हुक़ूक़-उल-इबाद— बंदों के अधिकार

मुसलमान पर एक ज़िम्मेदारी वह है, जो ईश्वर की तरफ़ से उस पर रखी गई है। इसे ‘हक़ुल्लाह—ईश्वर के अधिकार’ कहा जाता है यानी ईश्वर को उसकी सभी श्रेष्ठ विशेषताओं के साथ मानना, उसकी इबादत करना और अपने आपको उसके आगे जवाबदेह समझना। यह सुनिश्चित करना कि जब भी ईश्वर का कोई आदेश आएगा, वह तुरंत उसे मान लेगा और दिल से उसका पालन करेगा।

मुसलमान की दूसरी ज़िम्मेदारी वह है जिसे हुक़ूक़-उल-इबाद कहा जाता है यानी बंदों के अधिकार। यह वह ज़िम्मेदारी है, जो उस पर दूसरे इंसानों के संदर्भ में आती है। हर पुरुष या महिला, चाहे वह उसका रिश्तेदार हो, उसका पड़ोसी हो, उसका हमवतन हो या उसका व्यापारिक साथी हो, हर किसी का उस पर कुछ हक़ है। इन अधिकारों को पूरा करना मुसलमान की अनिवार्य ज़िम्मेदारी है। इन अधिकारों को अदा किए बिना वह ईश्वर की मदद का हक़दार नहीं बन सकता।

हुक़ूक़-उल-इबाद का मतलब क्या है? इसका मतलब है कि जब भी और जहाँ भी एक मुसलमान का सामना दूसरे इंसानों से हो, वह उनके साथ वही व्यवहार करे, जो इस्लामिक सिद्धांतों के अनुसार हो। वह उनके साथ ऐसा व्यवहार न करे, जो इस्लामी मानकों पर खरा न उतरे।

उदाहरण के लिए, दूसरे का सम्मान करना और उसे कभी अपमानित न करना। दूसरे को लाभ पहुँचाना और अगर लाभ पहुँचाना संभव न हो तो कम-से-कम अपने नुक़सान से उसे बचाना। दूसरों से किए गए वादों को पूरा करना और कभी उनकी अवहेलना न करना। दूसरों की संपत्ति पर अन्यायपूर्वक कब्ज़ा करने की कोशिश न करना। हर स्थिति में न्याय करना और कभी अन्याय न करना। हर व्यक्ति के प्रति सद्भावना रखना और बिना किसी कारण के उसके प्रति बुरा विचार न रखना। हर किसी को उसके भले के अनुसार सलाह देना और कभी किसी को बुरी सलाह न देना, आदि।

हर व्यक्ति को दूसरे के प्रति अपनी इंसानी ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहिए। यही हुक़ूक़-उल-इबाद है।

Maulana Wahiduddin Khan
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