Jannat Insan ki Manzil

By
Maulana Wahiduddin Khan

इंसान अपनी आरजु़ओं की तकमील के लिए दुनिया मे जद्दोजहद शुरू करता है। मगर उसे महसूस होता है कि अपनी मतलूब चीज़ों को पाने के बाद भी वह ब-दस्तूर महरूमी के एहसास से दो-चार है, अब भी वह पाने के एहसास तक न पहुँच सका; क्योंकि उसके दिल में जो आरज़ू थी, वह परफ़ेक्ट चीज़ के लिए थी, जबकि दुनिया की हर चीज़ ग़ैर-परफ़ेक्ट (imperfect) है और ज़ाहिर है किसी परफ़ेक्शनिस्ट को ग़ैर-परफ़ेक्ट में तस्कीन नहीं मिल सकती। दुनिया में राहत और मुसर्रत तलाश करना ऐसा ही है, जैसे कोई मुसाफ़िर रेलवे स्टेशन पर अपने लिए एक आरामदेह घर बनाने की कोशिश करे। हर मुसाफ़िर जानता है कि स्टेशन घर बनाने के लिए नहीं होता।

इस मसले का हल सिर्फ़ एक है और वह यह कि आदमी जन्नत को अपना निशाना बनाए। जन्नत पूरे मायनों में एक ‘परफ़ेक्ट वर्ल्ड’ है, जबकि उसके मुक़ाबले में मौजूदा दुनिया सिर्फ़ एक ‘इम्परफ़ेक्ट वर्ल्ड’ की हैसियत रखती है। इंसान अपनी पैदाइश के ऐतबार से जिस परफ़ेक्ट वर्ल्ड का तालिब है, वह जन्नत है।

मौजूदा दुनिया अमल-ए-जन्नत के लिए है, न कि तामीर-ए-जन्नत के लिए। जन्नत को अपनी मंज़िल-ए-मक़सूद बनाना सिर्फ़ अक़ीदे की बात नहीं, वह मक़सद-ए-हयात की बात है। ऐसा मक़सद जिसके सिवा कोई और मक़सद इंसान के लिए मुमकिन नहीं।

मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान (1925-2021)  ‘सेंटर फॉर पीस एंड स्पिरिचुएलिटी’, नई दिल्ली के संस्थापक हैं। मौलाना का मानना है कि शांति और आध्यात्मिकता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं: आध्यात्मिकता शांति की आंतिरिक संतुष्टि है और शांति आध्यात्मिकता की बाहरी अभिव्यक्ति। मौलाना ‘द प्रॉफ़िट ऑफ़ पीस’, ‘क़ुरानिक विज़डम’, ‘इस्लाम एंड वर्ल्ड पीस’ और इस्लाम पर आधारित अन्य कई प्रतिष्ठित और सर्वाधिक बिकने वाली पुस्तकों के लेखक के रूप में जाने जातें हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त मौलाना को अपने योगदान के सम्मान में ‘पद्म विभूषण’, ‘पद्म भूषण’, ‘डेमिगरस इंटरनेशनल पीस अवॉर्ड’, ‘राजीव गांधी राष्ट्रीय सद्भावना अवॉर्ड’ और ‘नेशनल सिटिज़ंस अवॉर्ड’ इत्यादि से सम्मानित किया गया।

जन्नत:

इंसान की मंज़िल

 

 

मौलाना वहीदुद्दीन ख़ान

 

 

नक़ल--हुरुफ़ी

सबा जबीं अब्बास

 

 

संपादन टीम

मोहम्मद आरिफ़

मौलाना फ़रहाद अहमद

ख़ुर्रम इस्लाम क़ुरैशी

राजेश कुमार

ख़ुदा का मंसूबा--तख़्लीक़

अल्लाह ने एक मेयारी दुनिया बनाई। हर ऐतबार से यह एक परफ़ेक्ट दुनिया थी। अल्लाह ने यह मुक़द्दर किया कि इस  मेयारी दुनिया में ऐसे अफ़राद बसाए जाएँ, जो हर ऐतबार से मेयारी इंसान हों। इस मक़सद के लिए अल्लाह ने इंसान को पैदा करके उसको सैय्यारा अर्ज़ पर आबाद किया। उसने इंसान को मुक्कमल आज़ादी अता की। मौजूदा दुनिया इस मंसूबे के लिए एक सेलेक्शन ग्राउंड की हैसियत रखती है। यहाँ यह देखा जा रहा है कि कौन शख़्स अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल करता है और कौन शख़्स अपनी आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करता है। तारीख़ के ख़ात्मे पर यह होगा कि आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करने वाले अफ़राद रिजेक्ट कर दिए जाएँगे और जिन अफ़राद ने अपनी आज़ादी का सही इस्तेमाल किया, उन्हें चुनकर जन्नत में आबाद कर दिया जाएगा। जन्नत के तसव्वुर को कुछ लोग इंसानी तमन्नाओं की ख़ूबसूरत नज़रियासाज़ी (beautiful idealization of human wishes) का नाम देते हैं, मगर ज़्यादा सही यह है कि जन्नत के तसव्वुर को इंसानी तारीख़ की ख़ूबसूरत ताबीर (beautiful interpretation of human history) कहा जाए।

ख़ुदा के इस तख़्लीक़ी मंसूबे के आग़ाज़ का ज़िक्र क़ुरआन की सूरह अल-बक़रह में आया है। इन आयात का तर्जुमा यह है

और जब तेरे रब ने फ़रिश्तों से कहा कि मैं ज़मीन में एक ख़लीफ़ा बनाने वाला हूँ। फ़रिश्तों ने कहा— ‘क्या तू ज़मीन में ऐसे लोगों को बसाएगा, जो उसमें फ़साद बरपा करें और ख़ून बहाएँ और हम तेरी हम्द करते हैं और तेरी पाकी बयान करते हैं।अल्लाह ने कहा— ‘मैं वह जानता हूँ, जो तुम नहीं जानते।और अल्लाह ने सिखा दिए आदम को सारे नाम, फिर उन फ़रिश्तों के सामने पेश किया और कहा कि अगर तुम सच्चे हो तो मुझे उन लोगों के नाम बताओ। फ़रिश्तों ने कहा— ‘तू पाक है, हम तो वही जानते हैं, जो तूने हमें बताया। बेशक तू ही इल्म वाला और हिकमत वाला है”            (2:30-32)

असल यह है कि फ़रिश्ते पूरे इंसानी मजमूए को देखकर अपनी राय बना रहे थे। अल्लाह ने एक मुज़ाहिरे के ज़रिये वाज़ेअ किया कि ख़ुदाई तख़्लीक़ का निशाना मजमूआ नहीं है, बल्कि अफ़राद है। मजमूए की सतह पर अगरचे बिगाड़ आएगा, लेकिन अफ़राद की सतह पर हमेशा अच्छे अफ़राद वजूद में आते रहेंगे। ख़ुदा के तख़्लीक़ी मंसूबे के मुताबिक़ मौजूदा दुनिया एक सेलेक्शन ग्राउंड है यानी पूरे मजमूए में से मतलूब अफ़राद का इंतिख़ाब करना। तख़्लीक़ का निशाना यह नहीं है कि इंसान इसी सैय्यारा अर्ज़ पर मेयारी निज़ाम बनाए, बल्कि तख़्लीक़ का निशाना यह है कि हर दौर और हर नस्ल में से उन अफ़राद को चुना जाए, जो कामिल आज़ादी के बावजूद अपने आपको बतौर ख़ुद से ख़ुदा के हुक्म  का पाबंद बना लें।

मेयारी अफ़राद का इंतिख़ाब

ख़ुदा के इस मंसूबा--तख़्लीक़ के मुताबिक़, ख़ालिक़ ने मौजूदा दुनिया को इसलिए नहीं बनाया है कि यहाँ मजमूए की सतह पर मेयारी निज़ाम (ideal system) बनाया जाए। हक़ीक़त यह है कि मौजूदा दुनिया इम्तिहान के लिए बनाई गई है। यहाँ हर इंसान को कामिल आज़ादी दी गई है। वह चाहे  इसका सही इस्तिमाल करे या ग़लत। इसलिए यहाँ मजमूए की सतह पर कभी मेयारी निज़ाम नहीं बन सकता। मेयारी निज़ाम का मक़ाम सिर्फ़ जन्नत है और वह जन्नत ही में बनेगा।

मौजूदा दुनिया दरअसल मेयारी अफ़राद का इंतिख़ाबी मैदान (selection ground) है ।

यहाँ हर नस्ल से मेयारी अफ़राद का इंतिख़ाब किया जा रहा है। मसलन आदम की पहली नस्ल में क़ाबील, क़ाबिल--रद्द था और हाबील, क़ाबिले-क़ुबूल। यही मामला पूरी तारीख़ में पूरी तरह जारी है। हर दौर में और हर नस्ल में ख़ुदा मेयारी अफ़राद को चुन रहा है और ग़ैर-मेयारी अफ़राद को रद्द कर रहा है। रद्द व क़ुबूल के इसी मामले को क़ुरआन में इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है

ثُلَّةٌ مِّنَ الْأَوَّلِينَ. وَثُلَّةٌ مِّنَ الْآخِرِينَ

अगलों में से एक बड़ा गिरोह और पिछलों में से भी एक
बड़ा गिरोह।”                                             (56:39-40)

क़ाबिल--क़ुबूल और क़ाबिल--रद्द इंसानों की यह मतलूब फ़ेहरिस्त जब मुकम्मल हो जाएगी तो उसके बाद ख़ालिक़--कायनात मौजूदा दुनिया को ख़त्म करके एक और दुनिया बनाएगा, वह मेयारी दुनिया होगी, जिसे जन्नत कहा जाता है। क़ाबिल--क़ुबूल अफ़राद इस जन्नत में बसा दिए जाएँगे, जहाँ वे अब्द तक ख़ौफ़ व ग़म से पाक ज़िंदगी गुज़ारेंगे। इसके बरअक्स ना-क़ाबिल--क़ुबूल अफ़राद को रद्द करके कायनाती कूड़ेख़ाने में डाल दिया जाएगा, जहाँ वह अब्द तक हसरत की ज़िंदगी गुज़ारेंगे।

इंसान से मतलूब

क़ुरआन में बताया गया है कि इंसान कोअह्सन--तक़वीमयानी बेहतरीन तख़्लीक़ की सूरत में पैदा किया गया है। इसके साथ फ़रमाया कि इंसान कोअस्फ़ला साफ़िलीनयानी सबसे ख़राब हालत में डाल दिया गया है।          (95:4-5)

यह बात लफ़्ज़ी मायने में नहीं हो सकती, क्योंकि ख़ुद क़ुरआन से साबित होता है कि मौजूदा दुनिया इंसान के लिए जन्नत से मुशाबह दुनिया है।                                                                     (2:25)

इससे मालूम होता है कि मौजूदा दुनिया की ज़िंदगी माद्दी मायनों मेंअस्फ़लयानी सबसे ख़राब नहीं है, बल्कि वह नफ़्सियाती मायनों में अहसास--महरूमी की ज़िंदगी है। ऐसा इसलिए है कि इंसान को आला ज़ौक़ (high taste) के साथ पैदा किया गया है। इसलिए ऐसा है कि मौजूदा दुनिया की माद्दी नेअमतें इंसान को फुलफिलमेंट के दर्जे में तस्कीन नहीं देतीं, चाहे इंसान को दुनियावी नेअमतें कितनी ही ज़्यादा हासिल हो जाएँ। मसलन अमेरिका के बिल गेट्स (Bill Gates) के लिए उनकी दौलत तस्कीन का ज़रिया नहीं बनी। इसलिए उन्होंने अपनी दौलत का बड़ा हिस्सा चैरिटी में दे दिया। अमेरिका के सदर डोनाल्ड ट्रंप को व्हाइट हाउस में पहुँचकर सुकून नहीं मिला। इसलिए उन्होंने व्हाइट हाउस को कोकून (cocoon) बताया।

इस मामले पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि इंसान से यह मतलूब है कि वह मौजूदा दुनिया को जन्नत के मुशाबह दुनिया के तौर पर दरयाफ़्त करे। दुनिया की जन्नत ख़ुद जन्नत नहीं है, बल्कि वह आख़िरत की जन्नत का इब्तिदाई तआरुफ़ है। इंसान को चाहिए कि वह दुनिया की नेअमतों को देखकर आख़िरत की जन्नत को दरयाफ़्त करे। उसके अंदर शुक्र का जज़्बा पैदा हो और

(14:7) لَئِنْ شَکَرْتُمْ لَأَزِیدَنَّکُمْ  

के मुताबिक़ वह जन्नत--आख़िरत का मुस्तहिक़ बने मतलब कि अगर तुम शुक्र करोगे तो मैं तुम्हें ज़्यादा दूँगा।

जन्नत क्या है?

