जनसेवा
मुसलमान के अंदर जो उच्च भावनाएँ होनी चाहिएँ, उनमें से एक है जनसेवा यानी दूसरे प्राणियों के काम आना। लोगों की ज़रूरतें पूरी करना। बिना किसी इनाम की उम्मीद किए हर किसी की आवश्यकताएँ पूरी करना।
दूसरों की मदद करना वास्तव में ईश्वर द्वारा ख़ुद को मिली नेमतों (blessings) का आभार व्यक्त करना है। वही व्यक्ति दूसरों के काम आता है, जिसके पास दूसरों की तुलना में कुछ विशेष योग्यताएँ होती हैं, जैसे कि आँखों वाले व्यक्ति का एक अंधे व्यक्ति की मदद करना, एक स्वस्थ व्यक्ति का किसी अपाहिज की मदद करना, एक धनवान व्यक्ति का निर्धन व्यक्ति की सहायता करना या एक प्रतिष्ठित व्यक्ति का किसी तुच्छ व्यक्ति की मदद करना।
जब भी कोई व्यक्ति ईश्वर की दी हुई किसी विशेषता के आधार पर किसी की मदद करता है, तो वह ऐसा करके ईश्वर के उपकार का स्वीकार करता है। वह मौन भाषा में कहता है, “हे ईश्वर, जो कुछ मेरे पास है, वह तेरा ही दिया हुआ है। अब मैं इसे फिर से तेरी ही राह में ख़र्च कर रहा हूँ। तू हम दोनों के लिए अपनी और भी ज़्यादा रहमत और बरकत लिख दे।”
जनसेवा का कार्य करके व्यक्ति केवल दूसरों की मदद नहीं करता, बल्कि अपनी स्थिति को भी बेहतर बनाता है। मिली हुई चीज़ को केवल अपने लिए इस्तेमाल करना पशु स्तर (animal level) पर जीने के समान है, क्योंकि पशु भी वही करता है; जो कुछ उसके पास होता है, वह केवल उसका ही होता है, उसमें किसी और पशु का हिस्सा नहीं होता।
लेकिन इंसान का स्तर इससे ऊँचा है। इंसान सभी प्राणियों में सबसे श्रेष्ठ है। उसकी उच्च अवस्था के अनुसार सही व्यवहार यह है कि वह केवल अपनी इच्छाओं में सिमटकर न जिए, बल्कि पूरी इंसानियत को अपने दिल में समेटे। वह दुनिया में इस तरह से जिए कि वह दूसरों का भला चाहता हो, उनकी सेवा के लिए हमेशा तैयार रहता हो। वह अपने संसाधनों में दूसरों का अधिकार भी माने।
जनसेवा को दूसरे शब्दों में इंसानियत की सेवा कहा जा सकता है और ईश्वर की आराधना के बाद इंसानियत की सेवा से बड़ा कोई काम नहीं है।