वादा
सामाजिक जीवन में आपसी मामलों में अक्सर ऐसा होता है कि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से कोई वादा करता है। यह वादा दिखने में दो व्यक्तियों या दो समूहों के बीच होता है, लेकिन इसमें एक तीसरा पक्ष भी होता है और वह है ईश्वर, जो गवाह के रूप में हमेशा उसमें मौजूद रहता है। इसीलिए हर वादा एक ईश्वरीय वादा बन जाता है।
इसी वजह से मुसलमान वादे के मामले में बेहद संवेदनशील होता है। उसे यह विश्वास होता है कि हर वादा, जो दो लोगों के बीच किया जाता है, वह ईश्वर की निगरानी में होता है और उसका हिसाब ईश्वर के पास होगा। यह विश्वास उसे मजबूर करता है कि वह वादे के मामले में बहुत ज़िम्मेदारी से पेश आए। जब वह किसी से वादा करता है, तो उसे पूरा करना अनिवार्य समझता है।
जिस समाज में लोग इस गुण के धनी हों कि वे अपने वादे ज़रूर निभाएँ, उस समाज का हर व्यक्ति भरोसेमंद और पूर्वानुमान (predictable character) योग्य बन जाता है। ऐसे समाज में वह ख़ास गुण आ जाता है, जो पूरे ब्रह्मांड में व्यापक रूप से मौजूद है। इस ब्रह्मांड का हर तत्व सटीकता से अपने कार्य करता है। जैसे ग्रहों और सितारों की गति के बारे में पहले से पता होता है कि वे सौ साल बाद या हज़ार साल बाद कहाँ होंगे। इसी तरह, पानी के बारे में पहले से पता है कि वह किस तापमान पर उबलेगा। इस तरह पूरा ब्रह्मांड भरोसेमंद और पूर्वानुमान योग्य बन गया है।
जिस समाज में लोग वादे निभाने वाले हों, उस समाज में अपने आप कई अन्य अच्छाइयाँ विकसित होने लगती हैं। जैसे, ऐसे समाज में लेन-देन के झगड़े नहीं होते। वहाँ परस्पर विश्वास का माहौल बन जाता है। हर व्यक्ति शांत रहता है, क्योंकि उसे यह डर नहीं होता कि कोई वादा तोड़ने की घटना होगी। वादे को निभाना उच्चतम नैतिक गुण है और ईमान इंसान को इसी उच्चतम नैतिक गुण का मालिक बनाता है।