जन्नत कोई पुर-असरार क़िस्म की ना-क़ाबिल--फ़हम चीज़ नहीं। जन्नत इंसान के लिए पूरी तरह एक क़ाबिल--फ़हम (understable) नेअमत है। क़ुरआन में इस हक़ीक़त को इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है— “जब भी उन्हें जन्नत के बाग़ों में से कोई फल खाने को मिलेगा तो वे कहेंगे, यह वही है, जो इससे पहले हमें दिया गया था और मिलेगा उन्हें एक-दूसरे से मिलता-जुलता।”                                                                                  (2:25)

हक़ीक़त यह कि जन्नत मौजूदा दुनिया के मुतशाबेह (similar) होगी। मौजूदा दुनिया जन्नत का नॉन-परफ़ेक्ट मॉडल है और आख़िरत की जन्नत परफ़ेक्ट मॉडल। मौजूदा दुनिया भी उसी तरह अल्लाह रब्बुल आलमीन की तख़्लीक़ है, जिस तरह आख़िरत की जन्नत अल्लाह रब्बुल आलमीन की तख़्लीक़ होगी; लेकिन मौजूदा दुनिया में इंसान पहले से एक आज़ाद मख़्लूक़ की हैसियत से रह रहा है, इसलिए इंसानी फ़साद की बिना पर मौजूदा दुनिया उसके लिए आलूदा दुनिया (polluted world) बन गई है। जबकि आख़िरत की जन्नत पूरे मायनों में ग़ैर-आलूदा जन्नत होगी। आख़िरत की जन्नत इंसान के लिए अब्दी तौर पर ख़ुशियों की जन्नत होगी, जबकि मौजूदा दुनिया जन्नत के एक तआरुफ़ी मॉडल की हैसियत रखती है।

मौजूदा दुनिया इंसानी आलूदगी (human pollution) का मक़ाम है, जबकि आख़िरत की जन्नत इंसानी आलूदगी से पाक व साफ़ मक़ाम है। जन्नत में हर चीज़ अपनी आला सूरत में मौजूद होगी, जबकि मौजूद दुनिया का मामला यह है कि तख़्लीक़ के ऐतबार से वह भी जन्नत जैसी है। मौजूदा दुनिया में इंसान जन्नत का तसव्वुर कर सकता है, लेकिन इस दुनिया में वह जन्नत के नॉन-पॉल्यूटेड मॉडल को देख नहीं सकता। यह मुशाहिदा सिर्फ़ उन लोगों के लिए मुमकिन होगा, जो आख़िरत में जन्नत को पाने के लिए मुस्तहिक़ मेंबर क़रार दिए जाएँ। इसलिए आख़िरत में अहल--जन्नत को जन्नत बतौर वाक़या मिलेगी, जबकि मौजूदा दुनिया में जन्नत सिर्फ़ एक अक़ीदे के दर्जे में हासिल होती है।

जन्नत का रोल

जन्नत के अक़ीदे का इंसान की ज़िंदगी में बहुत बड़ा रोल है। इंसान के अंदर अना का जज़्बा बहुत ताक़तवर है। यह जज़्बा इंसान की सारी सरगर्मियों में काम करता है। इंसान के लिए सबसे बड़ी तबाहकुन बात यह है कि वह अना का शिकार हो जाए। इसमें भी सबसे ज़्यादा ख़तरनाक चीज़ हैमख़्फ़ी अना (hidden ego)। मख़्फ़ी अना से इंसान ख़ुद अक्सर बेख़बर रहता है कि वह अना का शिकार हो गया है। यही इंसान के लिए सबसे ज़्यादा ख़तरनाक मसला है। जन्नत का अक़ीदा अपनी सही सूरत में मख़्फ़ी अना का तोड़ है। जन्नत का अक़ीदा वाहिद ताक़तवर मुहर्रिक (motivation) है, जो इंसान को अनापरस्त बनने से बचाता है। जन्नत के ताक़तवर अक़ीदे के बग़ैर कोई इंसान अना के फ़ितने से बच नहीं सकता।

अना के फ़ितने का सबसे ज़्यादा नुक़सानदेह पहलू यह है कि इंसान अपने हर अमल को जायज़ ठहराने का बहाना (justification) तलाश कर लेता है। वह ग़लत काम भी करता है तो उसका एक जवाज़ (justified reason) उसके पास होता है। वह ग़लत काम को इस यक़ीन के साथ करता है कि वह एक दुरुस्त काम है। यह एक ख़ुद-फ़रेबी की बदतरीन सूरत है।

सही और दुरुस्त काम की सबसे ज़्यादा वाज़ेअ पहचान यह है कि जो अमलज़ुल्म के ख़िलाफ़आवाज़ के नाम पर किया जाए, वह बिलाशुबह एक ग़लत काम है। ऐसा काम ज़िंदगी के बिगाड़ में सिर्फ़ इज़ाफ़ा करता है, वह उसमें कमी करने का सबब नहीं बनता। इसका असल मुहर्रिक अना होती है। इसके बरअक्स सही काम वह है, जो मुस्बत गोल (positive goal) को लेकर किया जाए, जिसका मक़सद किसी ख़याली ज़ुल्म को मिटाना न हो, बल्कि लोगों के अंदर मुस्बत सोच को फ़रोग़ देना हो। जब आदमी जन्नत के रास्ते पर चलता है, अगर वह संजीदा है, तो उसका ज़मीर उसे बताएगा कि यह रास्ता तुम्हें जन्नत से महरूम कर देने वाला है यानी जन्नत का रिस्क लेकर तुम इस रास्ते पर आगे बढ़ सकते हो। अनापरस्त आदमी ज़मीर की बात नहीं सुनेगा, लेकिन जो आदमी जन्नत के मामले में संजीदा हो, वह ज़रूर इसे सुनेगा।

जन्नत किसके लिए

अब यह सवाल पैदा होता है कि यह जन्नत किसके लिए है? जन्नत का मतलब है अब्दी ऐश (eternal pleasure) की ज़िंदगी। यह एक बेहद अनोखा तसव्वुर है। मैं बहुत दिनों से यह सोचता था कि आख़िर अब्दियत की यह नेअमत किसे दी जाएगी। आख़िरकार मैंने एक वाक़या सुना। इससे मेरी समझ में आया कि अब्दी जन्नत का इस्तेह्क़ाक़ (privilege) किसके लिए होगा।

दिल्ली में एक ताजिर हैं, जो अब बूढ़े हो चुके हैं। उन्होंने बिज़नेस में काफ़ी दौलत कमाई, मगर उनका कोई वारिस नहीं था जिसे वह अपनी दौलत दें। आख़िरकार उन्होंने एक अनोखा वाक़या किया। उनका एक मुलाज़िम था, जो सारी उम्र उनकी ख़िदमत करता रहा। वह बेहद वफ़ादार था। ज़िंदगी के हर तजुर्बे से मालूम हुआ कि वह मुलाज़िम आख़िरी हद तक दिल--जान से उनका वफ़ादार है। मज़्कूरा ताजिर ने यह किया कि अपनी सारी दौलत उस मुलाज़िम को दे दी और बुढ़ापे की उम्र में ख़ुद भी जाकर उसी के घर में उसके साथ रहने लगा। अब यह हाल है कि उसकी पूरी फैमिली दिल--जान से उस ताजिर की ख़िदमत गुज़ारी कर रही है। इस क़िस्से को बताते हुए उस ताजिर ने कहा कि यह आदमी मेरा इतना ज़्यादा वफ़ादार है कि वैसा कोई अपना बेटा भी नहीं हो सकता। वह बचपन की उम्र से मेरे साथ है और कभी उसकी वफ़ादारी पर मुझे शक नहीं हुआ। अब जबकि मैं बूढ़ा हो चुका हूँ, यह आदमी दिल--जान से मेरी वफ़ादारी का हक़ अदा कर रहा है। इसलिए मैंने अपना सब कुछ उस आदमी को दे दिया। अब मैं इतना ज़्यादा ख़ुश हूँ कि शायद ही कोई आदमी इतनी ज़्यादा ख़ुशी की ज़िंदगी गुज़ारता हो। तादम तहरीर (31 जनवरी, 2019) दोनों ज़िंदा हैं। मज़्कूरा ताजिर पहले दिल्ली के निज़ामुद्दीन वेस्ट के इलाक़े में रहते थे और अब दोनों आगरा के मज़ाफ़ात (suburb) में एक घर में एक साथ रहते हैं।

इस वाक़ये को जानने के बाद मुझे एक हदीस याद आई

خَلَقَ اللَّہُ آدَمَ عَلَى صُورَتِہِ

अल्लाह ने आदम को अपनी सूरत पर पैदा किया।

                           (सहीह अल-बुख़ारी, हदीस नं० 6227)

इस हदीस को लेकर मैंने सोचा तो मेरी समझ में आया कि इसका मतलब शायद यह है कि इंसान का मुताअला करके कोई शख़्स अल्लाह को दरयाफ़्त कर सकता है। अल्लाह को शायद सबसे ज़्यादा जो चीज़ पसंद है, वह यह है कि उसका कोई बंदा ऐसा हो, जो दिल--जान से उसका वफ़ादार हो। किसी बंदे के बारे में अगर साबित हो जाए कि वह आख़िरी हद तक अल्लाह का कामिल वफ़ादार है, तो ऐसा बंदा अल्लाह को इतना ज़्यादा महबूब बन जाता है कि अल्लाह चाहता है कि वह ऐसे बंदे को सब कुछ दे दे, हत्ता कि अब्दी जन्नत भी।

