निःसंदेह वह इंसान सबसे ज़्यादा अभागा इंसान है जिसको बुढ़ापे का ज़माना मिला, लेकिन वह उससे सीख हासिल न कर सका।
क़ुरआन में ईश्वर ने कहा — “...क्या हमने तुम्हें इतनी आयु नहीं दी कि जिसको समझना होता, वह समझ जाता?” (35:37) इसका वर्णन का हदीस की किताबों में भी है।
हदीस में आया है कि जिस आदमी को लंबी आयु या बुढ़ापे की आयु मिले, उसके पास ईश्वर के सामने प्रस्तुत करने के लिए कोई बहाना नहीं रहा। आदमी के ऊपर पहले बचपन का दौर आता है, उसके बाद जवानी का दौर आता है, उसके बाद बुढ़ापे का दौर आता है। बुढ़ापे का दौर वर्तमान संसार में किसी इंसान के लिए अंतिम दौर है, क्योंकि उसके बाद जो चरण आता है, वह मौत का चरण है, न कि कोई और चरण।
इस दृष्टि से बुढ़ापा एक तरह से ‘मौत की पूर्व सूचना’ (notice) की हैसियत रखता है। बुढ़ापे में शरीर के सभी अंग कमज़ोर हो जाते हैं, यहाँ तक कि कुछ अंग अपना काम करना बंद कर देते हैं। ये घटनाएँ बताती हैं कि मौत का समय निकट आ गया। वह मानो ज़बरदस्ती मौत की याद दिलाना (compulsory reminder) है। बुढ़ापा आदमी को क़ब्र के किनारे खड़ा कर देता है।
अगर आदमी का मन-मस्तिष्क जागरूक हो तो बुढ़ापे की आयु को पहुँचकर वह सोचने लगेगा कि अब बहुत जल्द वह समय आने वाला है, जबकि मेरी मौत हो और मैं ईश्वर के सामने हिसाब-किताब के लिए प्रस्तुत कर दिया जाऊँ। इस तरह बुढ़ापे के अनुभव आदमी को झंझोड़ते हैं, वह उसको परलोक की याद दिलाते हैं। बुढ़ापा आदमी को बताता है कि वर्तमान संसार में तुम्हारी यात्रा अब ख़त्म हो चुकी। अब तुम्हें निश्चित रूप से अगले जीवनकाल में प्रवेश करना है और हश्र (day of judgement) की ईश्वरीय अदालत का सामना करना है— निःसंदेह वह इंसान सबसे ज़्यादा अभागा इंसान है जिसको बुढ़ापे का ज़माना मिला, लेकिन वह उससे सीख हासिल न कर सका। वह लगातार लापरवाही में रहा, यहाँ तक कि वह इसी स्थिति में मर गया।