आदर्श जीवन : आदर्श चरित्र

पैग़ंबरे-इस्लाम हज़रत मुहम्मद का जन्म 22 अप्रैल, 570 ईस्वी को अरब में हुआ और 8 जून, 632 ईस्वी को आपकी मृत्यु हुई। आप बहुत स्वस्थ और ताक़तवर थे। बचपन से ही आपकी क़द-काठी ऐसी थी कि जो भी देखता, कह उठता कि इस लड़के का भविष्य शानदार है।

जब आप बड़े हुए तो आपका व्यक्तित्व और अधिक स्पष्ट व आकर्षक हो गया। देखने वालों पर आपका बड़ा प्रभाव पड़ता। आप इतने विनम्र, कोमल और मृदुभाषी थे कि थोड़ी देर भी कोई आपके पास रहता तो आपसे प्रेम करने लगता।

सहनशीलता, ईमानदारी, न्यायशीलता, सच्चाई और अच्छा व्यवहार— ये गुण आपके अंदर उच्च स्तर के थे। आपका व्यक्तित्व एक संतुलित व्यक्तित्व (balanced personality) थ।

दाऊद बिन हुसैन कहते हैं कि अरब के लोग आम तौर से यह कहते हुए सुने जाते थे कि मुहम्मद बिन अब्दुल्ला इस शान से जवान हुए कि आप अपनी क़ौम में सबसे अधिक शिष्टाचार वाले, पड़ोसियों की परवाह करने वाले, सहनशील, सत्यवादी, झगड़े और अश्लीलता से दूर रहने वाले थे। इसी कारण आपकी क़ौम ने आपका नाम अल-अमीन (सच्चा और अमानतदार) रख दिया।

25 वर्ष की आयु में जब आपने विवाह किया तो इस अवसर पर आपके चाचा अबू तालिब ने कहा था—

“मेरे भतीजे मुहम्मद बिन अब्दुल्ला की तुलना जिस आदमी से भी की जाए, मुहम्मद सज्जनता और बुद्धि में उस आदमी से कहीं अधिक होगा। ईश्वर की क़सम ! उसका भविष्य महान होगा और उसका पद ऊँचा होगा।”

अबू तालिब ने ये शब्द उन अर्थों में नहीं कहे थे, जिन अर्थों में बाद में इतिहास ने उन्हें सच्चा साबित किया। यह बात उन्होंने सांसारिक अर्थों में कही थी। उनका मतलब यह था कि जो आदमी प्राकृतिक रूप से ऐसा आकर्षक व्यक्तित्व लेकर पैदा हुआ हो, जो मुहम्मद बिन अब्दुल्ला में दिखाई देता है, वह क़ौम में ऊँचा स्थान प्राप्त करता है और दुनिया के बाज़ार में उसका बड़ा मूल्य मिलकर रहता है। ऐसे आदमी की असाधारण योग्यताएँ, उसकी उन्नति और सफलता की पक्की गारंटी होती हैं।

पैग़ंबरे-इस्लाम के लिए ये संभावनाएँ निश्चित रूप से मौजूद थीं। आप अपने गुणों और योग्यताओं का बड़े-से-बड़ा मूल्य वसूल कर सकते थे। आप मक्का के एक ऊँचे ख़ानदान में पैदा हुए। हालाँकि आपको अपने पिता से विरासत में केवल एक ऊँटनी और एक दासी मिली थी, पर आपके उत्तम पैदाइशी गुणों ने मक्का की सबसे धनी महिला को प्रभावित किया। 25 वर्ष की आयु में आपका विवाह उनसे हो गया था। यह महिला एक व्यापारी ख़ानदान की विधवा थीं। उनसे आपको न केवल धन-दौलत मिली, बल्कि अरब में और अरब के बाहर व्यापारिक क्षेत्र भी हाथ आया। अब आपके लिए शांति, निश्चिंतता और सफल जीवन जीने के सभी अवसर उपलब्ध हो चुके थे, लेकिन आपने उनको छोड़कर एक अन्य चीज़ को चुना।

 आप जानबूझकर अपने आपको एक ऐसी राह पर ले आए, जो केवल दुनिया की बरबादी की ओर ले जाती थी। ख़दीजा से विवाह से पहले आप अपनी गुज़र-बसर के लिए जो थोड़ा-बहुत काम करते थे, अब वह भी छूट गया। अब आप जी-जान से उस तलाश में जुट गए, जिसकी तड़प आपको बचपन से थी। वह तड़प यह थी कि सच्चाई क्या है? आप घंटों बैठे हुए धरती और आकाश के बारे में विचार करते रहते। मक्का के बड़े लोगों में अपने संबंध बढ़ाने और उनकी सभा में अपनी जगह बनाने के बजाय आपने यह किया कि रेगिस्तानों और पहाड़ों को अपना साथी बना लिया।

