मृत्यु के पश्चात का जीवन
‘जब मैं मरकर मिट्टी हो जाऊँगा तो क्या मुझे फिर से जीवित किया जाएगा?’ इस प्रश्न को एकाग्रचित्त होकर बहुत कम लोग सोचते हैं, लेकिन वह आदमी जो इस बात पर विश्वास नहीं रखता कि मरने के बाद उसे एक नए जीवन से सामना करने का अवसर मिलने वाला है— उसके मन-मस्तिष्क में यह प्रश्न बना रहता है— जो आदमी अपने आज के जीवन में कल के आने वाले जीवन के लिए चिंतित नहीं है। इसके फलस्वरूप वह इस बात का प्रमाण प्रस्तुत कर रहा है कि वह कल के जीवन के बारे में शंकित है— चाहे वह इस बारे में सोचता है या नहीं।
अगर हम गंभीरता से इस बारे में सोचें तो बड़ी आसानी से इसकी वास्तविकता को समझ सकते हैं। हालाँकि ईश्वर ने मृत्यु के पश्चात आने वाली वास्तविकता को हमारी आँखों से ओझल कर दिया है, क्योंकि वह हमारी परीक्षा ले रहा है। फिर भी ब्रह्मांड में ईश्वर ने इतनी अनगिनत निशानियाँ फैला दी हैं, जिन पर हम सोच-विचार करके सारी वास्तविकता को समझ सकते हैं। यह संसार एक दर्पण की तरह है, जिसमें हमें दूसरे संसार का प्रतिबिंब दिखाई देता है।
आप जानते हैं कि इंसान वर्तमान रूप में पेहले दिन से विद्यमान नहीं है। इंसान की उत्पत्ति एक अपवित्र, रूपहीन और सूक्ष्म शुक्राणु से होती है, जो माँ के गर्भ में बढ़कर इंसानी रूप धारण कर लेता है और फिर बाहर आकर विकास करके पूरा इंसान बन जाता है। एक अपवित्र शुक्राणु तत्व तो इतना सूक्ष्म होता है कि आँखों से नहीं देखा जा सकता और फिर उसका बढ़कर 6 फुट का एक लंबा इंसान बन जाना एक ऐसी घटना है, जो प्रतिदिन इस संसार में घटित होती है। फिर इस वास्तविकता को स्वीकार करने में आपको क्या कठिनाई होती है कि हमारे शरीर के विभिन्न भाग जो बहुत ही सूक्ष्म कण बनकर बिखर जाएँगे तो दोबारा पूरे इंसान का रूप धारण नहीं कर सकते हैं।
हर एक इंसान जिसको आप चलता-फिरता देखते हैं, वह वास्तव में इंसान के रूप में असंख्य परमाणु हैं, जो पहले हमारी धरती और वातावरण के अंदर बहुत दूर तक फैले हुए थे। फिर हवा, पानी और पोषक पदार्थों के सहयोग से उन परमाणुओं को एक इंसानी अस्तित्व में एकत्रित किया गया और अब हम इन्हीं फैले हुए अणुओं के समूह को एक चलते-फिरते इंसान के रूप में देख रहे हैं, यही क्रम दोबारा होगा।
हमारे मरने के बाद हमारे जीवन के अंश पानी और हवा सब धरती पर बिखर जाएँगे और जब ईश्वर का आदेश होगा तो वह इसी प्रकार फिर से जमा होकर एक अस्तित्व के रूप में उपस्थित हो जाएँगे, जिस प्रकार वे पहले एकत्रित हुए थे। एक घटना जो हो चुकी है, वही अगर फिर से दोहराई जाए तो इसमें हैरानी की कौन-सी बात है।
फिर भौतिक सृष्टि में ऐसे बहुत-से उदाहरण विद्यमान हैं, जो इस वास्तविकता की ओर संकेत करते हैं कि जीवन को फिर से रूप धारण करना पड़ेगा। जैसे हर साल हम बरसात में देखते हैं कि धरती में पेड़-पौधे उगते हैं और चारों ओर का वातावरण हरा-भरा हो जाता है। फिर गर्मी का मौसम उनके लिए मृत्यु का संदेश बनकर आता है और वही हरी-भरी धरती शुष्क हो जाती है। जहाँ हरियाली लहलहा रही थी, वहाँ ख़ाली मैदान दिखाई देने लगता है।
