अलामती ज़बीहा

हाजरा और इस्माईल को सहरा में इस तरह आबाद करने का मक़सद क्या था? इसका मक़सद था एक नई नस्ल बनाना। उस ज़माने की शहरी आबादी में मुशरिकाना कल्चर मुकम्मल तौर पर छा चुका था। उस माहौल में जो भी पैदा होता, वह मुशरिकाना माहौल का शिकार हो जाता। इस बिना पर उसके लिए तौहीद के पैग़ाम को समझना मुमकिन रहता।

मुतमद्दिन शहरों से दूर सहरा में हाजरा और इस्माईल को इसलिए बसाया गया, ताकि यहाँ फ़ितरत के माहौल में उनके ज़रिये से एक नई नस्ल तैयार हो। एक नई नस्ल जो मुशरिकाना कंडीशनिंग से पूरी तरह पाक हो। तवालुद तनासुल (प्रजनन) के ज़रिये यह काम जारी रहा। यहाँ तक कि बनी-इस्माईल की क़ौम वजूद में आई। इसी क़ौम के अंदर 570 ईसवी में पैग़ंबरे-इस्लाम मुहम्मद बिन अब्दुल्ला बिन अब्दुल मुत्तलिब पैदा हुए। हज़रत मुहम्मद को 610 ईसवी में अल्लाह ने नबी मुक़र्रर किया। उसके बाद आपने तौहीद के मिशन का आग़ाज़ किया। बनु इस्माईल के अंदर से आपको वह क़ीमती लोग मिले, जिन्हें अस्हाबे-रसूल कहा जाता है। उन लोगों को साथ लेकर आपने तारीख़ में पहली बार यह किया कि तौहीद की दावत को फ़िक्री मरहले से आगे बढ़ाकर इंक़लाब के मरहले तक पहुँचाया।

हज़रत इब्राहीम के जरिये जो अज़ीम दावती मंसूबा ज़ेरे-अमल आया, हज की इबादत गोया इसी का एक रिहर्सल है। ज़िल्हिज्जा के महीने की मख़्सूस तारीख़ों में सारी दुनिया के मुसलमान इकट्ठा होकर रिहर्सल के रूप में उस तारीख़ को दोहराते हैं, जो हज़रत इब्राहीम और उनकी औलाद के साथ पेश आई। इस तरह पूरी दुनिया के मुसलमान हर साल अपने अंदर यह अज़्म ताज़ा करते हैं कि वे पैग़ंबर के उस नमूने को अपने हालात के मुताबिक़ मुसलसल दोहराते रहेंगे। हर ज़माने में वे दावत-इलल्लाह के उस अमल को मुसलसल ज़िंदा रखेंगे, यहाँ तक कि क़यामत जाए।

इस इब्राहीमी अमल में क़ुर्बानी को मरकज़ी दर्जा हासिल है। यह एक अज़ीम अमल है, जिसकी कामयाब अदायगी के लिए क़ुर्बानी की स्पिरिट नागुज़ीर तौर पर ज़रूरी है। उस क़ुर्बानी की स्पिरिट को मुसलसल तौर पर ज़िंदा रखने के लिए हज के ज़माने में मिना में और ईद-उल-अज़हा की सूरत में तमाम मुसलमान अपने-अपने मक़ाम पर जानवर की क़ुर्बानी करते हैं और ख़ुदा को गवाह बनाकर उस स्पिरिट को ज़िंदा रखने का अहद करते हैं। हज और ईद-उल-अज़हा के मौक़े पर जानवर की जो क़ुर्बानी की जाती है, वह दरअसल जिस्मानी क़ुर्बानी की सूरत में बामक़सद क़ुर्बानी के अज़्म के समान है। यह दरअसल दाख़िली स्पिरिट का ख़ारिजी मुज़ाहिरा है।

It is an external manifestation of an internal spirit.

आदमी के अंदर पाँच क़िस्म के हवास (senses) पाए जाते हैं। नफ़्सियाति तहक़ीक़ से मालूम हुआ है कि जब कोई ऐसा मामला पेश आए, जिसमे इंसान के तमाम हवास शामिल हों तो वह बात इंसान के दिमाग़ में ज़्यादा गहराई से बैठ जाती है। क़ुर्बानी की स्पिरिट को अगर आदमी सिर्फ़ मुजर्रद (abstract) शक्ल में सोचे तो वह आदमी के दिमाग़ में बहुत ज़्यादा ज़हन नशीन नहीं होगी। क़ुर्बानी का अमल इसी कमी की तलाफ़ी है।

जब आदमी अपने आपको वक़्फ़ करने के तहत जानवर की क़ुर्बानी करता है तो उसमें अम्लन उसके तमाम हवास शामिल हो जाते हैं। वह दिमाग़ से सोचता है। वह आँख से देखता है। वह कान से सुनता है। वह हाथ से छूता है। वह क़ुर्बानी के बाद उसके ज़ायक़े का तजरबा भी करता है। इस तरह इस मामले में उसके तमाम हवास शामिल हो जाते हैं। वह ज़्यादा गहराई के साथ क़ुर्बानी की स्पिरिट को महसूस करता है। वह इस क़ाबिल हो जाता है कि क़ुर्बानी की स्पिरिट उसके अंदर भरपूर तौर पर दाख़िल हो जाए। वह उसके गोश्त का और उसके ख़ून का हिस्सा बन जाए।

Maulana Wahiduddin Khan
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