मक्का से तीन मील की दूरी पर एक पहाड़ है, जिसमें एक गुफा है। इस गुफा का नाम हिरा है। आप सत्तू और पानी लेकर वहाँ चले जाते। पहाड़ के शांत और एकांत वातावरण में जीवन की वास्तविकता पर चिंतन करते। धरती और आकाश को पैदा करने वाले से प्रार्थना करते कि मेरे ईश्वर ! तू अपने आपको मेरे ऊपर प्रकट कर दे। सच्चाई क्या है, मुझे बता दे। जब पानी की मश्क़ ख़ाली हो जाती और सत्तू समाप्त हो जाता तो आप घर वापस आ जाते, ताकि दोबारा खाने-पीने का सामान लेकर प्रकृति के उस वातावरण में लौट जाएँ, जहाँ रेगिस्तान और पहाड़ थे और जहाँ का वातावरण बिल्कुल शांत था। आपका बेचैन मन दुनिया के हंगामे में अपने सवाल का जवाब हासिल न कर सका था। अब आपने प्रकृति की शांत दुनिया को अपना साथी बना लिया था कि शायद वह इसका जवाब दे सके।

हालाँकि आपका जीवन पैग़ंबरी मिलने से पहले भी इसी प्रकार का जीवन था, लेकिन वह तो पूरी तरह उनका स्वभाव था। वह स्वभाव तो उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था। अब सच्चाई की खोज ने इस स्वभाव में एक चेतना, एक सजगता भर दी थी। जो चरित्र अब तक अवचेतन और स्वाभाविक माँग के अनुसार प्रकट होता था, वह अब एक सोचे-समझे मस्तिष्क का संकल्प बन गया था। यह ईश्वर के किसी बंदे का वह स्थान है, वह स्तर है, जहाँ सांसारिकता मूल्यहीन हो जाती है या फिर केवल जीवित रहने की बुनियादी ज़रूरत तक ही उसका महत्व रह जाता है। उसका शरीर तो दुनिया में होता है, पर मन के स्तर पर वह एक अन्य दुनिया में जीवन व्यतीत करने लगता है। एक हदीस में पैग़ंबरे-इस्लाम ने कहा है—

“बुद्धिमान आदमी के लिए ज़रूरी है कि उस पर कुछ घड़ियाँ गुज़रें। ऐसी घड़ी, जबकि वह अपने ईश्वर से बातें करे; ऐसी घड़ी, जबकि वह अपनी जाँच-परख करे यानी आत्मविश्लेषण करे; ऐसी घड़ी, जबकि वह ईश्वर की सृष्टि पर विचार करे और ऐसी घड़ी, जबकि वह खाने-पीने की ज़रूरतों के लिए समय निकाले।”

इसका मतलब है कि वफ़ादार बंदा वह है, जिसके दिन-रात इस तरह गुज़रें कि उसकी बेचैनी और तड़प उसे ईश्वर के इतना निकट कर दे कि वह अपने ईश्वर से कानाफूसी करने लगे। ‘हिसाब वाले दिन’ (Day of Judgment) सबके सामने खड़े होने का डर उसके ऊपर इतना छा जाए कि वह दुनिया में ही अपना हिसाब करने लगे। संसार में ईश्वर की कारीगरी को देखकर वह उसमें इतना खो जाए कि उसके अंदर उसे ईश्वर का प्रकाश, ईश्वर का प्रदर्शन और ईश्वर का सौंदर्य दिखाई देने लगे। उसे ईश्वर की अनुभूति होने लगे।

इस प्रकार ईश्वर से मुलाक़ात, अपने आपसे मुलाक़ात और ईश्वर की सृष्टि से मुलाक़ात में उसकी घड़ियाँ व्यतीत हो रही हों और शारीरिक माँग को पूरा करने के लिए वह खाने-पीने के लिए भी समय निकाल लिया करे।

ये शब्द दूर के किसी आदमी का परिचय नहीं दे रहे हैं, बल्कि इसमें ख़ुद पैग़ंबरे-इस्लाम का अपना व्यक्तित्व बोल रहा है। इससे पता चलता है कि आपके शरीर के अंदर जो समर्पित आत्मा थी, उसमें हर समय किस तरह के तूफ़ान उठते रहते थे; आपका जीवन किस तरह की पीड़ा और किस तरह की अनुभूति के बीच व्यतीत हो रहा था। सच्चाई यह है कि जो आदमी ख़ुद इन घड़ियों का अनुभव न कर रहा हो, वह कभी इतने ऊँचे शब्दों में इस बात को नहीं कह सकता। यह एक ऐसी आत्मा से निकली हुई वाणी है, जिसने इन अनुभूतियों को समग्र रूप में पाया था, जिसको वह शब्दों के माध्यम से दूसरों पर प्रकट कर रहा था।

पैग़ंबरी मिलने से पहले पैग़ंबरे-इस्लाम को तत्कालीन दुनिया अपनी कमियों और सीमाओं के साथ बेकार मालूम होती थी, लेकिन जब ईश्वर ने आप पर यह सच प्रकट कर दिया कि इस दुनिया के अलावा एक और दुनिया है, जो संपूर्ण और अजर-अमर (immortal) है तथा वही दुनिया मानवता का वास्तविक घर है तो जीवन और दुनिया,दोनों आपके लिए अर्थपूर्ण (meaningful) हो गए। अब आपने जीवन की वह सतह पा ली, जहाँ आप जी सकते थे और जिसमें आप अपना हृदय लगा सकते थे। अब आपको एक ऐसी वास्तविक दुनिया मिल गई, जिससे आप अपनी आशाओं और इच्छाओं को जोड़ सकें; जिसे सामने रखकर अपने जीवन की योजना बना सकें।