कामिल वफ़ादारी किसी इंसान की सबसे बड़ी सिफ़त है। जो आदमी हक़ीक़ी मायने  में अपने बारे में यह साबित कर दे कि वह अपने रब का कामिल वफ़ादार है, वह दिल--जान से पूरे मायनों में अल्लाह वाला इंसान है। यही वह कामिल वफ़ादार बंदा है, जिसके अंजाम के बारे में क़ुरआन में यह अल्फ़ाज़ आए हैं

فِی مَقْعَدِ صِدْقٍ عِنْدَ مَلِیکٍ مُقْتَدِرٍ

वह बैठे होंगे सच्ची बैठक में, क़ुदरत वाले बादशाह के पास।” (54:55)

जन्नत, ख़ुदा का पड़ोस

फ़िरऔन की बीवी आसिया ईमान लाई तो फ़िरऔन ग़ुस्सा हो गया। उसने कहा कि मैं तुम्हें मार डालूँगा, तुम क्यों मूसा पर ईमान लाई? उस वक़्त उस ख़ातून ने कहा— “तुम जो चाहो करो, अब मैं तो ईमान ला चुकी हूँ।क़ुरआन में ज़िक्र है कि उस वक़्त आसिया ने एक दुआ की थी। इस दुआ के अल्फाज़ यह हैं

رَبِّ ابْنِ لِی عِنْدَکَ بَیْتًا فِی الْجَنَّةِ

ऐ मेरे रब, मेरे लिए अपने पास जन्नत में एक घर बना दे।
                                                                    (
66:11)

इस घटना से मालूम होता है कि तौहीद से जन्नत जुड़ी हुई है और यह कि जन्नत ख़ुदा के पड़ोस का नाम है।

ख़ुदारुख़ी ज़िंदगी

ख़ुदारुख़ी ज़िंदगी यह है कि आदमी अल्लाह रब्बुल आलामीन को इस तरह दरयाफ़्त करे कि वह उसकी ज़िंदगी में शामिल हो जाए। वह ख़ुदा की याद के साथ सोए और ख़ुदा की याद के साथ जागे। वह ख़ुदा की दुनिया में ख़ुदा वाला बनकर रहे। दुनिया की हर चीज़ उसे ख़ुदा की याद दिलाने वाली बन जाए।

निजात--आख़िरत

पैग़ंबर--इस्लाम की एक रिवायत  हदीस की अक्सर किताबों में आई है। सहीह मुस्लिम के अल्फ़ाज़ यह हैं

لَا یُدْخِلُ أَحَدًا مِنْکُمْ عَمَلُہُ الْجَنَّةَ، وَلَا یُجِیرُہُ مِنَ النَّارِ، وَلَا أَنَا، إِلَّا بِرَحْمَةٍ مِنَ اللہِ

तुममें से किसी को उसका अमल जन्नत में दाख़िल नहीं करेगा और न ही आग से पनाह देगा और न मैं, सिवा इसके कि अल्लाह की रहमत के ज़रिये ऐसा होगा।

                                  (सहीह मुस्लिम, हदीस नं० 2817)

इस क़िस्म की रिवायतों से मालूम होता है कि जन्नत किसी भी इंसान के लिए उसके अमल का मुआवज़ा नहीं है। ऐसा नहीं है कि अगर किसी चीज़ की ज़रूरी क़ीमत आपकी जेब में मौजूद है, तो आप शॉपिंग सेंटर से उसे क़ीमत देकर ख़रीद सकते हैं। जन्नत का मामला किसी भी दर्जे मेंख़रीद--फ़रोख़्तजैसा नहीं है। यह बात सही है कि जन्नत किसी शख़्स को अमल के बग़ैर नहीं मिलेगी, लेकिन फ़ाइनल मायनों में किसी के लिए जन्नत का दाख़िला सिर्फ़ अमल की बुनियाद पर न होगा, बल्कि अल्लाह की रहमत की बुनियाद पर होगा।

इसका सबब यह है कि अब्दी जन्नत इतनी ज़्यादा क़ीमती है कि अमल की कोई भी मिक़दार उसका मुआवज़ा नहीं हो सकती। हक़ीक़त यह है कि इस मामले में इंसानी अमल की हैसियत इब्तिदाई योग्यता के लिए है, न कि जन्नत में फ़ाइनल दाख़िले के लिए।

जन्नत का मिलना किसी के लिए इनामी टिकट की मानिंद नहीं है, बल्कि इसका ताल्लुक़ इंसान की पूरी ज़िंदगी से है। इंसान को ईमान की तौफ़ीक़ मिलना, साबित क़दमी के साथ अमल--सालेह पर क़ायम रहना, ग़लती के बाद सच्ची तौबा करना, उज़्र (excuse) को उज़्र बनाए बग़ैर सिराते-मुस्तक़ीम पर क़ायम रहना, हर सूरतेहाल में अपने आपको मनफ़ी जज़्बात से पाक रखना। इस तरह के बेशुमार मवाक़े हैं, जहाँ इंसान सिर्फ़ अपनी कोशिश से अमल--सालेह पर क़ायम नहीं रह सकता। इस तरह के हर मौक़े पर ज़रूरत होती है कि इंसान को अल्लाह की तौफ़ीक़ मुसलसल तौर पर हासिल रहे। इस लिहाज़ से देखिए तो यह मामला सिर्फ़ दाख़िला--जन्नत का नहीं है, बल्कि यह है कि तौफ़ीक़--ईमान से लेकर मौत तक मुसलसल तौर पर आदमी  को अल्लाह की मदद हासिल रहे।

जन्नत, एक इनाम

एक हदीस--रसूल इन अल्फ़ाज़ में आई है

لَنْ یُدْخِلَ أَحَدًا عَمَلُہُ الجَنَّةَقَالُوا:وَلاَ أَنْتَ یَا رَسُولَ اللَّہِ؟ قَالَ:لاَ، وَلاَ أَنَا، إِلَّا أَنْ یَتَغَمَّدَنِی اللَّہُ بِفَضْلٍ وَرَحْمَةٍ، فَسَدِّدُوا وَقَارِبُوا

किसी आदमी को उसका अमल जन्नत में हरगिज़ दाख़िल नहीं करेगा। लोगों ने पूछा— ‘आप भी नहीं, ऐ खुद के रसूल?’ आपने कहा— ‘नहीं, मैं भी नहीं, सिवा इसके कि अल्लाह मुझे अपने फ़ज़ल और रहमत से ढक ले। तो तुम लोग दुरुस्तगी और ऐतेदाल का तरीक़ा इख़्तियार करो”                              

                           (सहीह अल-बुख़ारी, हदीस नं० 5673)

इस हदीस का मतलब यह है कि जन्नत एक अब्दी नेअमत है, जबकि इंसान का हर अमल महदूद है और कोई महदूद अमल ला-महदूद नेअमत का एवज़ (substitute) नहीं बन सकता। इसलिए जन्नत किसी इंसान को फ़ज़ल--ख़ुदावंदी के तौर पर मिलेगी यानी जन्नत मालिक--कायनात की तरफ़ से बतौर इनाम होगी। अल्लाह रब्बुल आलमीन जिस इंसान से राज़ी हो जाए, उसे रज़ामंदी की अलामत के तौर पर जन्नत दी जाएगी। जैसा कि क़ुरआन में आया है

رَضِیَ اللَّہُ عَنْہُمْ وَرَضُوا عَنْہُ ذَلِکَ لِمَنْ خَشِیَ رَبَّہُ

अल्लाह उनसे राज़ी और वे अल्लाह से राज़ी।”     (98:8)

यह उस शख़्स के लिए है, जो अपने रब से डरे। क़ुरआन में इस रज़ामंदी की दो अलामतें बताई गई हैंमोहब्बत और ख़ौफ़। मोहब्बत के ताल्लुक़ से यह आयत आई है

وَالَّذِینَ آمَنُوا أَشَدُّ حُبًّا لِلَّہِ

और जो ईमान वाले हैं, वे सबसे ज़्यादा अल्लाह से मोहब्बत रखने वाले हैं।”            (2:165)

इसी तरह यह आयत है

لَمْ یَخْشَ إِلَّا اللَّہَ

अल्लाह के सिवा किसी से न डरे।”                      (9:18)

इसका मतलब यह कि अल्लाह अपने जिस बंदे को इस हाल में पाए कि उसने अपने रब की नेअमतों का बहुत ज़्यादा ऐतराफ़ किया, यहाँ तक कि उसके अंदर अल्लाह के लिए वह चीज़ पैदा हो गई, जिसे इंसानी ज़बान में मोहब्बत कहा जाता है। इसी तरह जिसने अल्लाह रब्बुल आलमीन को इस तरह दरयाफ़्त किया कि उसे अल्लाह से तक़वे के दर्जे में ताल्लुक़ पैदा हो गया। जिस इंसान को रब्बुल आलमीन इस हाल में पाए, उसके लिए अल्लाह रब्बुल आलमीन की रहमत का तक़ाज़ा होगा कि उसे अब्दी जन्नत में दाख़िला दिया जाए। 

जन्नत और इंसान

जन्नत और इंसान एक-दूसरे का जोड़ (counterpart) हैं। दोनों एक-दूसरे के लिए पूरक (complementary) की हैसियत रखते हैं। जन्नत इंसान के लिए बनाई गई है और इंसान जन्नत के लिए। हक़ीक़त यह है कि जन्नत मतलूब--इंसान है और इंसान मतलूब--जन्नत। इंसान के बग़ैर जन्नत अधूरी है और जन्नत के बग़ैर इंसान अधूरा। यह बात खुद तख़्लीक़ी मंसूबे में शामिल है कि इस दुनिया में जन्नती इंसान तैयार हों, जो जन्नत की अब्दी दुनिया में बसाए जा सकें।

क़ुरआन की सूरह अन-निसा में यह आयत आई है

مَا یَفْعَلُ اللَّہُ بِعَذَابِکُمْ إِنْ شَکَرْتُمْ وَآمَنْتُمْ وَکَانَ اللَّہُ شَاکِرًا عَلِیمًا

अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर क्या करेगा, अगर तुम शुक्रगुज़ारी करो और ईमान लाओ। अल्लाह बड़ा क़द्रदाँ है। वह सब कुछ जानने वाला है।”                                              (4:147)

इसका मतलब यह है कि अल्लाह के तख़्लीक़ी मंसूबे का तक़ाज़ा इस तरह पूरा नहीं होता कि लोग बुरे आमाल करके अपने आपको जहन्नम का मुस्तहिक़ बना लें। अल्लाह का तख़्लीक़ी मंसूबा यह चाहता है कि लोग अपने आपको जन्नत का मुस्तहिक़ साबित करें और फिर आख़िरत में पहुँचकर वह जन्नत के बाग़ों में आबाद हों।

मुफ़स्सिर अबू अल-बरकात अन-नसफ़ी (वफ़ात : 1310 ई०) ने मज़्कूरा आयत की तशरीह के तहत लिखा है

الإیمان معرفۃ المنعم، والشکر الاعتراف بالنعمۃ

ईमान, देने वाले की मअरिफ़त है और शुक्र नेअमत के ऐतराफ़ का नाम है।”  (तफ़्सीर अन-नसफ़ी, 1/259)

हक़ीक़त यह है कि यह दोनों चीज़ें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। ईमान का मतलब यह है कि आदमी शऊरी तौर पर अपने रब को दरयाफ़्त करे, वह मख़्लूक़ के ज़रिये ख़ालिक़ का तआरुफ़ हासिल करे। शुक्र का मतलब ख़ुदा की नेअमतों का ऐतराफ़ है। इस दुनिया में जो कुछ इंसान को मिला हुआ है, वह

