विकासवाद: एक धोखा
विकासवाद के सिद्धांत (Theory of Evolution) का दावा है कि इन्सान और जानवर दोनों एक ही नस्ल से हैं। इन्सान दूसरे जानवरों ही की विकसित नस्ल है, न कि कोई अलग नस्ल। इस दावे के सिलसिले में जो सवाल पैदा होते हैं, उनमें से एक अहम सवाल यह है कि अगर यह सच है तो बीच की वे नस्लें या प्रजातियां कहाँ हैं जो विकासवाद के अमल के मुताबिक़ अभी मौजूद इन्सान के मुक़ाम तक नहीं पहुंची थीं, वह अभी जानवर और इन्सान के बीच की कड़ी का अंतराल तय कर रही थीं।
इस नज़रिए के हामियों के पास इसके जवाब में अनुमान और अन्दाज़े के सिवा कुछ नहीं है। चार्ल्स डार्विन ने अपनी किताब में बार-बार हम अच्छी तरह अन्दाज़ा कर सकते हैं’ का वाक्य इस्तेमाल किया है। उसका कहना है कि यक़ीनन ऐसा हुआ है, हालांकि अभी हमें इसके तमाम नमूने हासिल नहीं हो सके हैं। इस फ़र्ज़ी यक़ीन की बुनियाद पर एक पूरी वंश परम्परा तैयार कर ली गई है, जो इंसान की नस्ल को बंदर की नस्ल तक जा मिलाती है। बन्दर और इन्सान के बीच की ये कड़ियां तमाम काल्पनिक और फ़र्ज़ी कड़ियां हैं, मगर बिल्कुल ग़लत तौर पर इनको गुमशुदा कड़ियां (missing links) कहा जाता है।
इन ख्याली क़िस्म की गुमशुदा कड़ियों की तलाश पिछले एक सौ साल से जारी है। बार-बार दुनिया को यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की जाती है कि फलां गुमशुदा कड़ी हाथ आ गई है। उन्हीं में से एक कड़ी वह है, जिसको पिल्टडाउन मैन कहा जाता है।
पिल्टडाउन मैन को तक़रीबन आधी सदी तक ‘महान खोज’ कहा जाता रहा। यह समझा जाता रहा कि यह इतिहास से पहले यानी प्रागैतिहासिक काल का वह इन्सान है जो एक तरफ़ इन्सानी खूबियां और विशेषताएं रखता था और दूसरी तरफ़ वह बन्दर (चिम्पैन्जी) के भी गुण रखता था। इतिहास की किताबों में बकायदा इसके हवाले शामिल हो गए। वह कालिजों के कोर्स में पढ़ाया जाने लगा। मिसाल के तौर पर आर० एस० लल की मशहूर किताब आर्गेनिक विकास (Organic Evolution) सात सौ पेज की किताब है और टेस्ट बुक की हैसियत से पढ़ाई जाती है। इसमें इन्सान और जानवरों के बीच की जिन मालूम ‘कड़ियों’ का ज़िक्र किया गया है वे इस प्रकार हैं:
- Ape-man of Jawa
- Piltdown man
- Neanderthal Man
- Cro-magnon Man
मगर बाद की शोधों से साबित हुआ कि ‘पिल्टडाउन मैन’ एक धोखा था। इस सिलसिले में साइंसदानों के तहकीकी नतीजे किताबों और शोध-लेखों में छप चुके हैं। इसको जानने के लिए इन्सायक्लोपीडिया ब्रिटैनिका (1984) का शोध लेख ‘पिल्टडाउन फोरजरी’ का अध्ययन काफ़ी है, जिसको आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने छापा है। चन्द किताबों के नाम हैं:
- Bulletin of the British Museum (Natural History) Vol. 2, No. 3 and 6
- J.S. Weiner, The Piltdown Forgery (1955)
- Ronald Millar, The Piltdown Men (1972)
- Readers Digest, November 1956