इस प्रकार एक जीवन पैदा होकर समाप्त हो जाता है, लेकिन जब फिर से बरसात का मौसम आता है और आसमान से बारिश होती है तो वही मरे ,सूखे हुए पेड़-पौधे फिर से जी उठते हैं। शुष्क धरती फिर से लहलहा उठती है और हरी-भरी दिखाई देने लगती है। बस इसी प्रकार इंसान भी मरने के बाद जीवित किए जाएँगे।
एक और पहलू से इस बात को समझा जा सकता है कि मृत्यु के पश्चात जीवन के बारे में संदेह इसलिए पैदा होता है कि बाह्य रूप से जो एक चलता-फिरता शरीर दिखाई देता है, वही एक असली इंसान है। जब यह शरीर सड़-गल जाएगा और उसका हर हिस्सा मिट्टी में मिल चुका होगा तो उसे फिर से किस प्रकार एकत्र करके खड़ा किया जा सकता है।
जब हम अपनी आँखों से देखते हैं कि एक जीवित प्राणी की मृत्यु हो जाती है तो वह शांत हो जाता है। उसके शरीर की हर गतिविधि रुक जाती है और उसकी सारी योग्यता और शक्ति समाप्त हो जाती है तो फिर उसे धरती के नीचे मिट्टी में दबा दिया जाता है या दूसरी जातियों के रीति-रिवाजों के अनुसार जलाकर नदी में बहा दिया जाता है। कुछ समय के बाद वह कण-कण होकर इस प्रकार धरती का हिस्सा बन जाता है कि फिर उसका कोई अस्तित्व हमें दिखाई नहीं देता।
एक चलते-फिरते जीवित इंसान को इस प्रकार समाप्त होते हुए हम प्रतिदिन देखते हैं, लेकिन फिर भी हमारा मस्तिष्क यह मानने के लिए तैयार नहीं होता कि वह इंसान जो समाप्त हो चुका है, वह फिर से कैसे अपने रूप में आ जाएगा, लेकिन वास्तविक अस्तित्व यह शरीर नहीं है, जिसे हम अपने सामने चलता-फिरता देखते हैं, बल्कि वास्तविक अस्तित्व अंदरूनी इंसान है, जो आँखों से दिखाई नहीं देता, जिसका कार्य सोचना है और जो शरीर को गतिविधि में रखता है, जिसकी उपस्थिती शरीर को जीवित रखती है और जिसके निकल जाने के बाद शरीर तो शेष मात्र रह जाता है, लेकिन उसमें किसी प्रकार का जीवन शेष नहीं रह जाता।
वास्तविकता यह है कि इंसान किसी विशिष्ट शरीर का नाम नहीं है, बल्कि उस अंतरात्मा का नाम है, जो शरीर के अंदर विद्यमान है। शरीर के बारे में हमें पता है कि यह बहुत ही सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है, जिसे हम जीवकोष कहते हैं। हमारे शरीर में जीवकोषों की वही हैसियत है, जो किसी मकान में उसकी ईंटों की होती है। हमारे शारीरिक मकान की ये ईंटें हमारी गतिविधि के दौरान बराबर टूटती रहती हैं, जिसकी पूर्ति हम भोजन के द्वारा करते हैं। भोजन पचकर विभिन्न प्रकार के जीवकोषों का निर्माण करता है, जो शरीर की टूट-फूट को पूरी तरह बराबर कर देते हैं।
