच वक़्त की इबादत है और उसकी असली स्पिरिट विनम्रता और समर्पण है। नमाज़ पढ़ने वाला आदमी अपने रब के आगे झुकता है। इस तरह वह अपने अंदर विनम्रता और समर्पण की मनःस्थिति पैदा करता है। जिस आदमी के अंदर नमाज़ स्पिरिट पैदा हो जाए वह घमंड और अहंकार जैसी चीज़ों से खाली हो जाएगा। उसका रवैया हर मामले में विनम्रता का रवैया बन जाएगा न कि गर्व और बड़ाई का रवैया।

ज़कात स्पिरिट: ज़कात की ज़ाहिरी सूरत हर साल एक ख़ास रक़म अदा करना है। और इसकी अस्ल स्पिरिट ख़िदमत है। जो आदमी ज़कात का अमल करे उसके अंदर लोगों के लिए ख़िदमत और ख़ैरख़्वाही की सामान्य भावना पैदा हो जाएगी। वह चाहेगा कि वह दुनिया में इस तरह रहे कि वह दूसरों के लिए ज़्यादा से ज़्यादा फायदेमंद बन सके।

हज स्पिरिटः हज ऊपरी तौर पर सालाना मरासिम की अदायगी है और उसकी अस्ल स्पिरिट इत्तिहाद और एकता है। जो आदमी सच्चे भाव से हज के फराइज़ अदा कर ले उसके अंदर विरोध की मानसिकता ख़त्म हो जाएगी। वह इत्तिहाद और इत्तिफ़ाक़ के मिज़ाज के साथ लोगों के बीच रहने लगेगा, यहां तक कि उस वक़्त भी जबकि दूसरों के साथ उसके मतभेद पैदा हो जाएं।

रोज़ा स्पिरिटः रोज़े की ज़ाहिरी सूरत रमज़ान के महीने का रोज़ा है। और इसकी अस्ल स्पिरिट सब्र है। रोज़े का मक़सद यह है कि आदमी के अंदर सब्र की स्पिरिट पैदा हो। जो आदमी रोज़ा रखता है उसके अंदर यह मिज़ाज पैदा हो जाता है कि वह नाख़ुशगवार बातों को बर्दाश्त करे, शिकायत करने के बजाय नज़र अंदाज करते हुए ज़िन्दगी गुज़ारे।

जो लोग इस्लाम के इन पांच अरकान को महज़ उनकी शक्ल के लिहाज़ से इख़्तियार करें, वे महज़ शक्ल की हद तक तो उनको अपनाएंगे, लेकिन इन शक्लों के बाहर उनकी जिंदगी इन अरकान से बिल्कुल आज़ाद और असंबद्ध होगी।

मसलन, वे ईमान के कलिमे के शब्दों को अपनी ज़ुबान से दोहराएंगे, पर उन ख़ास शब्दों के बाहर उनके सामने कोई सच्चाई आएगी तो वे उसको स्वीकार न कर सकेंगे। क्योंकि उनकी रूह कलिमे की स्पिरिट से ख़ाली है। वे नमाज़ की शक्ल को मस्जिद में खड़े होकर दोहराएंगे, लेकिन मस्जिद के बाहर लोगों के साथ उनका वास्ता पड़ेगा तो वहां वे विनम्रता का अंदाज़ अपना न सकेंगे और इसकी वजह यह होगी कि नमाज़ की जो स्पिरिट है वह उनके अंदर मौजूद नहीं।

इसी तरह वह ज़कात के नाम पर एक रकम निकाल कर किसी को दे देंगे, पर इसके बाद जब लोगों के साथ मामला करेंगे तो उसमें वे खैरख्वाही का सबूत न दे सकेंगे, क्योंकि ज़कात स्पिरिट से उनका सीना खाली था। वे पूरे सम्मान से हज का सफर करेंगे और उसके मरासिम अदा करके वापस आ जाएंगे पर वे इसके लिए तैयार न होंगे कि लोगों की तरफ़ से पेश आने वाली शिकायतों को नज़रअंदाज़ करते हुए उनके साथ मेल-मिलाप और एकता का बर्ताव करें। क्योंकि उन्होंने हज के बावजूद हज-स्पिरिट अपने अंदर पैदा नहीं की। रमज़ान का महीना आएगा तो वे मौसमी इबादत के तौर पर एक महीने का रोज़ा रख लेंगे, पर वे सब्र के मौके पर सब्र नहीं करेंगे। वह हर भड़कावे पर उत्तेजित होकर लड़ने लगेंगे। और इसकी वजह यह होगी कि जाहिरी तौर पर उन्होंने रोज़ा तो रख लिया मगर उनके दिल और दिमाग में रोजे की स्पिरिट पैदा न हो सकी।

जो आदमी इस्लाम के पांच अरकान को अपना ले वह मोमिन और मुस्लिम हो गया। वह इस बात का पात्र हो गया कि दुनिया में उसको अल्लाह की रहमत मिले और आख़िरत में उसको जन्नत में दाख़िल किया जाए। लेकिन इस्लाम के पांच अरकान अपनी शक्ल और रूह दोनों के लिहाज़ से होने चाहिए। उनके अदा होने पर जिन इनामों का वादा है उसका ताल्लुक़ पूरी अदायगी पर है न कि अधूरी अदायगी पर।

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