हज की मानवियत

कुछ लोग मुझसे मिले। उन्होंने कहा कि हमारे लिए दुआ कीजिए। हमने बाइसिकल के ज़रिये हज करने का प्रोग्राम बनाया है। इसे पहले भी हाजियों के कई ग्रुप मुझसे मिले हैं, जो इसी क़िस्म की बातें करते थे। मसलन कोई बताता था कि हम ऊँट के ज़रिये हज का सफ़र करने जा रहे हैं। कोई बताता था कि हम पैदल हज का सफर करने जा रहे हैं वग़ैरह-वग़ैरह। ये लोग हज की सूरत को जानते हैं, लेकिन वे हज की मानवियत (spirit) को नहीं जानते। क़ुरआन में आया है कि हज के लिए सफ़र करो और उसके मुनाफ़े को हासिल करो।

(क़ुरआन, 22:28)

मुनाफ़े का लफ़्ज़ी मतलब है फ़ायदा (benefit), लेकिन इसका मतलब माद्दी फ़ायदा नहीं है, बल्कि मअनवी फ़ायदा है यानी हज से हिकमत का सबक़ हासिल करें। हज से ज़िंदगी की हिकमतें दरयाफ़्त करो। हज की इबादत पर ग़ौर करके उससे राज़-ए -हयात को जानो।

मसलन आप हज के लिए मक्का जाएँ और काबे का तवाफ़ करते हुए आप देखेंगे कि काबे की इब्राहीमी इमारत अब वहाँ मौजूद नहीं है। पैग़ंबर इब्राहीम ने काबा को लंबी सूरत में बनाया था, जबकि मौजूदा काबा चौकोर सूरत में है, जो कि क़दीम मक्का के लोगों ने बतौर ख़ुद तामीर किया था। क़दीम काबा की तक़रीबन एक तिहाई जगह हतीम की सूरत में बग़ैर छत के है। पैग़ंबरे-इस्लाम और आपके सहाबा ने इसी काबा का तवाफ़ किया। उन्होंने काबे को दोबारा इब्राहीमी सूरत में बनाने की कोशिश नहीं की।

यह वाक़या बताता है कि पैग़ंबरे-इस्लाम की एक सुन्नत वह है जिसको स्टेटस-कोइज़्म (status quoism) कहा जा सकता है यानी मौजूदह हालत पर नई तामीर की कोशिश करना। गोया कि मौजूद हालत को बदलने की तहरीक चलाना सुन्नते-रसूल नहीं है, बल्कि सुन्नते-रसूल यह है कि मौजूद हालत को छेड़े बग़ैर नई तामीर मंसूबा बनाया जाए। मौजूदा ज़माने की मुस्लिम तहरीकें सब-की-सब उसके ख़िलाफ़ वर्ज़ी कर रही हैं। हर तहरीक के लीडर यह चाहते हैं कि मौजूदा हालत को बदलें, उसके बाद अपने मंसूबे के मुताबिक़ नई तामीर का काम करें। यह तरीक़ा बिला शुबा सुन्नते-रसूल के ख़िलाफ़ है।

असल यह है कि मिल्लत की नई तामीर का काम मुकम्मल मायनों में एक मुस्बत काम है। जब आप देखें कि मौजूदा सूरत यह है कि मुआमलात पर अमलन किसी गिरोह का क़ब्ज़ा क़ायम है तो ऐसी हालत में नई तामीर का मंसूबा कामयाब तौर पर सिर्फ़ उस वक़्त किया जा सकता है, जबकि उसको ग़ैर नज़ाई मंसूबे की बुनियाद पर अंजाम दिया जाए। अगर नए क़ायदीन यह करें कि पहले क़ाबिज़ गिरोह से लड़कर उसको हटाएँ और वह पहले स्टेटस- कोइज़्म को बदलें और उसके बाद नई तामीर का आग़ाज़ करें तो ऐसा मंसूबा हमेशा टकराव से शुरू होगा। ऐसे मंसूबे का आग़ाज़ तख़रीब से शुरू होगा, कि तामीर से। चुनाँचे ऐसा मंसूबा अपने आग़ाज़ ही में नेज़ाई (controversial) बन जाएगा। लोगों की ताक़त ग़ैर ज़रूरी क़िस्म के टकराव पर चलने लगेगी।

इसके बरक्स, उसके स्टेटस-कोइज़्म को बरक़रार रखते हुए अपना काम शुरू कर दिया जाए तो टकराव की नौबत नहीं आएगी, बल्कि तामीर का काम अव्वल दिन से तामीर के उसूल पर जारी हो जाएगा। अब एक लम्हा भी तख़रीब में ज़ाया नहीं होगा।

Maulana Wahiduddin Khan
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