अतः इसी कारण कहा गया है कि दुनिया परलोक की खेती है। इसको आजकल की शब्दावली में परलोकमुखी जीवन कहा जा सकता है। ऐसा आदमी अपना जीवन ही ऐसा बना लेता है कि वह परलोक को अपना वास्तविक उद्देश्य समझने लगता है। उसके जीवन में परलोक ही सबसे महत्वपूर्ण विषय हो जाता है। वह सचेत हो जाता है कि दुनिया हमारी मंज़िल नहीं है, बल्कि वह केवल रास्ता है। वह परलोक के भविष्य की तैयारी का एक आरंभिक पड़ाव मात्र है। जिस प्रकार एक सांसारिक आदमी के सारे प्रयास, सारी गतिविधियाँ सांसारिक जोड़-तोड़ के इर्द-गिर्द घूमती हैं, उसी प्रकार ईश्वर के एक सच्चे बंदे के पूरे जीवन का पक्ष परलोक की ओर हो जाता है।

हर मामले में वह इस ढंग से सोचता है कि परलोक में उसका परिणाम क्या होगा। ख़ुशी हो या ग़म, सफलता हो या असफलता, प्रशंसा की जा रही हो या आलोचना, क्रोध का अवसर हो या प्रेम का, हर स्थिति में परलोक का ध्यान उसे राह दिखाता है। यहाँ तक कि ऐसा समय आता है, जब परलोक का चिंतन उसके अवचेतन (subconscious) का हिस्सा बन जाता है। हालाँकि अब भी वह एक सांसारिक आदमी होता है, लेकिन उसका मस्तिष्क उन्हीं बातों के लिए दृढ़ रहता है, उन्हीं बातों के बारे में सोच-विचार करता है, जो परलोक से संबंध रखने वाली हों। जिन बातों में परलोक का कोई पहलू न हो, उनसे उसकी दिलचस्पी इतनी कम हो जाती है कि कभी-कभी उसे कहना पड़ता है, “तुम अपनी दुनिया के मामलों को मुझसे अधिक जानते हो।”

इस वास्तविकता की हैसियत केवल एक बौद्धिक खोज (intellectual discovery) की नहीं है। इसे पाने के बाद आदमी के जीने की सतह बदल जाती है। आदमी कुछ-से-कुछ हो जाता है। इसका सबसे बढ़िया उदाहरण ख़ुद पैग़ंबरे-इस्लाम का व्यक्तित्व है। आपके जीवन की सबसे बड़ी सीख यह है कि जब तक जीने की सतह न बदले, कर्म की सतह नहीं बदल सकती।

पैग़ंबरे-इस्लाम ने जब यह वास्तविकता देखी तो वह उनके संपूर्ण जीवन का मामला बन गया। जिस स्वर्ग का समाचार आप दूसरों को दे रहे थे, आप उसके सबसे बड़े इच्छुक बन गए और जिस नरक से आप दूसरों को डरा रहे थे, उससे आप ख़ुद सबसे अधिक डरने लगे। आपका यह अंदरूनी तूफ़ान बार-बार ईश्वर से प्रार्थना और क्षमा-याचना के रूप में प्रकट होता। आपके जीने की सतह आम लोगों से कितनी अलग थी, इसका पता इन घटनाओं से चलता है—

“उम्मे-सलमा का बयान है कि हज़रत मुहम्मद उनके घर में थे। आपने दासी को बुलाया, उसने आने में देर की तो आपके चेहरे पर क्रोध प्रकट हो गया। उम्मे-सलमा ने परदे के पास जाकर देखा तो दासी को खेलते हुए पाया। उस समय आपके हाथ में मिस्वाक (दातुन) थी। आपने दासी से कहा कि अगर क़यामत के दिन मुझे बदले का डर न होता तो मैं तुझे इस मिस्वाक से मारता।”

बद्र की लड़ाई के बाद जो लोग क़ैदी बनकर आए थे, वे आपके पक्के दुश्मन थे। फिर भी आपने उनके साथ उचित व्यवहार किया। उन क़ैदियों में एक आदमी सुहैल बिन अम्र था, जो बहुत ही भड़काऊ भाषण देने वाला था। वह सभी सभाओं में आपके विरुद्ध अनुचित भाषण दिया करता था। उमर फ़ारूक़ ने राय दी कि इसके नीचे के दो दाँत उखाड़ दिए जाएँ, ताकि इसका भाषण देने का जोश समाप्त हो जाए। इस पर आपने कहा कि ईश्वर मेरा चेहरा क़यामत में बिगाड़ देगा, हालाँकि मैं ईश्वर का पैग़ंबर हूँ।

पैग़ंबरे-इस्लाम आम लोगों की तरह एक आदमी थे। आपको ख़ुशी की बात से ख़ुशी होती थी और दुख की बात से आप दुखी हो जाते थे, लेकिन आपकी ईश्वरभक्ति आपको ईश्वर के तय किए हुए क्षेत्र से बाहर नहीं जाने देती थी।

