एक हदीस के अनुसार, पैग़ंबरे-इस्लाम हज़रत मुहम्मद एक युद्ध-अभियान से वापस लौटकर मदीना पहुँचे तो आपने कहा, “हम छोटे जिहाद से बड़े जिहाद की ओर वापस आए हैं।” दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह है कि हम अस्थायी जिहाद से स्थायी जिहाद की ओर वापस आए हैं—
We have come back from temporary Jihad to permanent Jihad.
ध्यान देने से पता चलता है कि अस्थायी जिहाद से आशय रक्षात्मक जिहाद है, जिसकी आवश्यकता केवल कभी-कभी होती है और स्थायी जिहाद से आशय आत्मिक और मानसिक जिहाद (Spiritual Jihad) है, जो प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में स्थायी तौर पर लगातार जारी रहता है।
इस बात की चर्चा एक और हदीस में इस प्रकार की गई है— “जिहाद करो, जिस प्रकार तुम अपने शत्रु से जिहाद करते हो।”
शत्रु के विरुद्ध जिहाद कभी-कभार होने वाली एक अस्थायी घटना है, जिसकी आवश्यकता तब होती है, जब किसी ने मुस्लिम राज्य पर हमला कर दिया हो। यह रक्षात्मक जिहाद है और इसमें केवल कुछ प्रशिक्षित लोग ही भाग लेते हैं, न कि पूरा मुस्लिम समुदाय। इसके विपरीत अपने चित्त के विरुद्ध जिहाद एक व्यक्तिगत प्रकार की घटना है और वह हर मोमिन के जीवन में जारी रहता है।
वास्तविकता यह है कि वर्तमान संसार परीक्षा का संसार है। इसलिए इस संसार में हर कार्रवाई को करने के लिए अपने मन के विरुद्ध संघर्ष करना पड़ता है। अपने मन के विरुद्ध सफल संघर्ष के बिना कोई व्यक्ति जिहादे-नफ़्स (स्वयं से संघर्ष) के कार्य को सफलतापूर्वक परिणाम तक नहीं पहुँचा सकता।
उदाहरण के लिए— यह एक पुण्य का कार्य है कि आप जब किसी व्यक्ति से मिलें तो अस्सलाम अलैकुम कहें। यह शब्द कहना इतनी बड़ी कार्रवाई है कि इसके कहने पर हदीस में स्वर्ग की शुभ सूचना दी गई है, लेकिन वर्तमान संसार में जब कोई व्यक्ति लोगों के साथ रहता है तो बार-बार उसको दूसरों की ओर से कड़वे अनुभवों का सामना करना पड़ता है। इस कारण हर उस व्यक्ति के हृदय में दूसरों के विरुद्ध शिकायत के भाव विद्यमान रहते हैं। ऐसी स्थिति में सही अर्थों में ‘अस्सलाम अलैकुम’ केवल वही व्यक्ति कह सकता है, जो इससे पहले अपने हृदय को हर तरह के बुरे और नकारात्मक भावों से पवित्र कर ले और साथ में अपने हृदय को लोगों के लिए भलाई की इच्छा से भर दे। अगर ध्यान दें तो यह कार्य इतना कठिन है कि इसके लिए वही कड़ा प्रयास करना पड़ेगा, जिसे जिहाद नामक शब्द से स्पष्ट किया गया है।
इस प्रकार हदीस की किताब सही मुस्लिम में एक हदीस दर्ज है, जिसके अनुसार ‘अल-हम्दुलिल्लाह’ का कलिमा (‘Thanks to God': ईश्वर का धन्यवाद है) ‘मीज़ान’ को भर देता है।
ध्यान दें तो यह भी कोई साधारण बात नहीं है। वास्तविकता यह है कि सच्चे तौर पर ‘अल-हम्दुलिल्लाह’ कहने के लिए एक बड़ी मानसिक और बौद्धिक कार्रवाई की आवश्यकता है। ‘अल-हम्दुलिल्लाह’ कहना ईश्वर के द्वारा दिए गए उपहारों के लिए धन्यवाद और आभार व्यक्त करना है। ईश्वर के दिए हुए ये उपहार व्यक्ति को निरंतर अनगिनत रूप में मिलते रहते हैं। ये उपहार हर व्यक्ति को अपने आप मिलते हैं, इसलिए व्यक्ति इनका आदी हो जाता है और आदी होने के कारण जानते हुए भी उनको उपहार के रूप में अनुभव नहीं करता।
ऐसी स्थिति में ‘अल-हम्दुलिल्लाह’ कहने के लिए व्यक्ति को एक सोच-विचार संबंधी जिहाद करना पड़ता है। उसको यह करना पड़ता है कि अपनी सोच-विचार की शक्ति को प्रक्रिया में लाकर अपने अवचेतन मन (Subconcious mind) को अपने चेतन मन (concious mind) की सीमा में लाए। अपनी भावनाओं को एक नई दिशा दे। वह अपनी बौद्धिक और सोच-विचार की शक्ति को जगाने के लिए मुजाहिद बन जाए। उसके बाद ही उसकी ज़ुबान से ईश्वर के धन्यवाद और उसकी प्रशंसा का वह कलिमा निकलता है, जो क़यामत के दिन उसके अच्छे कर्मों के पैमाने को भर देता है।
इंसान के अंदर तरह-तरह की इच्छाएँ और मानसिक अवस्थाएँ होती हैं, जैसे— लालच, श्रेष्ठता की भावना, घृणा और दूसरे को छोटा समझना, अधीरता और असहिष्णुता, क्रोध और प्रतिशोध आदि। इंसान हर समय इस बुरी और नकारात्मक भावना के अधीन रहता है। इसी के साथ वह कुछ चीज़ों को अपनी मनोवांछित चीज़ बना लेता है, जैसे— दौलत, शोहरत, प्रसिद्धि और संतान आदि।
घृणा और प्रेम की भावना इंसान पर हर समय छाई रहती है। वह जो कुछ सोचता है, उसे वह भावनाओं में डूबकर सोचता है। ये भावनाएँ ही उसकी सोच को आकार देती हैं। वह सक्रिय या निष्क्रिय मन की अवस्था में यानी जानते हुए भी या अनजाने में इन्हीं भावनाओं के साँचे में अपने जीवन को ढाल लेता है। ऐसी स्थिति में निस्संदेह यह एक जिहादी कार्रवाई है कि इंसान ईश्वर को लगातार अपने ध्यान और आकर्षण का केंद्र बनाए। वह ईश्वर के बताए हुए सीधे रास्ते से अपने आपको हटने न दे। यही वह बड़ा कठिन कार्य है, जिसे हदीस में ‘जिहादे-नफ़्स’ यानी स्वयं या मन के विरुद्ध जिहाद कहा गया है।