सब ख़ुदा--बरतर का इनाम (blessings) है। इस इनाम के लिए दिल से देने वाले का शुक्रगुज़ार होना, बिलाशुबह किसी इंसान के लिए सबसे बड़ी इबादत की हैसियत रखता है।

जन्नत की दरयाफ़्त

ग़ालिबन 1983 की बात है। उस वक़्त दिल्ली में एक अंग्रेज़ मिस्टर जॉन बट (John Butt) रहते थे। उन्होंने मेरी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ी थीं और मेरी फ़िक्र से काफ़ी मानूस हो चुके थे। मुलाक़ात के दौरान एक बार मैंने उनसे कहा कि क़लम मेरी महबूब चीज़ है। मैंने बहुत से क़लम इस्तेमाल किए, मगर मुझे अपनी पसंद का क़लम अभी तक नहीं मिला। उन्होंने कहा कि मैं जल्द ही लंदन जाने वाला हूँ, वहाँ से मैं आपके लिए एक अच्छा क़लम ले आऊँगा।

कुछ अरसे के बाद वह मुझसे मिले और इंग्लैंड का बना हुआ एक क़लम मुझे देते हुए कहा कि मैंने लंदन और ऑक्सफ़ोर्ड की मार्किट में काफ़ी तलाश के बाद यह क़लम (फाउंटेन पेन) हासिल किया है। ताहम मुझे उम्मीद नहीं है कि यह क़लम आपकी पसंद के मुताबिक़ होगा। मैंने कहा, “क्यों?” उन्होंने कहा, “मैं जानता हूँ कि आप एक परफ़ेक्शनिस्ट हैं और दुनिया में चूँकि कोई भी क़लम परफ़ेक्ट क़लम नहीं, इसलिए आपको कोई भी क़लम पसंद नहीं आएगा।असल यह है कि हर आदमी पैदाइशी तौर पर परफ़ेक्शनिस्ट है। यह कहना सही होगा कि इंसान एक कमालपसंद हैवान है।

Man is a perfection-seeking animal.

इंसानी फ़ितरत का यही ख़ास पहलू है जिसकी बिना पर हर आदमी का यह हाल है कि वह महरूमी (deprivation) के एहसास में मुब्तला रहता है, हत्ता कि वह लोग, जो दुनिया का हर सामान हासिल कर लेते हैं, वे भी महरूमी के एहसास से ख़ाली नहीं होते हैं।

इसका सबब यह है कि इंसान अपनी फ़ितरत के ऐतबार से परफ़ेक्शनिस्ट है, मगर जिस दुनिया में वह रहता है, उसकी कोई भी चीज़ परफ़ेक्ट नहीं। इस तरह इंसान की तलब और दुनिया की क़ाबिल--हुसूल चीज़ों के दरम्यान एक असमानता पैदा हो गई है। दोनों के बीच यही असमानता इंसान के अंदर महरूमी के एहसास का असल सबब है।

इंसान अपनी आरजु़ओं की तकमील के लिए दुनिया मे जद्दोजहद शुरू करता है। यहाँ तक कि वह वक़्त आता है, जबकि वह दौलत, इक़्तिदार, साज़ो-सामान और दूसरी मतलूब चीज़ें हासिल कर लेता है; मगर उसे महसूस होता है कि अपनी मतलूब चीज़ों को पाने के बाद भी वह बदस्तूर महरूमी के एहसास से दो-चार है, अब भी वह पाने के एहसास तक न पहुँच सका।

इसका सबब यह है कि पाने से पहले वह समझता है कि यही वह चीज़ है, जिसकी आरज़ू वह अपने दिल में लिए हुए है; मगर चीज़ को पाने के बाद उसे वह तस्कीन नहीं मिलती, जो किसी मतलूब  चीज़ को पाने से होनी चाहिए; क्योंकि उसके दिल में जो आरज़ू थी, वह परफ़ेक्ट चीज़ के लिए थी, जबकि दुनिया की हर चीज़ ग़ैर-परफ़ेक्ट (imperfect) है और ज़ाहिर है किसी परफ़ेक्शनिस्ट को ग़ैर-परफ़ेक्ट में तस्कीन नहीं मिल सकती।

इस मसले का हल सिर्फ़ एक है और वह यह कि आदमी जन्नत को अपना निशाना बनाए। जन्नत पूरे मायनों में एकपरफ़ेक्ट वर्ल्डहै, जबकि उसके मुक़ाबले में मौजूद दुनिया सिर्फ़ एकइम्परफ़ेक्ट वर्ल्डकी हैसियत रखती है। इंसान अपनी पैदाइश के ऐतबार से जिस परफ़ेक्ट वर्ल्ड का तालिब है, वह जन्नत है। जन्नत की मअरिफ़त न होने की वजह से आदमी मौजूदा दुनिया में अपनी आरज़ुएँ तलाश करने लगता है और अपनी फ़ितरत और ख़ारिजी दुनिया के दरम्यान असामनता की बिना पर महरूमी के एहसास का शिकार हो जाता है।

इस मसले का हल सिर्फ़ यह है कि आदमी के अंदर वह शऊरी इंक़लाब लाया जाए कि वह जन्नत की मअरिफ़त हासिल कर सके। इस मअरिफ़त के हुसूल के बाद उसकी मायूसी का एहसास अपने आप ख़त्म हो जाएगा, क्योंकि वह जान लेगा कि जिन चीज़ों में वह अपनी आरज़ुओं की तस्कीन ढूँढ रहा है, उनमें उसके लिए तस्कीन का सामान मौजूद ही नहीं। इस दरयाफ़्त के बाद उसकी तवज्जोह जन्नत की तरफ़ लग जाएगी। उसके बाद वह मौजूदा दुनिया की चीज़ों को ज़रूरत के तौर पर लेगा, न कि मतलूब के तौर पर और जब किसी आदमी के अंदर यह सोच पैदा हो जाए, तो उसके बाद उसका हाल यही होगा कि वह पाने के एहसास में जीने लगेगा, न कि महरूमी के एहसास में।

मौजूदा दुनिया पाने से ज़्यादा खोने की जगह है। यहाँ हर मर्द और औरत को बार-बार यह एहसास होता है कि फ़लाँ चीज़ उससे खोई गई। फ़लाँ मौक़ा उसके हाथ से निकल गया। फ़लाँ शख़्स ने उसे नुक़सान पहुँचा दिया। इस क़िस्म के छोटे या बड़े हादसात हर एक को बार-बार पेश आते हैं। किसी भी मर्द या औरत के लिए इन नुक़सानात से बचना मुमकिन नहीं।

इस क़िस्म के नुक़सानात हर एक को पेश आते रहते हैं। अब सवाल यह है कि इन नुक़सानात की तलाफ़ी की सूरत क्या है? इसकी सूरत सिर्फ़ एक है और वह जन्नत का यक़ीन है। जिस आदमी को ख़ुदा की जन्नत पर यक़ीन हो, उसका हाल यह होगा कि हर नुक़सान के बाद वह यह कह सकेगा कि दुनिया का यह नुक़सान तो बहुत छोटा है। जन्नत के मुक़ाबले में इस नुक़सान की कोई हक़ीक़त नहीं। दुनिया के हर नुक़सान के बाद वह और ज़्यादा ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जह हो जाएगा। वह ख़ुदा से और ज़्यादा जन्नत का तालिब बन जाएगा।

क़ुरआन में जन्नत की यह सिफ़त बताई गई है कि वहाँ आबाद होने वाले लोगों के लिए न खौफ़ होगा और न ग़म (2:38)। इसका मतलब यह है कि दुनिया में इंसान को जो ज़िंदगी मिलती है, वह कभी और किसी के लिए खौफ़ और ग़म से ख़ाली नहीं होती। मौजूदा दुनिया का निज़ाम इस ढंग पर बना है कि यहाँ हक़ीक़ी मायनों में खौफ़ और ग़म से ख़ाली ज़िंदगी का हुसूल मुमकिन ही नहीं। ऐसी हालत में आदमी के लिए वाहिद दुरुस्त रवैया यह है कि वह दुनिया को अपना मक़सद न बनाए। वह दुनिया को सिर्फ़ यह हैसियत दे कि वह हक़ीक़ी मंज़िल की तरफ़ जाने का एक रास्ता है।

इसी हक़ीक़त को एक हदीस में इन अल्फ़ाज़ में बताया गया है

اللَّہُمَّ لاَ عَیْشَ إِلَّا عَیْشُ الآخِرَہْ

मुकम्मल राहत और ख़ुशी का हुसूल सिर्फ़ आख़िरत में मुमकिन है।”           (सहीह अल बुख़ारी, हदीस नं० 2961)

दुनिया में राहत और मुसर्रत तलाश करना ऐसा ही है, जैसे कोई मुसाफ़िर रेलवे स्टेशन पर अपने लिए एक आरामदेह घर बनाने की कोशिश करे। हर मुसाफ़िर जानता है कि स्टेशन घर बनाने के लिए नहीं होता। इसी तरह मौजूदा दुनिया अमल--जन्नत के लिए है, न कि तामीर--जन्नत के लिए। जन्नत को अपनी मंज़िल--मक़सूद बनाना सिर्फ़ अक़ीदे की बात नहीं, वह मक़सद--हयात की बात है। ऐसा मक़सद जिसके सिवा कोई और मक़सद इंसान के लिए मुमकिन नहीं।

जिहाद फ़ी-अल्लाह

जिहाद की एक क़िस्म वह है, जिसे क़ुरआन मेंजिहाद फ़ी-अल्लाह’ (22:78) कहा गया है यानी अल्लाह में जिहाद। अल्लाह में जिहाद क्या है? अल्लाह में जिहाद है— ‘आयतुल्लाहयानी अल्लाह की निशानियों  में ग़ौर--फ़िक्र करना। तख़्लीक़ में छिपी हुई हिकमत को दरयाफ़्त करना। जिहाद फ़ी-अल्लाह की एक मिसाल क़ुरआन में वह है, जो पैग़ंबर इब्राहीम के हवाले से इन अल्फ़ाज़ में बयान हुई है— 

مَلَکُوتَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ

आसमान और ज़मीन के अजाइब (wonders)

                                                                      (6:75)

क़ुरआन में दूसरे मक़ाम पर यह हक़ीक़त इन अल्फ़ाज़ में बयान हुई है

أَوَلَمْ یَنْظُرُوا فِی مَلَکُوتِ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَمَا خَلَقَ اللَّہُ مِنْ شَیْءٍ

क्या उन्होंने आसमान और ज़मीन के निज़ाम पर ग़ौर नहीं किया और उन चीज़ों पर, जो अल्लाह ने पैदा की है।

                                                                    (7:185)

अल्लाह के पास अतियात का ख़ज़ाना इतना बड़ा है कि अगर वह हर एक को उसकी तलब के मुताबिक़ दे दे, तब भी उसके ख़ज़ाने में कोई कमी नहीं आएगी।

