इन सिफ़ात में पहली सिफ़त वह है, जिसकी तरफ़ ‘जो उसके साथ हैं’ के अल्फ़ाज़ में इशारा किया गया है, यानी पैग़ंबरे-इस्लाम हज़रत मुहम्मद का साथ देने वाले। यह साथ उन्होंने कब दिया था? उन्होंने पैग़ंबरे-इस्लाम का साथ उस वक़्त दिया था, जबकि आपकी ज़ात के साथ अभी तारीख़ी अज़मत जमा नहीं हुई थी। उन्होंने पैग़ंबरे-इस्लाम को ख़ालिस जौहर (merit) की बुनियाद पर पहचाना। उन्होंने बज़ाहिर एक मामूली शख़्सियत को ग़ैर-मामूली शख़्सियत के रूप में दरयाफ़्त किया। उन्होंने तारीख़ी ऐतराफ़ (historical recognition) के दर्जे तक पहुँचने से पहले आपकी हैसियत का ऐतराफ़ किया। उन्होंने दौरे-अज़मत से पहले पैग़ंबर को उस वक़्त पहचाना, जबकि उसकी ज़ात हर क़िस्म की ज़ाहिरी अज़मत से पूरी तरह खाली थी।
उन्होंने मुहम्मद बिन अब्दुल्ला बिन अब्दुल मुत्तलिब को ख़ुदा के नुमाइंदे की हैसियत से दरयाफ़्त करके उसके आगे अपने आपको पूरी तरह सरेंडर कर दिया। अस्हाबे-रसूल ने मुश्किलों के वक़्त (क़ुरआन, 9:117) में पैग़ंबरे-इस्लाम का साथ दिया। यह साथ देना उसी वक़्त मुमकिन था, जबकि अस्हाबे-रसूल मज़कूरा इम्तियाज़ी सिफ़त के हामिल हो।
अस्हाबे-रसूल की दूसरी सिफ़त को क़ुरआन में ‘मुन्किरों पर सख़्त हैं’ के अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है। अह्ले-कुफ़्फ़ार पर शदीद होने का मतलब यह है कि वे -बातिल के मुक़ाबले में ग़ैर-असर पज़ीर (unyielding) किरदार के हामिल थे, यानि वह अपने माहौल से बेअसर रहते थे। वक़्त की ग़ालिब तहज़ीब उनको मरऊब करने वाली न थी। मुरव्वजा अफ़कार उनको डगमगा नहीं सकते थे। मफ़ादात का निज़ाम उनको अपनी राह से हटा नहीं सकता था। अस्हाबे-रसूल की दर्याफ्ते हक़ीक़त इतनी ज़्यादा गहरी थी कि वही उनकी पूरी शख़्सियत का वाहिद ग़ालिब हिस्सा बन गई।
अस्हाबे-रसूल की तीसरी सिफ़त को क़ुरआन में 'आपस में मेहरबान' के अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है यानी आपस में एक-दूसरे के लिए आख़िरी हद तक ख़ैरख़्वाह होना। इस सिफ़त की ग़ैर-मामूली अहमियत उस वक़्त समझ में आती है, जबकि इस हक़ीक़त को सामने रखा जाए कि अस्हाबे-रसूल के दरम्यान वह तमाम इख़्तिलाफ़ात (differences) मौजूद थे, जो हर इंसानी गिरोह के दरम्यान फ़ितरी तौर पर पाए जाते हैं। इसके बावजूद वह सीसा पिलाई दीवार की तरह आपस में मुत्तहिद रहे (क़ुरआन, 61:4)। उन्होंने इस सलाहियत का सबूत दिया कि वे इख़्तिलाफ़ के बावजूद आपस में मुत्ताहिद हो सकते हैं। वह शिकायतों के बावजूद एक-दूसरे के ख़ैरख़्वाह बन सकते हैं। वे मनफ़ी असबाब के बावजूद अपने अंदर मुस्बत शख़्सियत की तामीर कर सकते हैं। अस्हाबे-रसूल की यही सिफ़त थी जिसकी बिना पर वे तौहीद का इंक़लाब ला सके जिसने तारीख़ का रुख़ मोड़ दिया।
अस्हाबे-रसूल की चौथी सिफ़त को ‘तुम उनको रुकू और सजदे में देखोगे’ के अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है। इसका मतलब यह है कि अस्हाबे-रसूल कामिल तौर पर अल्लाह के आगे झुके हुए थे। उनके अंदर कामिल दर्जे में ख़ुद सुपुर्दगी का मिजाज़ पैदा हो गया था। अल्लाह की बड़ाई की मार्फ़त उनको इतने बड़े दर्जे में हासिल हुई थी, जबकि इंसान शऊरी तौर पर अल्लाह की क़ुदरत-ए-कामिला की दरयाफ्त कर लेता है और उसके अंदर अपने आजिज़े मुतलक़ होने का शऊर इस तरह पैदा हो जाता है कि वह अपनी पूरी शख़्सियत के साथ अल्लाह के आगे झुक जाता है। उसके दिल व दिमाग़ में अल्लाह की बड़ाई के सिवा कोई और बड़ाई बाक़ी नहीं रहती। उसका एक मात्र कंसर्न (sole concern) अल्लाह वाहिद ला शरीक बन जाता है। यही तौहीदे-कामिल है और अस्हाबे-रसूल इस तौहीदे-कामिल में आख़िरी दर्जे पर पहुँचे हुए थे।
अल्लाह पर क़ामिल यक़ीन
