मज़्कूरा आयत में आख़िरी बात यह कही गई है— उनमें से जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किये , अल्लाह ने उनसे माफ़ी का और बड़े अज्र का वादा किया है। यह बशारत सीधे तौर पर अस्हाबे-रसूल के लिए है और बिल्वस्ता तौर पर क़यामत तक के उन तमाम लोगों के लिए है जो अस्हाबे-रसूल के रोल को दरयाफ़्त करें और बाद के ज़माने में उसको तसल्सुल जारी रखें। तसल्सुल जारी रखने का यह अमल कोई सादा अमल नहीं। इसके लिए ऐसे अफ़राद की दरकार है, जिनके अंदर तख़्लीक़ी फ़िक्र हो और जिनके अंदर मुजद्दिदाना सलाहियत हो। बाद की नस्लों में जो लोग ईमान और आमाले-सालिहा की इस आला सलाहियत का सबूत देंगे। वह सब मज़्कूरा क़ुरआनी बशारत में शामिल होते चले जाएँगे।
इस इब्राहीमी मंसूबे पर ग़ौर कीजिए तो मालूम होगा कि हज़रत इब्राहीम की क़ुर्बानी, क़ुर्बानी बराए दावत थी। इसका मतलब यह था कि इराक़ के तजरबे की रौशनी में अरब में एक नया दावती मंसूबा बनाया जाए, जो नतीजे के ऐतबार से ज़्यादा मुअस्सिर साबित हो। जानवर के ज़बीहा की सूरत में इस मंसूबे में शामिल अफ़राद को पेशगी तौर पर यह बताया गया कि तुम्हें उस मंसूबे की कामयाब तक्मील के लिए एक ऐसे पुरमुशक़्क़त कोर्स से गुज़ारना होगा, जो गोया ज़बीहा (slaughter) जैसे तजरबे के बराबर होगा।
अब वक़्त आ गया है कि मुसलमान दोबारा हज़रत इब्राहीम की उस तारीख़ को दोहराएँ। मौजूदा ज़माने में वे दोबारा यह करें कि शिकायत के ज़हन को मुकम्मल तौर पर ख़त्म कर दें। वे रद्देअमल की सरगर्मियों से मुकम्मल तौर पर अपने को बचाएँ। तशद्दुद की सरगर्मियों को छोड़कर पुरअमन दावत का मंसूबा बनाएँ। वे दोबारा जज़्बात की क़ुर्बानी का सबूत दें। मौजूदा ज़माने में भी बज़ाहिर तम्सीली क़ुर्बानी का सिलसिला जारी रहेगा, लेकिन स्पिरिट के ऐतबार से उन्हें अपने आपको मुकम्मल तौर पर बदलना होगा। इब्राहीम और इस्माईल के ज़माने में अगर डेज़र्ट थेरेपी (desert therapy) का तरीक़ा इख़्तियार किया गया था तो मुसलमानों को सब्र थेरेपी (patience therapy) का तरीक़ा इख़्तियार करना होगा।