पैग़ंबरे-इस्लाम की अंतिम आयु में मारिया क़िब्तिया से एक लड़का पैदा हुआ। यह लड़का सुंदर और स्वस्थ था। इसका नाम आपने अपने सबसे बुज़ुर्ग वंशज पैग़ंबर इब्राहीम के नाम पर इब्राहीम रखा। अबू राफ़े ने जब इब्राहीम के जन्म का समाचार आपको सुनाया तो आप इतना ख़ुश हुए कि आपने अबू राफ़े को एक ग़ुलाम इनाम में दे दिया। आप इब्राहीम को गोद में लेकर खिलाते और प्यार करते।

अरब के रीति-रिवाज के अनुसार इब्राहीम को एक दाई उम्मे-बरदा बिंत अल-मंज़र बिन ज़ैद अंसारी के हवाले कर दिया गया, ताकि वह दूध पिलाए। यह दाई एक लोहार की पत्नी थी। उनके छोटे से घर में अक्सर भट्टी का धुआँ होता रहता था। आप लड़के को देखने के लिए लोहार के घर जाते और वहाँ धुआँ आपकी आँख व नाक में घुसता रहता। आप बहुत कमज़ोर स्वास्थ्य के होने के बावजूद उसको सहन करते। इब्राहीम अभी डेढ़ वर्ष के हुए थे कि हिजरत के दसवें वर्ष (जनवरी, 632) में उनकी मृत्यु हो गई। आपको बेटे की मृत्यु से बड़ा दुख हुआ।

इन घटनाओं में पैग़ंबरे-इस्लाम एक आम आदमी की तरह दिखाई देते हैं। उनकी भावनाएँ और इच्छाएँ वैसी ही हैं, जैसी एक आम पिता की होती हैं। इसके बावजूद ईश्वर का दामन आपके हाथ से छूट नहीं पाया। आप दुखी हैं, पर आपके मुँह से ये शब्द निकल रहे हैं—

“ईश्वर की क़सम ! ऐ इब्राहीम, हम तुम्हारी मृत्यु से बहुत दुखी हैं। आँखें रो रही हैं और दिल दुखी है, पर हम ऐसी कोई बात नहीं कहेंगे, जो ईश्वर को नापसंद हो।”

जिस दिन इब्राहीम की मृत्यु हुई, संयोग से उसी दिन सूरज ग्रहण भी था। प्राचीनकाल में ऐसा माना जाता था कि सूरज ग्रहण और चाँद ग्रहण किसी की मृत्यु के कारण होता है। मदीने के मुसलमान कहने लगे कि यह सूरज ग्रहण पैग़ंबर के बेटे की मृत्यु के कारण हुआ है। आपको यह बात बुरी लगी, क्योंकि यह बात इंसान की विनम्र हैसियत के विरुद्ध थी। आपने लोगों को जमा करके भाषण दिया—

“सूरज और चाँद में ग्रहण किसी इंसान की मृत्यु से नहीं लगता। यह तो ईश्वर की निशानियों में से दो निशानियाँ हैं। जब तुम ऐसा देखो तो नमाज़ पढ़ो।” एक और घटना इतिहास में इन शब्दों में दर्ज है—

“एक बार आप यात्रा कर रहे थे। आपने अपने साथियों को एक बक़री तैयार करने का आदेश दिया। एक आदमी बोला, ‘मैं ज़िबह करूँगा।’ दूसरे ने कहा, ‘मैं इसकी खाल उतारूँगा।’ तीसरे ने कहा, ‘मैं इसे पकाऊँगा।’ इस पर आपने कहा, ‘मैं लकड़ी जमा करूँगा।’ लोगों ने कहा, ‘ऐ ईश्वर के पैग़ंबर ! हम सब काम कर लेंगे (यानी आप कुछ न करें)।’ आपने कहा, ‘मैं जानता हूँ कि तुम कर लोगे, पर मैं छोटे-बड़े में अंतर को पसंद नहीं करता। ईश्वर को यह पसंद नहीं कि उसका कोई बंदा अपने साथियों के बीच ख़ास बनकर रहे।’ ”

आप अपने आपको ईश्वर का एक मामूली बंदा ही समझते थे। आपने कहा—

“ईश्वर की क़सम ! मैं नहीं जानता। ईश्वर की क़सम! मैं नहीं जानता। हालाँकि मैं ईश्वर का पैग़ंबर हूँ कि क्या किया जाएगा मेरे साथ और क्या किया जाएगा तुम्हारे साथ।”

(अल-बुख़ारी, हदीस नं० 7018)

अबू ज़र ग़िफ़ारी बताते हैं कि एक दिन मैं एक सहाबी के पास बैठा हुआ था। उनका रंग काला था। किसी बात के लिए मैंने उन्हें पुकारा तो मेरे मुँह से निकल गया, “ऐ काले रंग वाले !” हज़रत मुहम्मद ने यह सुना तो बहुत नाराज़ हुए और बोले, “पैमाना पूरा भरो। पैमाना पूरा भरो।”

