इस्लाम यह चाहता है कि जीवित लोग मरने वाले के रूप में स्वयं
अपने आपको देखें। वे मौत से पहले मौत का अनुभव करें।
मैं एक जनाज़े (funeral) में शामिल हुआ। मौत के बाद मरने वाले व्यक्ति को स्नान कराया गया। उसको नए कपड़े का कफ़न पहनाया गया। लोगों ने खड़े होकर उसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ी और फिर वे मय्यत (अर्थी) को अपने कंधों पर लेकर चले, यहाँ तक कि क़ब्र में सम्मान के साथ लिटाकर उसको ढक दिया गया।
मैंने सोचा कि एक बेजान शरीर के साथ इतने ज़्यादा रीति-रिवाज का आदेश इस्लाम ने क्यों दिया। यह एक सच्चाई है कि मरने के बाद इंसान का शरीर मिट्टी के सिवा और कुछ नहीं होता, लेकिन उसको साधारण मिट्टी की तरह इधर-उधर फेंक नहीं दिया जाता, बल्कि उसके साथ विधिपूर्वक इंसान जैसा व्यवहार किया जाता है। ‘मिट्टी’ के साथ ‘इंसान’ जैसा मामला करने का आदेश मरने वाले की दृष्टि से नहीं है, बल्कि जीवित रहने वाले की दृष्टि से है।
निर्जीव इंसान के माध्यम से जीवित इंसानों को यह सीख दी जाती है कि आख़िरकार उनका परिणाम क्या होने वाला है। इस्लाम यह चाहता है कि जीवित लोग मरने वाले के रूप में स्वयं अपने आपको देखें। वे मौत से पहले मौत का अनुभव करें। यह अनुभव इस तरह भी संभव था कि एक निर्धारित दिन काग़ज़ का एक इंसानी पुतला बनाया जाए और उसके साथ सभी रस्मों को पूरा करके उसको मिट्टी के गड्ढे में डाल दिया जाए। इस्लाम ने इस अनुभव को वास्तविक बनाने के लिए असली इंसान के निर्जीव शरीर को इस्तेमाल किया।
एक इंसान हमारी तरह एक जीवित इंसान था। चलते-चलते उसके क़दम जवाब दे गए। बोलते-बोलते उसकी ज़बान बंद हो गई। देखते-देखते उसकी आँखें बेजान हो गईं। लोगों के निकट उसकी जो क़ीमत थी, वह सब अचानक ख़त्म हो गई। अब ईश्वर इस घटना को इस्तेमाल करता है, ताकि वह इंसानों को उसी के जैसे एक इंसान के माध्यम से जीवन की शिक्षा याद दिलाए।
लोग उसको पूरी आदर के साथ तैयार करते हैं और फिर लेकर चलते हैं। यहाँ तक कि अंतिम चरण में पहुँचकर जब उसको क़ब्र के गड्ढे में लिटा दिया जाता है तो हर आदमी यह करता है कि तीन बार अपने हाथ में मिट्टी लेकर क़ब्र में डालता है।
पहली बार मिट्टी डालते हुए वह क़ुरान के यह श्लोक कहता है—
‘मिन्हा ख़लक ना कुम’—इसी से हमने तुमको पैदा किया था
जब वह दूसरी बार मिट्टी डालता है तो कहता है—
‘व फ़ी हा नू ईदू कुम’ —इसी में हम तुमको दोबारा डाल रहे हैं
और फिर तीसरी बार मिट्टी डालते हुए वह कहता है—
‘व मिन्हा नुख्रिजुकुम तारतन उख्ररा —और इसी से हम तुमको दोबारा निकालेंगे’ (सूरह ताहा, 55)
यह तीन बार मिट्टी डालना इस पूरे मामले की चरम सीमा (climax) है। इस तरह एक जीवित घटना के माध्यम से यह बताया जाता है कि इंसान क्या है और उसका अंतिम परिणाम क्या है।