इस प्रकार इंसान का शरीर लगातार घिसता और बदलता रहता है। पिछले जीवकोष टूटते हैं और नए जीवाणु उनकी जगह ले लेते हैं। इस प्रकार यह क्रिया प्रतिदिन यूँ ही चलती रहती है। यहाँ तक कि कुछ समय पश्चात सारा-का-सारा शरीर बिल्कुल नया हो जाता है।
दूसरे शब्दों में, आपका जो शरीर दस साल पहले था, उसमें से आज कुछ भी शेष नहीं रहा। आज आपका जो शरीर है, वह नया शरीर है। दस साल की अवधि में आपके शरीर के जो अंश टूटकर अलग हुए थे, अगर उनको पूरी तरह से फिर से एकत्र किया जा सके तो बिल्कुल आपकी तरह का एक दूसरा इंसान खड़ा किया जा सकता है। यहाँ तक कि आपकी उम्र 100 साल भी हो तो भी आपकी ही तरह के लगभग दस इंसान और बनाए जा सकते हैं। ये सब इंसान सामान्य रूप से देखने में आपकी तरह ही होंगे, लेकिन वह सब-के-सब मुर्दा शरीर होंगे जिनके अंदर आप उपस्थित नहीं होंगे, क्योंकि आपने पिछले शरीर को छोड़कर एक नए शरीर का ख़ोल पहन लिया है।
इस प्रकार आपका शरीर बनता-बिगड़ता रहता है, लेकिन आपके अंदर कोई परिवर्तन नहीं होता। जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं, वह ज्यों-का-त्यों रहता है। आपने अगर दस साल पहले किसी के साथ कोई समझौता किया था तो आप यह स्वीकार करते हैं कि यह समझौता मैंने ही किया था, हालाँकि अब आपका पिछला शारीरिक अस्तित्व शेष नहीं है। वह हाथ अब आपके शरीर पर नहीं है, जिसने समझौते के काग़ज़ात पर हस्ताक्षर किए थे और न ही वह ज़ुबान है, जिसने इस विषय पर बातचीत की थी, लेकिन आप अभी भी उपस्थित हैं और स्वीकार करते हैं कि दस साल पहले जो समझौता मैंने किया था, वह मेरा ही था और अब भी मैं उसका पाबंद हूँ। यह वही अंदरूनी इंसान है, जो शरीर के साथ बदलता नहीं, बल्कि शरीर में अनेक परिवर्तन के बाद भी अपने आपको बनाए रखता है।
इससे यह प्रामाणित होता है कि इंसान किसी विशिष्ट शरीर का नाम नहीं है, जिसके समाप्त हो जाने से वह समाप्त हो जाए, बल्कि वह तो एक ऐसी आत्मा है, जो शरीर से अलग अपना अस्तित्व रखती है। जबकि शरीर के अंशों के बिखर जाने के बाद भी वह वैसे ही रहती है। इस प्रकार शरीर में परिवर्तन और आत्मा में अपरिवर्तन इस वास्तविकता की ओर स्पष्ट संकेत करते हैं कि शरीर नश्वर है और आत्मा अमर है।
कुछ नादान लोगों के अनुसार कुछ भौतिक तत्वों के एकीकरण और बिखर जाने का नाम ही जीवन और मृत्यु है। इन तत्वों के मिलने से जीवन का निर्माण होता है और अलग हो जाने से मृत्यु का आगमन। चकबस्त ने इन तथ्यों की व्याख्या इन शब्दों में की है—
ज़िंदगी क्या है अनासिर में ज़हूरे-तरतीब,
मौत क्या है उन्हीं अज्ज़ा का परेशाँ होना।
लेकिन यह एक ऐसी व्याख्या है, जिसका ज्ञान से कोई संबंध नहीं है। अगर जीवन केवल तत्वों के एकीकरण का नाम है तो उसको उस समय तक विद्यमान रहना चाहिए, जब तक तत्वों का क्रम विद्यमान है और यह तभी संभव होना चाहिए कि कोई बुद्धिमान वैज्ञानिक इन तत्वों को एकत्र करके उनको जीवन प्रदान कर सके, लेकिन हम जानते हैं कि यह दोनों बातें असंभव हैं।
