मक्का अरब का मरकज़ी शहर था। क़ुरैश ने मक्का में दारुल-नदवा क़ायम कर रखा था। दारुल-नदवा क़बाइल पार्लियामेंट थी। यहाँ तमाम अहम उमूर के फ़ैसले किए जाते थे। पैग़ंबरे-इस्लाम के दादा अब्दुल मुत्तलिब दारुल-नदवा के मुमताज़ मेंबरों में से एक थे। आम रिवाज के मुताबिक़ एक हौसलामंद लीडर के लिए पहला टारगेट यह था कि वह दारुल-नदवा का रुक्न बनने की कोशिश करे, जो गोया उस वक़्त के अरब में सियासी ताक़त की मरकज़ की हैसियत रखता था, लेकिन पैग़ंबरे-इस्लाम ने दारुल-नदवा में दाख़िले की कोई कोशिश नहीं की। हत्ता कि उन्होंने यह मुतालबा भी नहीं किया कि अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब की ख़ाली सीट उन्हें दी जाए। दारुल-नदवा के मामले में पैग़ंबरे-इस्लाम ने वह पुर अमन तरीक़ा अपनाया जिसको स्टेटस-कोइज़्म कहा जाता है यानी मौजूदा सूरत से टकराव न करना, बल्कि जो मौजूदा सूरत है, उसको उसी सूरत में क़बूल कर लेना, मगर पैग़ंबरे-इस्लाम का स्टेटस- कोइज़्म सादा तौर पर सिर्फ़ स्टेटस-को-इस्म न था, बल्कि वह मुसबत स्टेटस-कोइज़्म (positive status quoism) था यानी वक़्त के निज़ाम से टकराव किए बग़ैर मौजूद मवाक़े को दरयाफ़्त करके उसे इस्तेमाल करना। इस तरीक़ेक़ार को फार्मूला की ज़बान में इस तरह कहा जा सकता है—
‘Ignore the problem, avail the opportunities’
‘मुश्किलों का एराज़ करो, मवाक़े का इस्तेमाल करो’