इस हक़ीक़त को एक हदीस--रसूल में इस तरह बयान
किया गया है

یَا عِبَادِی لَوْ أَنَّ أَوَّلَکُمْ وَآخِرَکُمْ وَإِنْسَکُمْ وَجِنَّکُمْ قَامُوا فِی صَعِیدٍ وَاحِدٍ فَسَأَلُونِی فَأَعْطَیْتُ کُلَّ إِنْسَانٍ مَسْأَلَتَہُ، مَا نَقَصَ ذَلِکَ مِمَّا عِنْدِی إِلَّا کَمَا یَنْقُصُ الْمِخْیَطُ إِذَا أُدْخِلَ الْبَحْر

ऐ मेरे बंदो! अगर तुम्हारे अगले-पिछले, जिन्न व इंस एक खुले मैदान में जमा हो जाएँ और मुझसे सवाल करें, फिर मैं हर इंसान को उसके सवाल के मुताबिक़ अता करूँ तो उससे मेरे ख़ज़ानों में इतनी कमी भी नहीं होगी, जितनी सुई को समंदर में डुबोने से होती है।”                     (सहीह मुस्लिम, हदीस नं० 2577)

ग़ालिबन इसी हक़ीक़त का इदराक (realization) पैग़ंबर सुलेमान की ज़बान से दुआ की सूरत में हुआ था, जो क़ुरआन में इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है

رَبِّ اغْفِرْ لِی وَہَبْ لِی مُلْکًا لَا یَنْبَغِی لِأَحَدٍ مِنْ بَعْدِی إِنَّکَ أَنْتَ الْوَہَّابُ

 ऐ मेरे रब, मुझे माफ़ कर दे और मुझे ऐसी सल्तनत दे, जो मेरे बाद किसी के लिए मयस्सर न हो, बेशक तू बड़ा देने वाला है।                                                              (38:35)

सुलेमान बिन-दाऊद को उनकी दुआ के मुताबिक़ अनोखे क़िस्म का सियासी इक़्तिदार अता किया गया, जो उनके सिवा किसी और इंसान को कभी नहीं मिला; लेकिन ख़ुदा के ख़ज़ाने में अतिये की यही एक अनोखी सूरत नहीं है, जो हज़रत सुलेमान को अता हुई। इसके सिवा दूसरी हज़ारों सूरतें हैं, जो तारीख़ में दूसरे इंसानों को अता हुईं। इस तरह अतियात के दूसरे बहुत से मैदान हैं, जो दूसरे इंसानों को अता हुए। अतियात का यह सिलसिला कभी ख़त्म नहीं हुआ। आज भी किसी इंसान के लिए यह मुमकिन है कि वह एक बे-मिसाल अतिया--इलाही का तालिब बने और अल्लाह उसकी लियाक़त को देखकर यह बे-मिसाल अतिया उसको दे दे।

अतिया--इलाही की एक मिसाल हिकमत--ख़ुदावंदी है। इस कायनात में हिकमत--ख़ुदावंदी (divine wisdom) के बेशुमारआइटमहैं। अगर कोई इंसान सच्चे दिल से इसका तालिब बने कि उसे हिकमत--ख़ुदावंदी का एक ऐसा आइटम दे दिया जाए, जो किसी और को न मिला हो तो यक़ीनन अल्लाह इस पर क़ादिर है। उसने जिस तरह हुक्म (साम्राज्य) की एक सूरत सुलेमान बिन-दाऊद को दी, जो न उनसे पहले किसी को मिली, न उनके बाद। इसी तरह अल्लाह इस पर क़ादिर है कि वह किसी तालिब को हिकमत--ख़ुदावंदी का एक ऐसा आइटम दे दे, जो न इससे पहले किसी को मिला हो, न इसके बाद किसी को मिले और उस अतिया के बावजूद अल्लाह के ख़ज़ाना--हिकमत में कोई कमी वाक़ेअ न हो।

इस्लामी जिहाद का सबसे बड़ा मैदान तदब्बुर है यानी फ़िक्री जिहाद (intellectual jihad), फ़िक्री जिहाद से बड़ा कोई जिहाद नहीं। इसी हक़ीक़त को इब्ने-अब्बास और अबू दरदा ने इन अल्फ़ाज़ में बयान किया है

تَفَکُّرُ سَاعَةٍ خَیْرٌ مِنْ قِیَامِ لَیْلَةٍ

कुछ पल के लिए तफ़क्कुर (contemplation) करना रात में तहज्जुद की नमाज़ से बेहतर है।

                              (हिलयातुल औलिया, V.1, p.208)

फ़िक्री जिहाद सबसे बड़ा जिहाद इसलिए है कि वह मअरिफ़त और दावत से जुड़ा हुआ है। फ़िक्री जिहाद की मिसाल सहाबी--रसूल अबू ज़र की है। उनके मुतअल्लिक़ रिवायत में आया है कि वह रात-दिन सोचते रहते थे (हिलयातुल औलिया, V.1, p.164)। यह फ़िक्री जिहाद बिलाशुबह सबसे बड़ा जिहाद है। इसका सबब यह है कि फ़िक्री जिहाद का रिश्ता मअरिफ़त और दावत इलल्लाह से जुड़ा हुआ है। फ़िक्री जिहाद के ज़रिये जब किसी शख़्स का ज़ेहनी इर्तिक़ा (intellectual development) होता है तो वह इस क़ाबिल हो जाता है कि आयातुल्लाह (Signs of God) और अला-उल्लाह (Wonders of Nature) को ज़्यादा-से-ज़्यादा दरयाफ़्त करे और इस तरह ख़ालिक़ के बारे में अपनी मअरिफ़त को बेपनाह हद तक बढ़ाता चला जाए। इस तरह जो शख़्स फ़िक्री जिहाद करे, वह अपने दाइयाना सलाहियत में बहुत इज़ाफ़ा करेगा। उसका फ़िक्री मेयार (intellectual level) बहुत बढ़ जाएगा। वह इस क़ाबिल हो जाएगा कि दावत इलल्लाह का काम आलातरीन सतह पर अंजाम दे सके।

फ़िक्री जिहाद का फ़ायदा दुनिया से आख़िरत तक चला गया है। इसकी एक मिसाल क़ुरआन की पहली आयत है— 

الْحَمْدُ لِلَّہِ رَبِّ الْعَالَمِینَ

यह पहली आयत मोमिन के उस दर्जा--मअरिफ़त को बताती है, जो एक मोमिन फ़िक्री जिहाद के ज़रिये दुनिया की ज़िंदगी में हासिल करता है। इसी तरह क़ुरआन में बताया गया है कि अहल--जन्नत जब जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे, तो जन्नत में उनके आख़िरी क़ौल को इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है

وَآخِرُ دَعْوَاہُمْ أَنِ الْحَمْدُ لِلَّہِ رَبِّ الْعَالَمِینَ

और उनकी आख़िरी बात यह होगी कि सारी तारीफ़ अल्लाह के लिए है, जो रब है सारे जहान का।”     (10:10)

इसका मतलब यह है कि मोमिन मौजूदा दुनिया में फ़िक्री जिहाद इसलिए करता है कि वह आलातरीन सतह पर ज़ेहनी इर्तिक़ा का दर्जा हासिल करे। क़ुरआन में जन्नत को दार-उल-मुत्तक़ीन (16:30) कहा गया है। इंसानी ज़बान में इसे इस तरह कहा जा सकता है कि जन्नत ऐसे इंसानों का मक़ाम है, जो मजलिस--ख़ुदावंदी में कलाम करने के क़ाबिल हो सकें। दुनिया में फ़िक्री जिहाद का असल मक़सद यही है कि जब आख़िरत की दुनिया में पहुँचे तो वहाँ वह ख़ुदावंदी सतह पर कलाम करने के क़ाबिल हो चुका हो।

इस्लाम में जिहाद का मतलब क़िताल (जंग) नहीं है, बल्कि पुरअमन जद्दोजहद है। इस जद्दोजहद का निशाना किसी दूसरे की गर्दन काटना नहीं होता, बल्कि ख़ुद अपने आपको अल्लाह के रास्ते में  मशक़्क़त के मराहिल से गुज़ारते हुए साबित क़दम रहना। मशक़्क़त के ये मराहिल आदमी के अंदर एक नफ़्सियाती हलचल पैदा करते हैं। आदमी दर्द व बेचैनी के लम्हात से गुज़रते हुए अल्लाह को पुकारता है।

यह पुकार सादा तौर पर कुछ अल्फ़ाज़ को ज़बान से दोहरा लेना नहीं है, बल्कि फ़िक्र के मराहिल हैं यानी जब आदमी इस क़िस्म के लम्हात से गुज़रता है तो उसकी सोच में गहराई पैदा हो जाती है। उसकी तख़्लीक़ियत में इज़ाफ़ा हो जाता है। उसके अंदर गहरी फ़िक्र (deep thinking) आ जाती है। वह विज़्डम (wisdom) की उस आला सतह पर आ जाता है, जहाँ अल्लाह से उसका गहरा ताल्लुक़ क़ायम हो जाता है। वह अल्लाह का हो जाता है और अल्लाह उसका।

जन्नत की  सरगर्मियाँ

जन्नत के बारे में क़ुरआन में मुख़्तलिफ़ बयानात आए हैं। एक बयान यह है

إِنَّ الَّذِینَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ کَانَتْ لَہُمْ جَنَّاتُ الْفِرْدَوْسِ نُزُلًا ۔ خَالِدِینَ فِیہَا لَا یَبْغُونَ عَنْہَا حِوَلًا۔ قُلْ لَوْ کَانَ الْبَحْرُ مِدَادًا لِکَلِمَاتِ رَبِّی لَنَفِدَ الْبَحْرُ قَبْلَ أَنْ تَنْفَدَ کَلِمَاتُ رَبِّی وَلَوْ جِئْنَا بِمِثْلِہِ مَدَدًا

बेशक जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किया, उनके लिए फ़िरदौस के बाग़ों की मेहमानी है। उसमें वे हमेशा रहेंगे। वे वहाँ से कभी निकलना नहीं चाहेंगे। कहो कि अगर समंदर मेरे रब की निशानियों को लिखने के लिए रोशनाई हो जाए तो समंदर ख़त्म हो जाएगा, इससे पहले कि मेरे रब की बातें ख़त्म हों, अगरचे हम इसके साथ इसी के मानिंद और समंदर मिला दें।”                                                     (18:107-109)

यहाँ क़ुरआन में बताया गया है कि जन्नत की ज़िंदगी इतनी ख़ुशगवार होगी कि वे कभी उससे निकलना नहीं चाहेंगे। इसके बाद अगली आयत यह है कि अल्लाह के कलिमात इतने ज़्यादा हैं कि कितना ही ज़्यादा उन्हें लिखा जाए, वे कभी ख़त्म नहीं होंगे।

इससे मालूम होता है कि जन्नत में अहले-जन्नत का एक मशग़ला यह होगा कि वे कलिमात--अल्लाह का मुताआला करें, वे कलिमात--अल्लाह को दरयाफ़्त करें और फिर कलिमात--अल्लाह को क़लमबंद करें। इससे अंदाज़ा होता है कि जन्नत में अहल--जन्नत की मशग़ूलियत इसी क़िस्म की होगी, जो मौजूदा दुनिया में साइंसदानों की होती है। मशहूर ब्रिटिश साइंसदाँ न्यूटन (1643-1727) से उसके इल्म के बारे में पूछा गया। उसने कहा कि जो हम जानते हैं, वह एक क़तरा है और जो कुछ हम नहीं जानते, वह एक समंदर है।

What we know is a drop, what we dont know is an ocean.