इस चेतावनी के बाद अबू ज़र ग़िफ़ारी को अपनी ग़लती का अहसास हुआ। वे पश्चात्ताप और गुनाह के डर से काँप उठे और ज़मीन पर लेट गए, फिर उस आदमी से उन्होंने कहा, “खड़ा हो और मेरे चेहरे को अपने पैरों से मसल दे।”

एक दिन हज़रत मुहम्मद ने एक मालदार मुसलमान को देखा कि वह अपने पास बैठे हुए एक ग़रीब मुसलमान से बचने की कोशिश कर रहा है और अपने कपड़े समेट रहा है। आपने कहा, “क्या तुम्हें डर है कि इसकी ग़रीबी तुमसे लिपट जाएगी।”

मदीना में पूरी तरह से इस्लामी शासन स्थापित हो चुका है और हज़रत मुहम्मद शासनाध्यक्ष हैं। उस ज़माने में आपको एक बार एक यहूदी से क़र्ज़ लेने की ज़रूरत पड़ी। क़र्ज़ चुकाने का समय तय हुआ था। अभी उसमें कुछ दिन बाक़ी थे कि यहूदी अपना क़र्ज़ लेने के लिए आ गया। उसने आपके कंधे की चादर उतार ली और कुर्ता पकड़कर कठोर शब्दों में बोला, “मेरा क़र्ज़ अदा करो।” फिर कहने लगा, “अब्दुल मुत्तलिब की औलाद बड़ी क़र्ज़-चोर है।”

हज़रत उमर फ़ारूक़ उस समय आपके साथ थे। यहूदी की बदतमीज़ी पर उमर फ़ारूक़ को बड़ा ग़ुस्सा आया। उन्होंने उसे डाँटा। ऐसा लगता था कि वे उसे मारने लगेंगे, लेकिन पैग़ंबरे-इस्लाम मुस्कराते रहे। उन्होंने यहूदी से केवल इतना कहा, “अभी तो वादे में तीन दिन बाक़ी हैं।” फिर आपने उमर फ़ारूक़ से कहा—

“उमर! मैं और यहूदी तुमसे एक और बरताव के अधिक इच्छुक थे। मुझसे तुम बेहतर अदायगी के लिए कहते और उससे बेहतर माँग के लिए।”

फिर आपने उमर फ़ारूक़ से कहा कि जाओ, फलाँ आदमी से ख़जूरें लेकर इसका क़र्ज़ अदा कर दो और बीस साअ यानी लगभग 40 किलो अधिक देना, क्योंकि तुमने उसे झिड़का था।

पैग़ंबरे-इस्लाम को अपने जीवन में इतनी सफलता मिली कि आप अरब से लेकर फ़िलिस्तीन तक के क्षेत्र के शासक बन गए। ईश्वर का पैग़ंबर होने के कारण आपकी ज़बान क़ानून की मान्यता रखती थी। आप ऐसे लोगों के बीच थे, जो आपका आदर-सम्मान इतना अधिक करते थे कि किसी दूसरे आदमी को इतना अधिक सम्मान नहीं मिला। हुदैबिया की बातचीत के अवसर पर उरवह बिन मसऊद क़ुरैश के राजदूत की हैसियत से आए तो वे यह देखकर हैरान रह गए कि जब आप वुज़ू करते हैं तो लोग दौड़ पड़ते हैं कि आपका वुज़ू का पानी ज़मीन पर गिरने से पहले अपने हाथ पर ले लें और उसे प्रसाद के तौर पर अपने शरीर पर मल लें।

अनस कहते हैं कि अत्यधिक प्रेम के बावजूद हम लोग आपको नहीं देख सकते थे। मुग़ीरा कहते हैं कि किसी सहाबी को आपके घर पर दस्तक देने की ज़रूरत होती तो वह नाख़ून से दरवाज़ा खटखटाता था। जाबिर बिन समरा कहते हैं कि हज़रत मुहम्मद सुर्ख़ चादर ओढ़कर चाँदनी रात में सो रहे थे। मैं कभी चाँद को देखता, कभी आपको। आख़िरकार मैंने यह फ़ैसला किया कि आप चाँद से अधिक सुंदर हैं। हुनैन में जब लड़ाई की शुरुआत में मुस्लिम फ़ौज की हार हुई और विरोधी फ़ौज ने आपके ऊपर तीरों की बारिश शुरू कर दी तो आपके साथियों ने आपको घेर लिया। वे सारे तीर अपने हाथ और शरीर पर इस तरह रोकते रहे मानो वे इंसान नहीं, लकड़ी हैं। यहाँ तक कि कुछ साथियों का यह हाल हुआ कि उनके शरीर पर साही के काँटे की तरह तीर लटकने लगे थे।