हम देखते हैं कि मरने वालों में केवल वही आदमी नहीं हैं, जिनके साथ कोई दुर्घटना हुई हो, जो उनके शरीर के टुकड़े कर दे, बल्कि हर स्थिति में और हर उम्र के लोग मरते हैं। कभी-कभी तो अगर अचानक किसी स्वस्थ इंसान के दिल की धड़कन रुक जाए तो फिर कोई भी ऐसा डॉक्टर नहीं, जो यह बता सके कि ऐसा क्यों हुआ।
हम देखते हैं कि मरने वाले का शरीर अपनी पहली स्थिति में है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उसके शरीर का हर हिस्सा पूरी तरह से वैसा-का-वैसा ही है, लेकिन उसके अंदर जो आत्मा थी, वह निकल चुकी है और सारे तत्व पहले की स्थिति में अब भी विद्यमान हैं, जैसे अब से कुछ मिनट पहले विद्यमान थे, लेकिन उसके अंदर जीवन नहीं है। इस घटना से स्पष्ट पता चलता है कि भौतिक तत्वों का क्रमबद्ध होना जीवन का होना नहीं है, बल्कि जीवन उससे एक अलग चीज़ है, जो अपना स्थायी अस्तित्व रखता है।
यह एक बड़ी वास्तविकता है कि किसी भी प्रयोगशाला में जीवित इंसान नहीं बनाया जा सकता है। हालाँकि शरीर का चित्रण किया जा सकता है। यह तो पता चल चुका है कि जीवित शरीर के अंग बिल्कुल साधारण प्रकार के परमाणु होते हैं। उसमें कार्बन वही है, जो हम कालिख में देखते हैं। हाइड्रोजन और ऑक्सीजन वही है, जो पानी का मूल रूप है। नाइट्रोजन वही है, जिससे वायुमंडल का अधिकतर भाग बना है। इसी प्रकार अन्य चीज़ें हैं, लेकिन क्या एक जीवित इंसान एटमों का एक विशेष समूह है, जो किसी ग़ैर-मामूली तरीक़े से आयोजित कर दिया गया है या इसके अलावा कुछ और है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि हम यह जानते हैं कि इंसान का शरीर अमुक भौतिक तत्वों से मिलकर बना है, लेकिन भौतिक तत्वों को एकत्र करके हम जीवन पैदा नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में कहें तो एक जीवित इंसान का शरीर केवल निर्जीव अणुओं का समूह नहीं है, बल्कि वह अणु (Atom) और जीवन दोनों है। मरने के बाद परमाणुओं का समूह तो हमारे सामने विद्यमान रहता है, जबकि जीवन उससे निकलकर दूसरे संसार में चला जाता है।
इस व्याख्या से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि जीवन मिटने वाली चीज़ नहीं है, बल्कि शेष रहने वाली चीज़ है। अब हम समझ सकते हैं कि मृत्यु के पश्चात के जीवन का दृष्टिकोण कितना आधारयुक्त व प्राकृतिक दृष्टिकोण है। यह वास्तविकता इस बात को स्पष्ट कर रही है कि जीवन केवल वही नहीं हो सकता, जो मृत्यु से पहले दिखाई देता है, बल्कि मृत्यु के पश्चात भी हमें जीवित रहना चाहिए। हमारी बुद्धि यह स्वीकार करती है कि यह संसार और उसकी आयु नश्वर है, लेकिन इंसान एक ऐसा अस्तित्व है, जो उसके बाद भी रहता है। जब हम मरते हैं तो वास्तव में मरते नहीं, बल्कि जीवित रहने के लिए एक दूसरे संसार में प्रवेश कर जाते हैं। वर्तमान जीवन हमारी अविरल आयु का एक हिस्सा मात्र है।