- Popular Science (Monthly) 1956
चार्ल्स डावसन (Charles Dawson) नामक एक अंग्रेज़ फॉसिल हड्डियां (Fossil Bones) जमा करने का बहुत शौकीन था। 1912 की घटना है कि वह कुछ हड्डियों को लेकर ब्रिटिश म्यूजियम पहुंचा और यह ख़बर दी कि ये टुकड़े उसे दक्षिण इंग्लैंड के एक मुक़ाम पिल्टडाउन (Piltdown) में एक पहाड़ के अन्दर कंकरियों के दरमयान पड़े हुए मिलें हैं। ब्रिटिश म्यूजियम के एक नामी विद्वान डाक्टर आर्थर स्मिथ वुडवर्ड (A. S. Woodward) ने इसमें खास दिलचस्पी ली और बताई हुई जगह पहुंच कर ख़ुदाई के ज़रिए और भी टुकड़े और दांतों के टुकड़े जमा करके उनका अध्ययन शुरू कर दिया।
इन टुकड़ों में सबसे ख़ास एक जबड़े का टूटा हुआ हिस्सा था जो साफ़ तौर पर एक बन्दर का जबड़ा मालूम होता था। मगर उसमें से एक खास चीज़ बन्दर से अलग थी। और वह उसमें लगे हुए दाढ़ के दो दांत थे, जिनकी ऊपर की सतह समतल (Flat) थी, जो कि सिर्फ किसी इन्सानी दांत में ही हो सकती है। तो यह मान लिया गया कि यह जबड़ा किसी इंसान का है। और इसके बाद निहायत आसानी से उसको विकास की एक गुमशुदा कड़ी ठहरा दिया गया। तलाश करने वालों ने जल्द ही पिल्टडाउन के आसपास वह खोपड़ी भी हासिल कर ली जो पिछले दौर के उस इन्सान के सिर पर कुदरत ने पैदा की थी।
उस पहाड़ की खोह में इतिहास से पहले के ज़माने के यानी प्रागैतिहासिक काल के ज़माने के कुछ जानवरों के अवशेष मिले जिनसे यह तय किया गया कि ‘पिल्टडाउन मैन क़दीम व प्राचीन कालीन इन्सान है जो पाँच लाख वर्ष पहले ज़मीन पर गुज़रा है। इस तहक़ीक़ और खोज ने दूसरी मालूम की हुई गुमशुदा कड़ियों के मुक़ाबले में इसको प्राचीनतम इन्सान की हैसियत दे दी। चार्ल्स डावसन को अपूर्व सम्मान दिया गया क्योंकि उसने साइंस की एक पेचीदा गुत्थी को हल करने में मदद दी थी।
पत्थर में तबदीलशुदा ये इन्सानी हड्डियां जो हासिल हुई थीं, वे पूरे इन्सानी ढांचे के सिर्फ कुछ हिस्से थे। मगर विशेषज्ञों ने उसके आधार पर कल्पनाशक्ति से काम ले कर पांच लाख साल पहले के इंसान का एक पूरा ढांचा तैयार कर लिया, जो अपने बेढंगे माथे और बन्दरनुमा जबड़ों के साथ चालीस साल तक सांइसदानों के ध्यान का केंद्र बना रहा। मगर 1950 में यकायक पिल्टडाउन मैन की हैसियत को सख्त धक्का लगा जब भूगर्भविज्ञान (Geology) के एक विद्वान डाक्टर केनेथ ऑक्ले (Kenneth Oakley) ने एक रासायनिक तरीके को इस्तेमाल करके इसकी तारीख़ मालूम कर ली थी।
यह एक उसूल है कि कोई हड्डी जितने दिनों तक ज़मीन में दफ्न पड़ी रहेगी वह उतनी ही ज़्यादा एक ख़ास तत्व को जज़्ब करती है, जिसका नाम फ्लोरीन (Fluorine) है, डाक्टर ऑकले की जाँच से मालूम हुआ कि हासिल की गई हड्डियों में जितनी फ़्लोरीन पाई जाती है, उसके लिहाज़ से उसकी उम्र सिर्फ़ पचास हज़ार साल होनी चाहिए न कि पाँच लाख साल।