ऐसी आस्था आदमी के व्यवहार को बिगाड़ देती है। वह अपने आपको दूसरों से बड़ा समझने लगता है, लेकिन आप लोगों के बीच बिल्कुल आम आदमी की तरह रहते। कोई कठोर आलोचना, कोई कड़वी और भड़का देने वाली बात आपको आपे से बाहर करने वाली साबित न होती। सही हदीस में हज़रत अनस का बयान है कि एक देहाती आया। उसने आपकी चादर को ज़ोर से खींचा, फिर बोला, “मुहम्मद, मेरे ये दो ऊँट हैं। इनकी लाद का सामान मुझे दो, क्योंकि जो माल तेरे पास है— वह न तेरा है और न तेरे बाप का है।” आपने कहा, “माल तो ईश्वर का है और मैं उसका बंदा हूँ।” फिर आपने देहाती से पूछा, “जो बरताव तुमने मुझसे किया, उस पर तुम डरते नहीं?” वह बोला, “नहीं।” आपने पूछा, “क्यों?” उसने कहा, “मुझे मालूम है कि तुम बुराई का बदला बुराई से नहीं देते।” आप यह सुनकर हँस पड़े और आदेश दिया कि देहाती को एक ऊँट के बोझ की जौ और एक की ख़जूरें दी जाएँ।

आप पर ईश्वर का इतना डर छाया रहता था कि आप विनम्रता की तस्वीर बने रहते थे। आप बहुत कम बोलते। जब आप चलते तो झुककर चलते। अपनी आलोचना से कभी क्रोधित नहीं होते। कपड़े पहनते तो कहते कि मैं ईश्वर का बंदा हूँ और बंदों की तरह लिबास पहनता हूँ। खाना खाते तो नम्रता के साथ बैठकर खाते और कहते कि मैं बंदों की तरह खाना खाता हूँ यानी मैं भी एक आम आदमी ही हूँ।

इस बात के लिए आप बहुत जागरूक रहते थे कि लोग भी उन्हें ईश्वर का मामूली बंदा ही समझें। एक बार एक साथी ने इसी बात पर आपसे कहा, “जो ईश्वर चाहे और जो आप चाहें।” यह सुनते ही आपके चेहरे का रंग बदल गया। आपने तमतमाकर कहा, “क्या तुमने मुझे ईश्वर के बराबर कर दिया? तुम्हें इस तरह कहना चाहिए— वही होगा, जो ईश्वर चाहे।”

इसी तरह आपके एक साथी ने भाषण देते हुए कहा, “जो ईश्वर और पैग़ंबर का आदेश माने, वह सीधे रास्ते पर है और जो इन दोनों का आदेश न माने, वह गुमराह और भटका हुआ है।” यह सुनकर आपने कहा, “तू क़ौम का बुरा वक्ता है।”

यानी आपको यह बात पसंद नहीं आई कि किसी बात में ईश्वर और पैग़ंबर का नाम इस तरह बराबरी से लिया जाए, जैसे दोनों का दर्जा बराबर हो।

पैग़ंबरे-इस्लाम के यहाँ तीन लड़के पैदा हुए, जो बचपन में ही चल बसे। चार बेटियाँ बड़ी उम्र तक पहुँचीं। चारों बेटियाँ आपकी पहली पत्नी हज़रत ख़दीजा से पैदा हुईं। हज़रत फ़ातिमा आपकी सबसे छोटी बेटी थीं। आप हज़रत फ़ातिमा से बहुत प्रेम करते थे। जब आप किसी यात्रा से वापस लौटते तो मस्जिद में दो रकअत नमाज़ पढ़ने के बाद सबसे पहले हज़रत फ़ातिमा के घर जाते। उनके हाथ और माथे को चूमते। हज़रत आयशा से जमीं बिन उमैर ने पूछा, “हज़रत मुहम्मद को सबसे प्यारा कौन था?” उन्होंने जवाब दिया, “फ़ातिमा!”

पैग़ंबरे-इस्लाम की पूरी ज़िंदगी आख़िरत में ढल गई थी। इसलिए संतान से प्रेम का अर्थ भी आपके लिए दूसरा था। एक किताब को छोड़कर हदीस की सभी प्रामाणिक किताबों में एक घटना की चर्चा की गई है— वह यह कि हज़रत फ़ातिमा के बारे में हज़रत अली ने एक बार इब्ने-अब्दुल वाहिद से कहा, “मैं तुम्हें फ़ातिमा की एक बात सुनाऊँ, जो सारे ख़ानदान में हज़रत मुहम्मद को सबसे प्यारी थी?”

इब्ने-अब्दुल वाहिद ने कहा, “हाँ।”

हज़रत अली ने कहा कि फ़ातिमा का यह हाल था कि चक्की पीसतीं तो हाथ में छाले पड़ जाते, पानी की मश्क़ उठाने की वजह से गरदन में निशान पड़ गया था। झाड़ू लगातीं तो कपड़े मैले हो जाते। उन्हीं दिनों हज़रत मुहम्मद के पास कुछ सेवक आए। मैंने फ़ातिमा से कहा कि तुम अपने पिता के पास जाओ और अपने लिए एक सेवक माँगो। फ़ातिमा हज़रत मुहम्मद के पास गईं, पर वहाँ लोगों की भीड़ की वजह से वे आपसे न मिल सकीं। अगले दिन हज़रत मुहम्मद हमारे घर आए और पूछा कि क्या बात थी। फ़ातिमा चुप हो गईं। मैंने पूरा क़िस्सा बताया और यह भी बताया कि मैंने ही फ़ातिमा को आपके पास भेजा था। पूरी बात सुनने के बाद हज़रत मुहम्मद ने कहा—