यही तजुर्बा अहल--जन्नत के साथ जन्नत में बहुत ज़्यादा इज़ाफ़े के साथ होगा।

रूहानी तरक़्क़ी

रूहानी तरक़्क़ी क्या है? रूहानी तरक़्क़ी अपनी दाख़िली शख़्सियत में रब्बानी बेदारी (spiritual awareness) लाने का दूसरा नाम है। माद्दी ख़ुराक (material food) इंसान के जिस्मानी वजूद को सेहतमंद बनाती है। इसी तरह इंसान का रूहानी वजूद उन लतीफ़ तजुर्बात के ज़रिये सेहतमंद बनता है, जिन्हें क़ुरआन में रिज़्क--रब कहा गया है।

16 जुलाई, 2004 का वाक़या है। उस दिन दिल्ली में सख़्त गर्मी थी। दोपहर बाद, देर तक के लिए बिजली चली गई। छत का पंखा बंद हो गया। मैं अपने कमरे में सख़्त गर्मी की हालत में बैठा हुआ था। देर तक मैं इसी हालत में रहा, यहाँ तक कि बिजली आ गई और पंखा चलने लगा।

यह एक अचानक तजुर्बे का लम्हा था। पंखा चलते ही जिस्म को ठंडक मिलने लगी। ऐसा महसूस हुआ, जैसे अचानक मुसीबत का दौर ख़त्म हो गया और अचानक राहत का दूसरा दौर आ गया। उस वक़्त मुझे पैग़ंबर--इस्लाम की वे हदीसें याद आईं, जिनमें बताया गया है कि दुनिया मोमिन के लिए मुसीबत की जगह है। जब मोमिन की मौत आएगी तो अचानक वह अपने आपको जन्नत के बाग़ों में पाएगा। दुनियावी ज़िंदगी का पुर-मुसीबत दौर अचानक ख़त्म हो जाएगा और ठीक उसी वक़्त पुर-राहत ज़िंदगी का दौर शुरू हो जाएगा।

जब यह तजुर्बा गुज़रा तो मेरी फ़ितरत में छुपे हुए रब्बानी अहसासात जाग उठे। माद्दी वाक़या रूहानी वाक़ये में तब्दील हो गया। मेरे दिल ने कहा कि काश, ख़ुदा मेरे साथ ऐसा ही मामला फ़रमाए। जब मेरे लिए दुनिया से रुख़्सत होने का वक़्त आए तो वह एक ऐसा लम्हा हो, जो अचानक दौर--मुसीबत से दौर--राहत में दाख़िले के हम-मायना हो जाए।

रूहानियत दरअसल एक ज़ेहनी सफ़र है एक ऐसा सफ़र, जो आदमी को दुनियावी ज़िंदगी से ऊपर उठाकर सच्चाई तक पहुँचा दे। यह सफ़र सोच की सतह पर होता है। दूसरे लोग बज़ाहिर इस सफ़र को नहीं देखते, लेकिन ख़ुद मुसाफ़िर इंतिहाई गहराई के साथ इसे महसूस करता है। रूहानियत इंसान को इंसान बनाती है। जिस आदमी की ज़िंदगी रूहानियत से ख़ाली हो, उसमें और हैवान में कोई फ़र्क़ नहीं।

जन्नत का समाज

जन्नत के पड़ोसी कैसे होंगेइसका ज़िक्र क़ुरआन में एक आयत में किया गया है। इस आयत का तर्जुमा यह है

जो अल्लाह और रसूल की इताअत करेगा, वह उन लोगों के साथ होगा जिन पर अल्लाह ने इनाम किया यानी पैगंबर और सिद्दीक़ और शोहदा और सालेह। कैसा अच्छा है उनका साथ!”        (4:69)

जन्नत क्या है? जन्नत वह मेयारी दुनिया है, जहाँ पूरी तारीख़ के चुने हुए अफ़राद आबाद किए जाएँगे। उनकी एक सिफ़त यह होगी कि उनसे उनके पड़ोसियों को हुस्न--रिफ़ाक़त का तजुर्बा होगा। वे हर ऐतबार से अपने साथियों के लिए बेहतरीन पड़ोसी साबित होंगे। ऐसे लोग जिनके साथ रहना हर ऐतबार से ख़ुशगवार तजुर्बा साबित हो।

ऐसो पड़ोसी कौन लोग हैं? वे, जो अपने पड़ोसियों के लिए क़ाबिले--पेशिनगोई किरदार (predictable character) के हामिल हों, जिनसे दूसरों को किसी क़िस्म के परेशानी (nuisance) का तजुर्बा न हो, जिनके साथ बैठना, जिनके साथ बातचीत करना एक ख़ुशगवार तजुर्बे की मानिंद हो, जिनके पड़ोसी उनसे कभी बेकार और गुनाह की बात (अल-वाक़िया, 56:25) न सुने। ऐसे लोग जिनके साथ कुछ लम्हा गुज़ारना पुर-बहार चमनिस्तान के माहौल में ज़िंदगी गुज़ारने के हम-मायना  हो।

इस बात को एक लफ़्ज़ में इस तरह बयान किया जा सकता है कि एक इंसान अपने पड़ोसी के लिए क़ाबिल--पेशिनगोई किरदार का हामिल साबित हो। ऐसा न हो कि उसके पड़ोसी ने अच्छी उम्मीदों की बुनियाद पर उसके बारे में कोई एक राय क़ायम की हो और अमलन वह उसके बजाय दूसरे किरदार का आदमी साबित हो। हर इंसान अपने पड़ोसी के लिए इसी तरह अच्छा इंसान साबित हो, जिस तरह पेशगी तौर पर उसके बारे में राय क़ायम की गई है। एक पड़ोसी को दूसरे पड़ोसी से यह कहना न पड़े कि वह उससे किस क़िस्म के साथी की उम्मीद रखता है। वह अपने पड़ोस में किस क़िस्म के इंसान को देखना चाहता है। दूसरा आदमी खुद ही इस बात को जाने और ख़ुद ही इसके मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारे।

हुस्न--रिफ़ाक़त की दुनिया

क़ुरआन में जन्नत के मुआशरे का नक़्शा इन अल्फ़ाज़ में
बताया गया है

وَمَنْ یُطِعِ اللَّہَ وَالرَّسُولَ فَأُولَئِکَ مَعَ الَّذِینَ أَنْعَمَ اللَّہُ عَلَیْہِمْ مِنَ النَّبِیِّینَ وَالصِّدِّیقِینَ وَالشُّہَدَاءِ وَالصَّالِحِینَ وَحَسُنَ أُولَئِکَ رَفِیقًا

 “और जो अल्लाह और रसूल की इताअत करेगा, वह उन लोगों के साथ होगा जिन पर अल्लाह ने इनाम किया यानी पैग़ंबर और सिद्दीक़ और शोहदा और सालेह। कैसा अच्छा है उनका साथ!”            (4:69)

Excellant are they as companions!

जन्नत के माहौल को बताने के लिए ये अल्फ़ाज़ बहुत बा-मायनी हैं कि जन्नत का मुआशरा हुस्न--रिफ़ाक़त का मुआशरा होगा। बेहतरीन साथी (excellent companion) का लफ़्ज़ बहुत जामेअ मायने में है।

इससे मुराद ऐसे लोग हैं जिनके अंदर क़ाबिल--पेशनगोई किरदार (predictable character) हो। जो अपने साथी के लिए मुकम्मल मायनों में बे-मसला (no-problem person) इंसान बने हुए हों। जो एक दूसरे के लिए हमेशा मददगार बने रहें। जिनके अंदर फ़ायदा पहुँचाने का किरदार पाया जाता हो। जो अपने समाज में देने वाले इंसान (giver person) बनकर रहें, न कि लेने वाले इंसान (taker person) बनकर ज़िंदगी गुज़ारें। जिनके अंदर कामिल मायनों में एक-दूसरे के लिए ख़ैरख़्वाही का मिज़ाज पाया जाता हो। जो दोहरे किरदार (double standard) की सिफ़त से आख़िरी हद तक ख़ाली हों।

हुस्न--रिफ़ाक़त का मेयार सिर्फ़ आख़िरत के लिए नहीं है। ऐन यही किरदार मौजूदा दुनिया में भी मतलूब है। हक़ीक़त यह है कि जो अफ़राद दुनिया की ज़िंदगी में इस मेयार पर पूरे उतरें, वही आख़िरत के जन्नती समाज के लिए चुने जाएँगे। आख़िरत में हुस्न--रिफ़ाक़त का समाज दुनिया के चुने हुए  अफ़राद का मजमूआ होगा, जिसे क़ुरआन में अह्सनुल-अमल (best in conduct) अफ़राद का मजमूआ (67:2) कहा गया है। जन्नत एक आला क़िस्म की इज्तिमाई ज़िंदगी होगी, न कि सिर्फ़ इनफ़िरादी ज़िंदगी।

अहल--जन्नत

जन्नत रब्बुल आलमीन का पड़ोस है (66:11)। जन्नत उन लोगों के लिए है, जो दुनिया में  ख़ुदावंद--रब्बुल आलमीन की याद में जीने वाले हों, वही लोग अब्दी जन्नत में बसाए जाएँगे, जहाँ उन्हें ख़ुदावंद--रब्बुल आलमीन की क़ुरबत हासिल होगी। जो लोग मनफ़ी सोच (negative thinking) में जीने वाले हों, वे दुनिया में भी ख़ुदावंद--रब्बुल आलमीन की क़ुरबत से महरूम रहेंगे और आख़िरत में भी।

मौजूदा दुनिया तरबियतगाह है और आख़िरत की दुनिया तरबियतयाफ़्ता लोगों का मुक़ाम। जन्नत में सिर्फ़ चुने हुए अफ़राद रिहाइश का दर्जा पाएँगे। वे लोग, जो दुनिया की ज़िंदगी में अपने आपको इस क़ाबिल साबित करें कि वे मुनज़्ज़म (disciplined) ज़िंदगी गुज़ारना जानते हैं, जिनके अंदर क़ाबिल--पेशिनगोई किरदार मौजूद है। जन्नत में उन लोगों को दाख़िला मिलेगा, जो अपने अमल से यह साबित करें कि उनके अंदर तख़्लीक़ी (creative) सलाहियत मौजूद है, जो यह साबित करें कि वे आज़ादी के बावजूद ज़िम्मेदाराना ज़िंदगी गुज़ारने की सलाहियत रखते हैं। जन्नत उन लोगों के लिए है, जो पूरे मायनों में बा-शऊर हों, जो पूरे मायनों में बे-मसला इंसान हों, जो अपने अंदर सेल्फ कंट्रोल (self-control) की सलाहियत रखते हों, आला अख़्लाक़ के हामिल हों वग़ैरह-वग़ैरह।

इसी तरह जन्नत के बारे में क़ुरआन में आया है

حَسُنَ أُولَئِکَ رَفِیقًا

              “कैसी अच्छी है उनकी रिफ़ाक़त!”          (4:69)