अस्हाबे-रसूल की पाँचवीं सिफ़त वह है, जिसे क़ुरआन में ‘वे अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी रज़ामंदी की तलब में लगे रहते हैं’ के अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है। इसका मतलब यह है कि अस्हाबे रसूल की मार्फ़त ने उनके अंदर अल्लाह की ज़ात पर कामिल यक़ीन पैदा कर दिया था। वे अल्लाह पर कामिल ऐतमाद (confidence) वाले बन गए थे। वे यह समझने लग गए थे कि देने वाला भी अल्लाह है और छीनने वाला भी अल्लाह ही है। कामयाबी का सिरा भी अल्लाह के हाथ में है और नाकामी का सिरा भी अल्लाह के हाथ में है। वे हर चीज़ से ज़्यादा अल्लाह पर भरोसा करने वाले बन गए थे। उनकी उम्मीदें और ख़्वाहिशें तमामतर अल्लाह पर मुन्हसर हो गई थीं।
संजीदगी, तक़वा, और तवाज़ो
अस्हाबे-रसूल की छठी सिफ़त को क़ुरआन में ‘उनकी निशानी उनके चेहरे पर है सजदे के असर से’ के अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है। इससे मुराद यह है कि अस्हाबे-रसूल की दरियाफ़्त-ए-हक़ीक़त ने उनके अंदर आख़िरी हद तक वह सिफ़ात पैदा कर दी थी जिनको संजीदगी (sincerity), तक़वा और तवाज़ो कहा जाता है। यही कमाले-इंसानियत की पहचान है। यही वह सिफ़ात हैं, जो किसी इंसान (man) को आला इंसान (super man) बनाती हैं। इन सिफ़ात की हामिल शख़्सियत को रब्बानी शख़्सियत कहा जाता है। अस्हाबे-रसूल बिला शुबा इन सिफ़ात में कमाल दर्जे पर थे।
इसके बाद अस्हाबे-रसूल की उस ख़ुसूसियत को बयान किया गया है, जिसका ज़िक्र इंजील में हज़रत मसीह की ज़बान से इन अल्फ़ाज़ में आया है—
“उसने एक और तम्सील उनके सामने पेश करके कहा कि आसमान की बादशाही उस राई के दाने की मानिंद है, जिसको किसी आदमी ने लेकर अपने खेत में बो दिया। वह सब बीजों से छोटा तो है, लेकिन वह जब बढ़ता है तो सब तरकारियों से बड़ा और ऐसा दरख़्त हो जाता है कि हवा के परिंदे आकर उसकी डालियों पर बसेरा करते हैं।” (बाइबल, मैथ्यू, 13:31-32)
Another parable He put forth to them, saying : “The kingdom of heaven is like a mustard seed, which a man took and sowed in his field, which indeed is the least of all the seeds, but when it is grown, it is greater than the herbs and becomes a tree, so that the birds of air come and nest in its branches.” (Bible, Mathew, 13:31-32)
अस्हाबे-रसूल की जो सिफ़त तौरात में मुख़्तसर और क़ुरआन में तफ़्सील से बयान की गई है, उसका ताल्लुक़ अस्हाबे-रसूल की इन्फ़रादी ख़ुसूसियात से है। ये आला ख़ुसूसियातें हर सहाबी के अंदर कामिल दर्जे में पाई जाती थीं। इन ख़ुसूसियात ने हर सहाबी को एक मुस्तशरिक़ (orientalist) के अल्फ़ाज़ में हीरो बना दिया था।
अस्हाबे-रसूल की दूसरी सिफ़त जो इंजील और क़ुरआन दोनों में आई है। वह तम्सील की सूरत में उस इज्तिमाई इंक़लाब को बताती है, जो अस्हाबे-रसूल के ज़रिये बरपा हुआ था। यह तम्सील एक दरख़्त की सूरत में है। इस दरख़्त का बीज पैग़ंबरे-इस्लाम की पैदाइश से ढाई हज़ार साल पहले सहरा-ए-अरब में लगाया गया था। इसका आग़ाज़ हज़रत इब्राहीम और हज़रत हाजरा और हज़रत इस्माईल की क़ुर्बानियों के ज़रिये हुआ था।
यह पौधा नस्ल-दर-नस्ल आगे बढ़ता रहा। अस्हाबे-रसूल इसी तारीख़ी नस्ल का अगला हिस्सा थे। अस्हाबे-रसूल ने ग़ैर-मामूली क़ुर्बानी के ज़रिये यह किया कि उन्होंने तौहीद के नज़रिये को फ़िक्री इंक़लाब के दौर तक पहुँचा दिया। इस फ़िक्री इंक़लाब के बाद इंसानी तारीख़ में एक नया प्रोसेस (process) जारी हुआ। बाद की आलमी तब्दीलियाँ इस इंक़लाबी अमल का नतीजा थीं। फ्रांसीसी मुवर्रिख़ हेनरी पेररिन (वफ़ात : 1935) ने इस इंक़लाबी वाक़ये का ऐतराफ़ इन अल्फ़ाज़ में किया है—
“इस्लाम ने ज़मीन के नक़्शे को बदल दिया। तारीख़ के रिवायती दौर का कामिल ख़ात्मा हो गया।”
“Islam changed the face of the Globe, the traditional order of history was overthrown.”