“ऐ फ़ातिमा ! ईश्वर से डरो। अपने ईश्वर का कर्तव्य निभाओ। अपने घरवालों के काम करो। जब बिस्तर पर जाओ तो ईश्वर की प्रशंसा और गुणगान करो।”

हज़रत फ़ातिमा ने यह सुनकर कहा, “मैं ईश्वर और उसके पैग़ंबर से इस बात पर ख़ुश हूँ।”

पैग़ंबरे-इस्लाम पर जो सच्चाई प्रकट की गई थी, वह यह थी कि यह दुनिया ईश्वर के बिना नहीं है। इसका एक ईश्वर है और वही उसका बनाने वाला, पालने वाला और मालिक है। सारे इंसान उसके बंदे हैं और सारे इंसान उसके सामने उत्तरदायी हैं। मृत्यु के पश्चात आदमी समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि दूसरी दुनिया में एक स्थायी जीवन आरंभ करने के लिए दाख़िल हो जाता है। वहाँ नेक लोगों के लिए स्वर्ग का आराम है और बुरे लोगों के लिए नरक की भड़कती हुई आग।

ईश्वर ने पैग़ंबरे-इस्लाम को जब यह सच्चाई बताई, तब आपको यह आदेश दिया कि सभी लोगों को यह सच्चाई बता दो और सबको इस सच्चाई के बारे जागरूक करो। मक्का के किनारे ‘सफ़ा’ नाम की चट्टान थी, जो उस ज़माने में लोगों की भीड़ को संबोधित करने के लिए मंच का काम देती थी। आपने सफ़ा पर चढ़कर लोगों को पुकारा। लोग जमा हो गए तो आपने भाषण दिया। आपने ईश्वर की प्रशंसा करने के बाद कहा—

“ईश्वर की क़सम ! तुम्हें मरना है, जिस तरह तुम सोते हो और फिर तुमको उठना है, जिस तरह तुम जागते हो और तुमसे हिसाब लिया जाएगा, जो तुम करते हो। फिर अच्छे काम का अच्छा बदला है और बुरे काम का बुरा बदला। इसके बाद या तो हमेशा के लिए बाग़ है या हमेशा के लिए आग।”

अगर दुनिया और ज़माने के ख़िलाफ जाकर निजी तौर पर कोई आदमी कोई तरीक़ा या मार्ग अपनाता है, उस समय भी हालाँकि क़दम-क़दम पर कठिनाइयाँ आती हैं। फिर भी ये कठिनाइयाँ हिंसक और घातक नहीं होतीं। ये कठिनाइयाँ आदमी की भावनाओं को ठेस पहुँचाती हैं, पर आदमी के शरीर को घायल नहीं करतीं। यह अधिक-से-अधिक आदमी के धैर्य की परीक्षा होती है। उस समय स्थिति बिल्कुल बदल जाती है, जब आदमी समय के विरुद्ध एक आवाज़ बनकर खड़ा हो जाता है, एक वास्तविकता का दावेदार और एक सच्चाई की तरफ़ बुलाने वाला बन जाता है और जब वह दूसरों से कहने लगता है कि यह करो और वह न करो। पैग़ंबरे-इस्लाम केवल ईश्वर के एक सच्चे बंदे ही नहीं थे, बल्कि ईश्वर के संदेश को दूसरों तक पहुँचाने का मिशन भी आपको सौंपा गया था।

आपकी इस दूसरी हैसियत ने आपको पूरी अरब जाति से टकरा दिया। भूखे रहने से लेकर लड़ाई तक के कठिन हालात से आपको गुज़रना पड़ा। अपने 23 वर्ष के जीवन में आप पूरी तरह न्याय और संयम पर स्थित रहे। इसका कारण यह नहीं था कि आपके अंदर मानवीय भावना या मानवीय दुर्बलता नहीं थी। वास्तविक कारण यह था कि ईश्वर के डर ने आपको पाबंद बना रखा था।

हिजरत के तीसरे वर्ष मक्का के विरोधियों ने मदीने पर चढ़ाई की। इसे उहुद की लड़ाई कहा जाता है। इस लड़ाई में शुरू में मुसलमानों की जीत हुई, लेकिन इसके बाद आपके कुछ साथियों की ग़लती के कारण दुश्मनों को अवसर मिल गया और उन्होंने पीछे से हमला करके लड़ाई की स्थिति बदल दी। यह बड़ा भयानक दृश्य था। आपके अधिकतर साथी लड़ाई के मैदान से भागने लगे। यहाँ तक कि आप हथियारबंद दुश्मनों के घेरे में अकेले घिर गए। विरोधियों का झुंड भूखे भेड़ियों की तरह आपकी तरफ़ बढ़ रहा था। आपने अपने साथियों को पुकारना शुरू किया, “ईश्वर के बंदो! मेरी तरफ़ आओ। कौन है, जो हमारे लिए अपनी क़ुर्बानी दे। कौन है, जो इन ज़ालिमों को मेरे पास से  हटाए। वह स्वर्ग में मेरा दोस्त होगा।”

