स्रोत: पैग़ंबरे-इस्लाम एक आदर्शचरित्र
हिजरत के तीसरे वर्ष मक्का के विरोधियों ने मदीने पर चढ़ाई की। इसे उहुद की लड़ाई कहा जाता है। इस लड़ाई में शुरू में मुसलमानों की जीत हुई, लेकिन इसके बाद आपके कुछ साथियों की ग़लती के कारण दुश्मनों को अवसर मिल गया और उन्होंने पीछे से हमला करके लड़ाई की स्थिति बदल दी। यह बड़ा भयानक दृश्य था। आपके अधिकतर साथी लड़ाई के मैदान से भागने लगे। यहाँ तक कि आप हथियारबंद दुश्मनों के घेरे में अकेले घिर गए। विरोधियों का झुंड भूखे भेड़ियों की तरह आपकी तरफ़ बढ़ रहा था। आपने अपने साथियों को पुकारना शुरू किया, “ईश्वर के बंदो! मेरी तरफ़ आओ। कौन है, जो हमारे लिए अपनी क़ुर्बानी दे। कौन है, जो इन ज़ालिमों को मेरे पास से हटाए। वह स्वर्ग में मेरा दोस्त होगा।”
इस लड़ाई में शुरू में मुसलमानों की जीत हुई, लेकिन इसके बाद आपके कुछ साथियों की ग़लती के कारण दुश्मनों को अवसर मिल गया और उन्होंने पीछे से हमला करके लड़ाई की स्थिति बदल दी।
वह कैसा भयानक दृश्य होगा, जब ईश्वर के पैग़ंबर की ज़बान से इस तरह के शब्द निकल रहे थे। हालाँकि आपके साथियों में से एक आपकी पुकार पर आगे बढ़ा, पर उस समय इतनी अधिक उथल-पुथल और अफरा-तफरी थी कि आप पर जान न्यौछावर करने वाले भी आपको पूरी तरह बचाने में सफल न हो सके। उत्बा इब्ने-अबी वक़्क़ास ने आपके ऊपर एक पत्थर फेंका। यह पत्थर आपको इतनी ज़ोर से लगा कि होंठ कुचल गए और नीचे के दाँत टूट गए।
अब्दुल्ला इब्ने-क़मीआ क़ुरैश का प्रसिद्ध पहलवान था। उसने आप पर बहुत तेज़ हमला किया, जिस कारण लोहे की टोपी (लड़ाई के दौरान पहना जाने वाला हेलमेट) की दो कड़ियाँ आपके गाल में घुस गईं। यह कड़ियाँ इतनी गहराई तक घुसी थीं कि अबू उबैदा बिन अल-जर्राह ने जब उनको निकालने के लिए अपने दाँतों से पकड़कर खींचा तो अबू उबैदा के दो दाँत टूट गए। एक और शख़्स अब्दुल्ला बिन शहाब ज़ौहरी ने आपको पत्थर मारा, जिससे आपका माथा ज़ख़्मी हो गया। लगातार ख़ून बहने से आप बहुत कमज़ोर हो गए। यहाँ तक कि आप एक गड्ढे में जा गिरे। मैदान में जब आप देर तक दिखाई नहीं दिए तो चारों तरफ़ यह बात फैल गई कि आप शहीद हो गए हैं। उस दौरान आपके एक साथी की नज़र गड्ढे की तरफ़ गई। वह आपको देखकर ख़ुशी से बोल उठा, “ईश्वर के पैग़ंबर यहाँ हैं।” आपने उँगली के इशारे से उनको मना किया कि चुप रहो, दुश्मनों को यहाँ मेरी मौजूदगी का पता न चलने दो। ऐसे भयानक हालात में आपके मुँह से क़ुरैश के कुछ सरदारों (सूफ़ियान, सुहैल, हारिस) के लिए बददुआ के शब्द निकल गए। आपने कहा, “वह क़ौम कैसे सफलता पाएगी, जो अपने पैग़ंबर को ज़ख़्मी करे।”
आपकी यह बात ईश्वर को पसंद नहीं आई और जिब्राईल ईश्वर का संदेश लेकर आए—
“तुम्हें कोई बात तय करने का कोई अधिकार नहीं। ईश्वर या तो उन्हें पश्चात्ताप करने का हौसला देगा या उन्हें दंड देगा, क्योंकि वे ज़ालिम हैं।” (क़ुरआन, 3:128)
ईश्वर की ओर से इतनी चेतावनी काफ़ी थी। तुरंत आपका क्रोध ठंडा हो गया। आप चोट से निढाल हैं, पर ज़ालिमों के लिए दुआ कर रहे हैं कि ईश्वर उन्हें सीख दे और रास्ता दिखाए। आपके एक साथी अब्दुल्ला बिन मसूद कहते हैं कि इस समय भी जैसे हज़रत मुहम्मद मेरे सामने हैं। आप अपने माथे से ख़ून पोंछते जाते हैं और यह कह रहे हैं कि ईश्वर, मेरी क़ौम को माफ़ कर दे, क्योंकि वह नहीं जानते।