क़ुर्बानी और इस्लाम

हज और ईद-उल-ज़ुहा के मौक़े पर सारी दुनिया के मुसलमान एक ख़ास दिन ख़ुदा के नाम पर जानवर की क़ुर्बानी करते हैं। यह क़ुर्बानी आम ज़िंदगी से कोई अलग चीज़ नहीं। इसका ताल्लुक़ इंसान की तमाम ज़िंदगी से है। इसका मतलब यह है कि अह्ले-ईमान को चाहिए कि वह क़ुर्बानी की स्पिरिट के साथ दुनिया में रहे। क़ुर्बानी की स्पिरिट तमाम इस्लामी अमल का खुलासा है।

क़ुरआन में बताया गया है— “इंसान और जिन्न को सिर्फ़ इसलिए पैदा किया गया है कि वे अल्लाह की इबादत करें।इबादत क्या है? इसे एक हदीस--रसूल में इस तरह बयान किया गया है— “तुम अल्लाह की इबादत इस तरह करो, जैसे तुम उसे देख रहे हो और अगर तुम उसे नहीं देखते तो वह तुम्हें देखता है।

(सही अल-बुख़ारी, हदीस नंबर 50; सही मुस्लिम, हदीस नंबर 8)

इस हदीस--रसूल से मालूम होता है कि क़ुरआन के तसव्वुर--इबादत के मुताबिक़ इंसान के लिए ज़िंदगी का सही तरीक़ा क्या है? वह तरीक़ा यह है कि इंसान ख़ुदा की हस्ती को इस तरह दरयाफ़्त करे कि उसे हर लम्हा ख़ुदा की मौजूदगी का अहसास होने लगे।

उसका शऊर इस मामले में इतना बेदार हो जाए कि उसे ऐसा महसूस होने लगे, जैसे वह ख़ुदा को देख रहा है। यह अहसास उसकी पूरी ज़िंदगी को ख़ुदाई रंग में रंग दे। उसके हर क़ौल और हर अमल से ऐसा महसूस होने लगे, जैसे कि वह ख़ुदा को देख रहा है। जैसे कि वह जो कुछ कर रहा है, ख़ुदा की सीधी निगरानी के तहत कर रहा है। इसी शऊर के साथ ज़िंदगी गुज़ारने का नाम इबादत है। यह दर्जा किसी आदमी को सिर्फ़ उस वक़्त मिलता है, जबकि उसने ख़ुदा को अपनी वाहिद फ़िक्र (sole concern) बना लिया हो।

Maulana Wahiduddin Khan
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