वह कैसा भयानक दृश्य होगा, जब ईश्वर के पैग़ंबर की ज़बान से इस तरह के शब्द निकल रहे थे। हालाँकि आपके साथियों में से एक आपकी पुकार पर आगे बढ़ा, पर उस समय इतनी अधिक उथल-पुथल और अफरा-तफरी थी कि आप पर जान न्यौछावर करने वाले भी आपको पूरी तरह बचाने में सफल न हो सके। उत्बा इब्ने-अबी वक़्क़ास ने आपके ऊपर एक पत्थर फेंका। यह पत्थर आपको इतनी ज़ोर से लगा कि होंठ कुचल गए और नीचे के दाँत टूट गए।

अब्दुल्ला इब्ने-क़मीआ क़ुरैश का प्रसिद्ध पहलवान था। उसने आप पर बहुत तेज़ हमला किया, जिस कारण लोहे की टोपी (लड़ाई के दौरान पहना जाने वाला हेलमेट) की दो कड़ियाँ आपके गाल में घुस गईं। यह कड़ियाँ इतनी गहराई तक घुसी थीं कि अबू उबैदा बिन अल-जर्राह ने जब उनको निकालने के लिए अपने दाँतों से पकड़कर खींचा तो अबू उबैदा के दो दाँत टूट गए। एक और शख़्स अब्दुल्ला बिन शहाब ज़ौहरी ने आपको पत्थर मारा, जिससे आपका माथा ज़ख़्मी हो गया। लगातार ख़ून बहने से आप बहुत कमज़ोर हो गए। यहाँ तक कि आप एक गड्ढे में जा गिरे। मैदान में जब आप देर तक दिखाई नहीं दिए तो चारों तरफ़ यह बात फैल गई कि आप शहीद हो गए हैं। उस दौरान आपके एक साथी की नज़र गड्ढे की तरफ़ गई। वह आपको देखकर ख़ुशी से बोल उठा, “ईश्वर के पैग़ंबर यहाँ हैं।” आपने उँगली के इशारे से उनको मना किया कि चुप रहो, दुश्मनों को यहाँ मेरी मौजूदगी का पता न चलने दो। ऐसे भयानक हालात में आपके मुँह से क़ुरैश के कुछ सरदारों (सूफ़ियान, सुहैल, हारिस) के लिए बददुआ के शब्द निकल गए। आपने कहा, “वह क़ौम कैसे सफलता पाएगी, जो अपने पैग़ंबर को ज़ख़्मी करे।”

आपकी यह बात ईश्वर को पसंद नहीं आई और जिब्राईल ईश्वर का संदेश लेकर आए—

“तुम्हें कोई बात तय करने का कोई अधिकार नहीं। ईश्वर या तो उन्हें पश्चात्ताप करने का हौसला देगा या उन्हें दंड देगा, क्योंकि वे ज़ालिम हैं।”    (क़ुरआन, 3:128)

ईश्वर की ओर से इतनी चेतावनी काफ़ी थी। तुरंत आपका क्रोध ठंडा हो गया। आप चोट से निढाल हैं, पर ज़ालिमों के लिए दुआ कर रहे हैं कि ईश्वर उन्हें सीख दे और रास्ता दिखाए। आपके एक साथी अब्दुल्ला बिन मसूद कहते हैं कि इस समय भी जैसे हज़रत मुहम्मद मेरे सामने हैं। आप अपने माथे से ख़ून पोंछते जाते हैं और यह कह रहे हैं कि ईश्वर, मेरी क़ौम को माफ़ कर दे, क्योंकि वह नहीं जानते।

हदीस और जीवनी की किताबों में ऐसी ही अनेक घटनाएँ हैं। उनमें से कुछ घटनाएँ ऊपर दी गई हैं। यह घटनाएँ बताती हैं कि किस तरह पैग़ंबरे-इस्लाम का जीवन एक इंसानी चरित्र का नमूना थीं। ये घटनाएँ व्यावहारिक रूप से यह सीख देती हैं कि बंदे के दिल में हर समय ईश्वर का और परलोक का तूफ़ान बना रहे। सारी दुनिया उसे ईश्वर की याद दिलाए। वह हर घटना को ईश्वर की नज़र से देखे और हर चीज़ में ईश्वर का निशान पा ले। दुनिया में कोई मामला करते समय वह कभी यह न भूले कि आख़िरकार सारा मामला ईश्वर के हाथ में जाने वाला है। नरक का डर उसे लोगों के प्रति विनम्र बना दे और स्वर्ग का शौक़ उसकी नज़र में दुनिया को अर्थहीन (meaningless) बना दे। ईश्वर की प्रशंसा के ध्यान में वह इतना खो जाए कि अपनी प्रशंसा की कोई भी बात उसे बेकार और अर्थहीन लगे। अपनी आलोचना पर वह अपना संतुलन न खोए और कोई प्रशंसा उसके मस्तिष्क को न बिगाड़ दे। यह है इंसानी चरित्र का वह नमूना, जो ईश्वर के पैग़ंबर ने अपने कर्म के माध्यम से हमें बताया।

Maulana Wahiduddin Khan
Share icon

Subscribe

CPS shares spiritual wisdom to connect people to their Creator to learn the art of life management and rationally find answers to questions pertaining to life and its purpose. Subscribe to our newsletters.

Stay informed - subscribe to our newsletter.
The subscriber's email address.

leafDaily Dose of Wisdom