इससे मालूम हुआ कि जन्नत हुस्न--रिफ़ाक़त (excellent companionship) की दुनिया है। दुनिया में इसी का इम्तिहान हो रहा है। यहाँ यह देखा जा रहा है कि वह कौन शख़्स है, जो इस बात का सबूत देता है कि इज्तिमाई ज़िंदगी में उसके अंदरसेल्फ डिसिप्लीनकी सिफ़त आला दर्जे में पाई जाती है, जो किसी के दबाव के बग़ैर दूसरों के लिए बेहतरीन हमसाया बनकर रहने वाला है। जिस आदमी के अंदर हुस्न--रिफ़ाक़त की सिफ़त हो, जो किसी दबाव के बग़ैर सेल्फ डिसिप्लीन के साथ हर हाल में रह सकता है, ऐसे ही लोग हैं, जो जन्नत में दाख़िले के लिए मुंतख़ब किए जाएँगे।

इसी तरह क़ुरआन में बताया गया है कि अहल--जन्नत के लिए जन्नत का रिज़्क़ एक मालूम रिज़्क़ होगा यानी जन्नत उनके लिए एक ऐसी चीज़ होगी, जिसकी दरयाफ़्त उन्हें दुनिया में हो चुकी थी । इस सिलसिले में क़ुरआन के अल्फ़ाज़ यह हैं

وَیُدْخِلُہُمُ الْجَنَّةَ عَرَّفَہَا لَہُمْ

और उन्हें जन्नत में दाख़िल करेगा, जिसकी उसने उन्हें पहचान करा दी है।”  (47:6)

गोया कि मौजूदा दुनिया एक ऐसी दुनिया है, जो जन्नत के मुतशाबह दुनिया (similar world) की हैसियत रखती है, जैसा कि क़ुरआन में एक दूसरे मक़ाम पर ये अल्फ़ाज़ आए हैं

کُلَّمَا رُزِقُوا مِنْہَا مِنْ ثَمَرَةٍ رِزْقًا قَالُوا ہَذَا الَّذِی رُزِقْنَا مِنْ قَبْلُ وَأُتُوا بِہِ مُتَشَابِہًا

 “जब भी उन्हें उन बाग़ों में से कोई फल खाने को मिलेगा तो वे कहेंगे कि यह वही है, जो इससे पहले हमें दिया गया था और मिलेगा उन्हें एक-दूसरे से मिलता-जुलता।” 

दूसरी तरफ़ हदीस में आया है कि रसूलुल्लाह स० ने कहा

حُجِبَتِ الجَنَّةُ بِالْمَکَارِہِ

जन्नत को मक्कारा से ढक दिया गया है
                           (
सहीह अल-बुख़ारी, हदीस नं० 6487)

मक्कारा का मतलब नापसंदीदा है। इस पर ग़ौर करने से मालूम होता है कि जन्नत एक ऐसी चीज़ है, जिसका तआरुफ़ी मॉडल इसी दुनिया में मौजूद है, लेकिन वह मक्कारा से ढका हुआ है। मोमिन का काम यह है कि वह अपने आपको ज़हनी ऐतबार से इतना ज़्यादा तरक़्क़ीयाफ़्ता बनाए कि वह मक्कारा के पर्दे को हटाकर पेशगी तौर पर जन्नत को दरयाफ़्त कर सके।

यह सलाहियत किसी फ़र्द के अंदर कैसे पैदा होती है? वह इस तरह पैदा होती है कि आदमी के अंदर मौत--हयात के मंसूबे पर गहरा यक़ीन हो, वह गहरे यक़ीन के साथ यह जाने कि मौजूदा दुनिया में हर लम्हा फ़रिश्तों के ज़रीये उसका रिकॉर्ड तैयार हो रहा है, जो मर्द या औरत जन्नती अख़्लाक़ियात के मेयार पर पूरे उतरें, सिर्फ़ वे जन्नत में दाख़िला पाएँगे और जो लोग इस मेयार पर पूरे न उतरें, वे कायनात के कूड़ेख़ाने में फेंक दिए जाएँगे, जहाँ वे अब्दी तौर पर इस हसरत में तड़पते रहें कि उन्हें एक ही मौक़ा मिला था, इस मौक़े को उन्होंने अपनी नादानी से खो दिया।

ग़म फ़्री जन्नत

मग़फ़िरत के बाद अहल--जन्नत जब जन्नत की अब्दी दुनिया में दाख़िला पाएँगे, तो उनकी ज़बान से यह अल्फ़ाज़ निकलेंगे

الْحَمْدُ لِلَّہِ الَّذِی أَذْہَبَ عَنَّا الْحَزَنَ إِنَّ رَبَّنَا لَغَفُورٌ شَکُورٌ

 “हम्द है अल्लाह की, जिसने हमसे ग़म को दूर कर दिया। बेशक हमारा रब माफ़ करने वाला, क़द्र करने वाला है।

                                                                    (35:34)

मौजूदा दुनिया में हर काम असबाब के परदे में होता है (Cause and Efect)। यह दुनिया बे-रहम माद्दी क़वानीन की बुनियाद पर चल रही है। इसके मुक़ाबले में इंसान एक हस्सास (sensitive) मख़्लूक़ है। इस बिना पर इस दुनिया में इंसान को बार-बार किसी--किसी तकलीफ़ का तजुर्बा होता है। इस तरह के तजुर्बात वाली दुनिया से गुज़रकर जब अहल--जन्नत एक नई कामिल दुनिया में पहुँचेंगे, जो जन्नत की दुनिया होगी, तो वे पाएँगे कि माद्दी दुनिया के बरअक्स जन्नत की दुनिया हर ऐतबार से एक बे-ग़म दुनिया (suffering-free world) है, तो उन्हें एक अजीब क़िस्म की ख़ुशी हासिल होगी। पिछले दौर--हयात के बरअक्स जन्नत की ग़म फ़्री दुनिया उन्हें इतनी ज़्यादा पुर-मसर्रत मालूम होगी कि वे महसूस करेंगे कि इस बे-पाया ख़ुशी के इज़्हार के लिए उनके पास अल्फ़ाज़ नहीं हैं।

हक़ीक़त यह है कि इंसान ख़ुशी को तलाश करने वाली एक मख़्लूक़ —‘pleasure-seeking animal’ है। वह सारी उम्र एक ऐसी ज़िंदगी की तलाश में रहता है, जहाँ उसे अब्दी मायनों में ख़ुशियों से भरी ज़िंदगी हासिल हो जाए। ख़ुशी की तलाश इंसान का सबसे बड़ा मतलूब है, मगर तजुर्बा बताता है कि हर क़िस्म की तलाश के बावजूद इंसान को इस दुनिया में कभी सच्ची ख़ुशी हासिल नहीं होती। हत्ता कि उन लोगों को भी नहीं, जिनके पास दौलत और इक़्तिदार के ख़ज़ाने मौजूद हैं। ऐसी हालत में जब अहल--जन्नत को एक ऐसी दुनिया मिलेगी, जो हर ऐतबार से सच्ची मसर्रत की दुनिया होगी, तो उन्हें ताज्जुबख़ेज़ ख़ुशी (pleasant surprise) का आला तजुर्बा होगा। उस वक़्त वे चाहेंगे कि शुक्र के गहरे एहसास के तहत सज्दे में गिर पड़ें और कभी सिर न उठाएँ। जन्नत की ख़ुशी एक ना-क़ाबिल--बयान ख़ुशी है, जो इंसानी ज़बान में बयान नहीं की जा सकती।

क़ुरआन में जन्नत की नेअमतों का मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ में बार-बार ज़िक्र आया है। एक मुक़ाम पर ये अल्फ़ाज़ हैं— 

فِی جَنَّاتِ النَّعِیمِ...لَا مَقْطُوعَةٍ وَلَا مَمْنُوعَةٍ

नेअमत के बाग़ों में... कभी न ख़त्म होने वाली और बेरोक-टोक मिलने वाली।”        (56:12, 33)   

अल्फ़ाज़ बेहद अहम हैं। इंसान की फ़ितरत का मुतआला बताता है कि इंसान एक ऐसी मख़्लूक़ है, जो आख़िरी हद तक लुत्फ़-पसंद (pleasure-seeking) मख़्लूक़ की हैसियत रखता है। मज़ीद यह कि इंसान ख़त्म न होने वाली ख़ुशी का तालिब है। बहुत ज़्यादा तलाश करने के बावजूद भी ऐसी न ख़त्म होने वाली नेअमत किसी को हासिल नहीं होती। ऐसी नेअमतों वाले बाग़ात किसी इंसान को सिर्फ़ जन्नत में मिल सकते हैं। इस जन्नत की मज़ीद सिफ़त यह होगी कि वह इंसान को हमेशा के लिए हासिल रहेगी।

इस बात को एक हदीस--रसूल में इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है— 

یُقَالُ لِأَہْلِ الْجَنَّةِ:إِنَّ لَکُمْ أَنْ تَصِحُّوا فَلَا تَسْقَمُوا أَبَدًا ،وَإِنَّ لَکُمْ أَنْ تَعِیشُوا فَلَا تَمُوتُوا أَبَدًا،وَإِنَّ لَکُمْ أَنْ تَنْعَمُوا فَلَا تَبْأَسُوا أَبَدًا،وَإِنَّ لَکُمْ أَنْ تَشِبُّوا فَلَا تَہْرَمُوا أَبَدًا

अहल--जन्नत से कहा जाएगा—“तुम सेहतमंद रहो कभी बीमार नहीं पड़ोगे, तुम ज़िंदा रहो तुम पर कभी मौत नहीं आएगी, तुम आसाइश की ज़िंदगी गुज़ारो कभी कोई परेशानी तुम्हें पेश नहीं आएगी, तुम जवान रहो कभी तुम बूढ़े नहीं होगे।      

                                  (सहीह मुस्लिम, हदीस नं० 2837)

ऐसी दुनिया, जो अब्दी तौर पर ग़म से ख़ाली हो, वह बिलाशुबह इंसान की सबसे बड़ी तमन्ना है। जन्नत इंसानी फ़ितरत की तलब है। जन्नत इंसानी ख़्वाबों की तकमील है। जन्नत इंसान की आख़िरी आरज़ू है। जन्नत वह मुक़ाम है, जहाँ पहुँचकर इंसान की तमाम ख़्वाहिशें पूरी हो जाएँगी, यहाँ तक कि उसकी कोई आरज़ू बाक़ी नहीं रहेगी। जन्नत रब्बुल आलमीन का क़ुर्ब है, जिससे बड़ी कोई जगह इंसान के लिए नहीं हो सकती।

जन्नत की ज़िंदगी

क़ुरआन में बताया गया है कि अहल--जन्नत जब जन्नत में पहुँचेंगे, तो वे जन्नती ज़िंदगी के बारे में कहेंगे

وَقَالُوا الْحَمْدُ لِلَّہِ الَّذِی أَذْہَبَ عَنَّا الْحَزَنَ إِنَّ رَبَّنَا لَغَفُورٌ شَکُورٌ

शुक्र है अल्लाह का, जिसने हमसे हुज़्न को दूर कर दिया। बेशक हमारा रब माफ़ करने वाला, क़द्र करने वाला है।

                                                                    (35:34)  