बाद की खोजों से पता चला कि पिल्टडाउन मैन की खोपड़ी के बारे में ऑक्ले का अन्दाज़ा बिल्कुल सही था। मगर उसी की बुनियाद पर उसने जबड़े की उम्र भी जो उतनी ही मान ली थी, वह सही नहीं थी। जबड़ा हक़ीक़त में मौजूदा ज़माने के एक बन्दर का था, जो फर्ज़ी तौर पर उस खोपड़ी के साथ जोड़ दिया गया था।
ऑक्ले की इस खोज ने पिल्टडाउन को दोबारा एक पहेली बना दिया, क्योंकि पांच लाख साल पहले के एक ढांचे को तो गुमशुदा कड़ी माना जा सकता था, मगर एक ऐसा प्राणी जो सिर्फ पचास हज़ार साल पहले मौजूद रहा हो उसका गुमशुदा कड़ी होना बिल्कुल नामुमकिन था।
इसके बाद 1953 की एक शाम को लन्दन की एक दावत में ऑक्ले की मुलाकात आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में मानव विज्ञान (Anthropology) के एक प्रोफेसर डाक्टर वैनर (J. Weiner) से हुई। डाक्टर वैनर ऑक्ले की बातों से बहुत प्रभावित हुआ। उसके बाद घर आकर उसने सोचना शुरू किया कि आखिर इसकी हक़ीक़त क्या है? सबसे ज़्यादा हैरानी उसे पिल्टडाउन मैन के दांत के बारे में थी। “एक बन्दरनुमा जबड़े में इन्सानी दांत जो इस तरह समतल हैं जैसे किसी ने रेती से.. यह सोचते हुए अचानक एक नया ख़्याल उसके जेहन में आया, “ऐसा तो नहीं है कि किसी ने रेती से घिस कर इन दांतो को चिकना कर दिया हो।” उसको ऐसा महसूस हुआ जैसे वह हक़ीक़त के करीब पहुंच गया है। अब वह अपने सामने तहक़ीक़ का एक नया मैदान पा रहा था।
वैनर ने अपने एक साथी सर विल्फ्रेड ली ग्रोस क्लार्क (Sir Wilfred Le Gros Clark) को साथ लेकर काम शुरू किया। उसने चिम्पैन्ज़ी (बन्दर की एक किस्म) का एक दाढ़ का दांत लिया। उसको रेत कर समतल कर लिया। इसके बाद उसको रंग कर देखा तो वह बिल्कुल पिल्टडाउन के दांत जैसा दिखाई देता था। इसके बाद वे दोनों ब्रिटिश म्यूज़ियम गए, ताकि पिल्टडाउन मैन के जबड़े हासिल करके उसके बारे में अपने अनुमान की जांच करें। लोहे का एक मज़बूत बक्स, जिस पर मज़बूत पड़े हुए थे और जो ख़ास तौर पर फायर प्रूफ़ बनाया गया था, उसके दरवाजे खुले और उसके अन्दर से पिल्टडाउन के ढांचे के ‘पवित्र’ टुकड़े निकाले गए, ताकि साइंसी तरीकों के मुताबिक़ उनकी गहरी जाँच-परख की जाए। एक्स-रे मशीन और दूसरे आधुनिक यंत्र हरकत में आ गए। एक खास किस्म का रासायनिक तरीक़ा भी इस्तेमाल किया गया, जो नाइट्रोजन की कमी को मालूम करके यह बताता है कि उस पर कितना वक़्त गुज़र चुका है।
बैनर का अदांज़ा सही था। इस से मालूम हुआ कि पिल्टडाउन मैन के जबड़े की हड्डी कोई पुरानी हड्डी नहीं थी, बल्कि आम क़िस्म के एक बन्दर से हासिल की गई थी। हड्डी का क़ुदरती रंग चूंकि फॉसिल (Fossil) होने के बाद बदल जाता है, इसलिए जालसाज़ों ने निहायत होशियारी से उसको महोगनी रंग में रंग दिया था। रंग को हूबहू बनाने के लिए कुछ खास चीजें इस्तेमाल की गई थीं। गहरे जायज़े के बाद मालूम हुआ कि दांत की सतह पर ऐसी खरौंचें मौजूद हैं, जिससे लगता है कि दांत कृत्रिम तौर पर रगड़ा गया है। इसके अलावा उसके किनारों में अप्राकृतिक क़िस्म की तेज़ी भी थी, जो कि सिर्फ रेती से रगड़ने ही की स्थिति में हो सकती है।
