पैग़ंबरे-इस्लाम ने अपनी उम्र के आख़िरी हिस्से में हज अदा किया। उस मौक़े पर तक़रीबन तमाम सहाबा इकट्ठा हुए। हज के दौरान अपने ऊँट पर बैठकर एक ख़ुत्बा दिया। यह ख़ुत्बा हज्जतुल विदा के नाम से मशहूर है। इस ख़ुत्बे में आपने अपने सहाबा को मुख़ातिब करते हुए कहा—
“जो यहाँ मौजूद है, वह उन तक पहुँचा दे जो यहाँ नहीं है।”
(सही अल बुख़ारी, हदीस नंबर 1741)
ग़ालिबन पैग़ंबरे-इस्लाम के इसी हुक्म का यह नतीजा था कि उसके बाद तमाम लोग दावते-इलल्लाह के पैग़ंबराना काम में लग गए। उन्होंने उस वक़्त की आबाद दुनिया के बड़े हिस्से में दीन का पैग़ाम पहुँचा दिया। इससे मालूम होता है कि हज का ख़ात्मा दरअसल एक नए अमल का आग़ाज़ है। जहाँ हज के मरासिम ख़त्म होते हैं, वहाँ से एक और ज़्यादा बड़ा हज शुरू हो जाता है। यह दावत-इलल्लाह है। गोया कि हज एक ट्रेनिंग है और दावते-इलल्लाह इस ट्रेनिंग का अमली इस्तेमाल।
एक हदीस के मुताबिक़ हज के मरासिम हज़रत इब्राहीम की ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मराहिल का अलामती दोहराना है। हज़रत इब्राहीम की पूरी ज़िंदगी दावते-इलल्लाह की ज़िंदगी थी। यही तरीक़ा हर मोमिन को अपनी ज़िंदगी में इख़्तियार करना है। मसलन अहराम क्या है? वह सादा ज़िंदगी की अलामत है। तवाफ़ से मुराद डेडिकेशन (dedication) है। सअी इस बात का पैग़ाम है की मोमिन की दौड़-धूप ख़ुदा की तरफ़ होनी चाहिए। जानवर का ज़बीहा क़ुर्बानी वाली ज़िंदगी की तालीम है। रमी जमारात का मतलब यह है कि आदमी अपने आपको शैतान से दूर भगाए। लब्बैक-लब्बैक कहते हुए अरफ़ात के मैदान में पहुँचना ख़ुदा के सामने हाज़िरी को याद दिलाता है वग़ैरह।
हज बड़ा हज है और उमरा छोटा हज। दोनों का पैग़ाम एक है। शरीयत का यह मक़सद नहीं कि बार-बार लोग हज और उमरा करते रहें। शरीयत का यह मक़सद है कि लोग एक बार हज और उमरा करने के बाद उसकी स्पिरिट के मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारें और उसके पैग़ाम को सारी दुनिया में पहुंचाएं।
इस्लामी ज़िंदगी का खुलासा यह है कि अपने आपको कंट्रोल में रखकर ज़िंदगी गुज़ारी जाए।