1953 में इन तीनों खोजकर्ताओं (ऑक्ले, वैनर और क्लार्क) ने ऐलान किया कि जबड़ा और दांत बिल्कुल फर्जी हैं। इसके बाद वैनर ने यह मालूम करने की कोशिश की कि इतना बड़ा फ़रेब आखिर किसने घड़ा? उसने तमाम विवरण जमा करने शुरू किए, मुल्क भर के सफ़र किए, ताकि पिल्टडाउन के वाक़ए से जुड़े हुए जो लोग हैं उनसे बातचीत करें। जो लोग मर चुके थे, वह उनके रिश्तेदारों और दोस्तों से मिला। अख़बार की पुरानी फ़ाइलों से इस सिलसिले की तमाम रिपोर्टें पढ़ डालीं।
इस गहरी खोजबीन के बाद पिल्टडाउन की घटना के तमाम लोग बिल्कुल बरी नज़र आए मगर एक शख़्स (चार्ल्स डासन) अपवाद था, जो इस कांड का हीरो था। तमाम जानकारियां संकेत कर रही थीं कि इस बेबुनियाद बात का अस्ल रचनाकार डावसन ही है।
चार्ल्स डावसन एक कामयाब कानूनदां था। वह इंग्लैंड के उस ख़ास इलाके का रहने वाला था जहां फॉसिल्स बहुतायत से पाए जातें हैं। डावसन को फॉसिल्स में बहुत दिलचस्पी पैदा हो गई। उसका यही शौक और शुगल बन गया कि वह फॉसिल हड्डियां जमा किया करता था। पिल्टडाउन मैन के वाक़ए से पहले वह पुराने दौर के बहुत से जानवरों के ढांचे हासिल करके लन्दन के अजायबख़ाने में भेज चुका था।
बाद में डावसन को वह मज़ाक़ सूझा, जिसने 40 साल से ज़्यादा मुद्दत तक वैज्ञानिकों को धोखे में रखा। डावसन के एक मुलाक़ाती ने बताया कि एक बार वह आवाज़ दिए बगैर डावसन के कमरे में चला गया। उसने देखा कि डावसन कुछ प्रयोग करने में मश्गूल है। वह अलग-अलग बर्तनों में खारी पदार्थ और रंगीन अर्क डाल कर हड्डियों को उसमें डुबोए हुए था। डावसन ने उसको देख कर घबराए हुए अन्दाज़ में कहा कि वह फॉसिल हड्डियों को रंग रहा था, ताकि यह मालूम करे कि कुदरती तौर पर, उनका जो रंग हैं वह कैसे बनता है। इस क़िस्म की कुछ और बातें मालूम हुईं, जिन्होंने इस बात की तस्दीक़ कर दी कि इस घड़े हुए फ़रेब का रचनाकार डावसन है। मगर यह सब उस वक़्त हुआ जबकि इससे बहुत पहले डावसन 1916 में 52 साल की उम्र में अपनी प्रसिद्धि की बुलन्दियों के वक़्त मर चुका था।
डावसन ने अपने झूठ को पूरा सच साबित करने के लिए एक और तरकीब की। उसने पत्थर के कुछ औज़ार पेश किए और बताया कि ये उसे पिल्टडाउन के मुक़ाम पर मिले हैं। यह मान लिया गया कि ये पत्थर के वे औज़ार हैं, जिनसे पाँच लाख साल पहले का अधूरा इंसान काम लिया करता था। मगर बाद की खोजों ने उनको भी बिल्कुल जाली साबित कर दिया। डावसन ने इसी क़िस्म के एक पत्थर का औज़ार हेरी मोरिस (Harry Morise) को दिया था। मोरिस एक बैंक क्लर्क था और पत्थर के पुराने नमूने जमा करने का शौक़ीन था। बाद में मोरिस अपनी जांच से इस नतीजे पर पहुंचा कि यह पत्थर का औज़ार बिल्कुल जाली है। मोरिस ने इस पत्थर को अपनी ख़ास अलमारी में दूसरे नमूनों के साथ रख छोड़ा था। जब वैनर को उस अलमारी का पता चला था तो उसका शौक और उत्सुकता बढ़ी लेकिन इससे बहुत पहले मोरिस मर चुका था।
वह पत्थर कहाँ है? वैनर को यह सवाल परेशान करने लगा। मोरिस के मरने के बाद उसकी अलमारी दो हाथों में जा चुकी थी, फिर भी वैनर ने उसे ढूंढ निकाला। अलमारी खोलने पर मालूम हुआ कि उसके अन्दर बारह खाने हैं, जिनमें बहुत से नमूने हैं और लेबल लगे हुए रखे हैं। आख़िरी खाने में पिल्टडाउन का पत्थर का औज़ार रखा था। उस पर मोरिस के अपने हाथ से लिखे हुए ये शब्द दर्ज थे:
“Stained by C. Dawson with intent to defraud”
यानी इसको डावसन ने बिल्कुल जाली तौर पर ख़ुद अपने हाथों से रंगा था ताकि दुनिया को धोखा दे कि यह बहुत पुराने ज़माने का औज़ार है। एक नोट में मोरिस ने यह भी बताया था कि हाइड्रोक्लोरिक एसिड पत्थर के भूरे रंग को ख़त्म करके उसको मामूली सफ़ेद रंग के पत्थर में तब्दील कर देता है।
यह वाक़िआ बता रहा है कि पुराने दौर की हड्डियों के टुकड़े जमा करके उनकी बुनियाद पर जो काल्पनिक ढांचे खड़े किए गए हैं, उनकी हकीकत क्या है। बेशक पुराने दौर में कोई डावसन मौजूद नहीं था, जो हमको धोखा देने के लिए इन हड्डियों का हुलिया बिगाड़ देता मगर लाखों और करोड़ों वर्ष तक आंधी तूफान और भूकम्प ज़मीन के ऊपर उलट-पुलट कर रहे थे, उनकी वजह से सारी तब्दीलियां होना मुमकिन है, जिनका आज हमने ‘डावसन मैन’ के रूप में तजुर्बा किया है। फिर विकासवाद के हामियों के पास वह कौन सा विश्वसनीय ज्ञान है, जिसकी बुनियाद पर वे नामालूम अतीत के बारे में इतनी दृढ़ता और विश्वास से अपना दावा पेश कर रहे हैं?
पापुलर साइंस (Popular Science) का लेखक लिखता है:
“पिल्टडाउन की ख़्याली दास्तान अब हमेशा के लिए ख़त्म हो चुकी है, मगर एक पहेली अभी तक हल न हो सकी। वह कौन सा मक़सद था जिसके लिए डावसन ने इतना बड़ा झूठ तैयार किया? उसको इस काम से कोई आर्थिक लाभ हासिल नहीं हुआ। ब्रिटिश म्यूज़ियम को उसने जो हड्डियां दी थीं वे उसने महज़ तोहफ़े के तौर पर पेश की थीं। उसने उनकी कोई क़ीमत वसूल नहीं की। फिर क्या शोहरत पाना उसका मक्सद था? क्या इस ज़बरदस्त फ़रेब के ज़रिए वह सिर्फ मज़ाक़ करना चाहता था? उस अंग्रेज जालसाज़ को आख़िर किस चीज़ ने इस काम के लिए मजबूर किया? इस सवाल का जवाब देना रासायनिक और भौतिक विज्ञानी प्रयोगों के बस से बाहर है। और शायद वह हमेशा एक रहस्य ही रहेगा?”
इससे साबित होता है कि प्रायौगिक ज्ञान (Tested Knowledge) अपनी सीमाओं की वजह से सृष्टि की व्याख्या नहीं कर सकता। वह हमारी दुनिया के सिर्फ कुछ तथ्यों का विश्लेषण कर सकता है, जबकि हमें एक ऐसे ज्ञान की ज़रूरत है जो तमाम तथ्यों का विश्लेषण करे, जो हम पर तमाम हक़ीक़तों को खोल सके। ऐसा इल्म सिर्फ़ ‘वहय’ (ईश्वरीय संदेश) का इल्म है। उसके सिवा कोई और इल्म इस ज़रूरत को पूरा नहीं कर सकता।