इस आयत मेंहुज़्नका लफ़्ज़ बहुत बा-मायनी है। हुज़्न का मतलब हैतकलीफ़, ग़म ।

यह एक हक़ीक़त है कि इंसान के लिए सबसे ज़्यादा ना-क़ाबिल--बर्दाश्त चीज़ हुज़्न है। हुज़्न को दूर करने का मतलब यह है कि उस चीज़ को दूर करना, जो इंसान का सबसे ज़्यादा ना-क़ाबिल--बर्दाश्त मुआमला होता है। इंसान एक कमज़ोर मख़्लूक़ है। इंसान सब कुछ बर्दाश्त कर लेता है, लेकिन हुज़्न उससे बर्दाश्त नहीं होती। इंसान की निस्बत से यह लफ़्ज़ एक बेहद नफ़्सियाती लफ़्ज़ है। इंसान अगर सोचे तो जन्नत में हुज़्न न होना उसके लिए इंतिहाई पुरकशिश लफ़्ज़ है, क्योंकि इंसान ऐसी जगह के लिए सब कुछ करने को राज़ी हो जाएगा, जहाँ हुज़्न न हो। अगर उसे यक़ीन हो जाए कि जन्नत हुज़्न से ख़ाली जगह है, तो वह जन्नत को पाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हो जाएगा। जन्नत का तसव्वुर आदमी को इसी यक़ीन पर जीने वाला बनाता है।

जन्नत में हुज़्न न होने का मतलब यह है कि जिस्मानी तकलीफ़ की हर क़िस्म से जन्नत महफ़ूज़ होगी। आदमी अगर जिस्मानी तकलीफ़ से बचा हुआ हो, तो उसे नींद के वक़्त अच्छी नींद आएगी। वह खाने के वक़्त सुकून से खाना खाएगा। उठना, बैठना, चलना-फिरना उसके लिए आसान हो जाएगा। उसके लिए ज़िंदगी एक पुर-सुकून ज़िंदगी बन जाएगी। उसे दिन का सुकून भी हासिल हो जाएगा और रात का सुकून भी। जो काम भी वह करेगा, संतुलित अंदाज़ में करेगा। उसके लिए यह मुमकिन हो जाएगा कि वह अपना हर काम कामिल यकसूई के साथ अंजाम दे। ज़िंदगी उसी के लिए ज़िंदगी है, जो हुज़्न की कैफ़ियत से बचा हुआ हो। जो आदमी हुज़्न की कैफ़ियत में मुब्तला हो, वह बज़ाहिर ज़िंदा होगा, लेकिन उसकी ज़िंदगी चैन से ख़ाली होगी।

तालिब--जन्नत

एक हदीस--रसूल में तालिब--जन्नत के लिए ये अल्फ़ाज़ आए हैं

مَا رَأَیْتُ... مِثْل الجَنَّةِ نَامَ طَالِبُہَا

मैंने नहीं देखी, जन्नत जैसी चीज़, जिसका तालिब सो रहा है। (सुनन अल-तिरमिज़ी, हदीस नं० 2601)

इससे मालूम हुआ कि जन्नत उसके लिए है, जो सरापा तालिब--जन्नत बन जाए। जो जन्नत की हक़ीक़त को इतनी ज़्यादा गहराई के साथ दरयाफ़्त करे कि जन्नत उसका इंतज़ार बन जाए। वह जन्नत की याद में सोए और जन्नत की याद में जागे। जिसका एहसास यह बन जाए कि अल्लाह ने अगर उसे जन्नत न दी तो उसका हाल क्या होगा। अगर वह आख़िरत में जन्नत से महरूम हो जाए, तो उसका कितना ज़्यादा बुरा हाल हो जाएगा। उसके लिए ज़िंदगी कितनी बड़ी मुसीबत बन जाएगी।

जन्नत का तालिब वह है, जो जन्नत को देखे बग़ैर जन्नत को देखने लगे। जो जन्नत को पाने से पहले जन्नत का तालिब--हक़ीक़ी बन जाए। तालिब--जन्नत की तस्वीर क़ुरआन की एक आयत में इस तरह बयान की गई है

وَیُدْخِلُہُمُ الْجَنَّةَ عَرَّفَہَا لَہُمْ

और उन्हें जन्नत में दाख़िल करेगा, जिसकी उसने उन्हें पहचान करा दी है।”  (47:6)

इस आयत में जन्नत की मअरिफ़त को अल्लाह की तरफ़ मंसूब किया गया है, मगर वह मोमिन की सिफ़त है। मोमिन वह है, जो जन्नत को इस तरह दरयाफ़्त करे कि जन्नत उसका शौक़ बन जाए। इसका मतलब यह नहीं है कि जन्नत क्या है, उससे लोगों को पेशगी तौर पर आग़ाह कर दिया गया है, बल्कि इसका मतलब यह है कि साहिब--ईमान जन्नत के बारे में अपनी मअरिफ़त को इतना ज़्यादा बढ़ाता है कि जन्नत उसके लिए पेशगी तौर पर एक मालूम चीज़ बन जाती है।

हक़ीक़त यह है कि जन्नत एक ऐसा मतलूब है, जो अपनी नौइयत के ऐतबार से तालिब--जन्नत का जोड़ा (counterpart) है। वह फ़ितरी तौर पर इंसान का एक मालूम ठिकाना है। गोया कि जन्नत इंसान के लिए है और इंसान जन्नत के लिए, लेकिन जन्नत का शौक़ जन्नत के हुसूल के लिए काफ़ी नहीं, इसके लिए ज़रूरी है कि आदमी ज़रूरी तैयारी करे।

जन्नत की क़ाबिलियत

क़ुरआन की एक आयत यह है

جَزَاؤُہُمْ عِنْدَ رَبِّہِمْ جَنَّاتُ عَدْنٍ تَجْرِی مِنْ تَحْتِہَا الْأَنْہَارُ خَالِدِینَ فِیہَا أَبَدًا رَضِیَ اللَّہُ عَنْہُمْ وَرَضُوا عَنْہُ ذَلِکَ لِمَنْ خَشِیَ رَبَّہُ

उनका बदला उनके रब के पास हमेशा रहने वाले बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें जारी होंगी उनमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे राज़ी और वे अल्लाह से राज़ी। यह उस शख़्स के लिए है, जो अपने रब से डरे।”  (98:8)

इस सूरह में जिस दोतरफ़ा रज़ामंदी की बात कही गई है, उसका मतलब क्या है? इस आयत में अहल--जन्नत की कहानी इस तरह बयान की गई है कि यह वे लोग हैं, जो अल्लाह से राज़ी हो गए। बंदे का अल्लाह से राज़ी होने का मतलब यह है कि अल्लाह रब्बुल आलमीन के तख़्लीक़ी नक़्शे के मुताबिक़ बंदे को ज़िंदगी गुज़ारने का जो नमूना मिला था, बंदे ने दुनिया में उसके मुताबिक़ ज़िंदगी गुज़ारी। बंदा अल्लाह के तख़्लीक़ी नक़्शे पर दिल से राज़ी हुआ। उसके बाद अल्लाह भी इस पर राज़ी हो गया कि वह अपने वादे के मुताबिक़ ऐसे बंदे के लिए अपनी जन्नत के दरवाज़े खोल दे।

इंसान के लिए जन्नत कोई ख़रीदारी का मुआमला नहीं, बल्कि वह रज़ामंदी का मुआमला है। यह अल्लाह रब्बुल आलमीन की रहमत का मुआमला है कि वह इंसान के लिए जन्नत को रज़ामंदी का मुआमला क़रार देता है। अपनी असल हक़ीक़त के ऐतबार से जन्नत इनाम का मुआमला है, लेकिन इंसान का दर्जा बढ़ाने के लिए अल्लाह ने उसे रज़ामंदी का मुआमला क़रार दे दिया है। यही मतलब है इस दोतरफ़ा रज़ामंदी का।

जो बंदा अल्लाह के तख़्लीक़ी नक़्शे पर राज़ी हो जाए, वह कामिल रज़ामंदी के साथ ख़ुदा के बनाए हुए नक़्शा--हयात पर चलने लगेगा। यह तरीक़--हयात सिर्फ़ उन लोगों के लिए मुमकिन है, जो सिर्फ़ अल्लाह से डरने वाले हों। इस तरीक़--ज़िंदगी को इख़्तियार करने का मुहर्रिक सिर्फ़ खौफ़--ख़ुदा है। जो आदमी ख़ौफ़--ख़ुदा से ख़ाली हो, वह ऐसे तरीक़--ज़िंदगी को इख़्तियार नहीं करेगा। चुनाँचे ऐसे लोगों के लिए यही मुक़द्दर है कि उनके सफ़र की आख़िरी मंज़िल अब्दी जन्नत से महरूम हो।

जन्नत में दाख़िला

क़ुरआन में एक हक़ीक़त कुछ लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ दो जगह बयान हुई है। एक मुक़ाम पर ये अल्फ़ाज़ हैं

أَمْ حَسِبْتُمْ أَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا یَأْتِکُمْ مَثَلُ الَّذِینَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِکُمْ مَسَّتْہُمُ الْبَأْسَاءُ وَالضَّرَّاءُ وَزُلْزِلُوا حَتَّى یَقُولَ الرَّسُولُ وَالَّذِینَ آمَنُوا مَعَہُ مَتَى نَصْرُ اللَّہِ أَلَا إِنَّ نَصْرَ اللَّہِ قَرِیبٌ

क्या तुमने यह समझ रखा है कि तुम जन्नत में दाख़िल हो जाओगे, हालाँकि अभी तुम पर वे हालात गुज़रे ही नहीं, जो तुम्हारे अगलों पर गुज़रे थे? उन्हें सख़्ती और तकलीफ़ पहुँची और वे हिला मारे गए। यहाँ तक कि रसूल और उनके साथ ईमान लाने वाले पुकार उठे कि अल्लाह की मदद कब आएगी। याद रखो, अल्लाह की मदद क़रीब है।”                                                       (2:214)

दूसरी जगह इस हक़ीक़त को इन अल्फ़ाज़ में बयान किया
गया है

أَمْ حَسِبْتُمْ أَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا یَعْلَمِ اللَّہُ الَّذِینَ جَاہَدُوا مِنْکُمْ وَیَعْلَمَ الصَّابِرِینَ

क्या तुम ख़्याल करते हो कि तुम जन्नत में दाख़िल हो जाओगे, हालाँकि अभी अल्लाह ने तुममें से उन लोगों को जाना नहीं, जिन्होंने जिहाद किया और न उन्हें, जो साबित क़दम रहने वाले हैं।” (3:142)

इसी तरह क़ुरआन में दूसरे मुक़ाम पर यह बताया गया है कि जन्नत सिर्फ़ उन शख़्सियतों के लिए है, जिन्होंने अपना तज़्किया (purification) किया।                                    (20:76)

यहाँ यह सवाल है कि तज़्किये का ताल्लुक़ सख़्त हालात से क्यों है? क्या वजह है कि जब तक सख़्त हालात पेश न आएँ, आदमी का तज़्किया मुकम्मल नहीं होता। इसका सबब यह है कि तज़्किये के अमल में सबसे ज़्यादा अहम रोल डी-कंडीशनिंग का है। जैसा कि हदीस से साबित है कि हर आदमी के साथ यह पेश आता है कि उसके वालिदैन उसे अपने आबाई मज़हब पर पुख़्ता कर देते हैं (सही अल-बुख़ारी, हदीस नं० 1385)। तज़्किये का सबसे अहम अमल यह है कि वह इंसान की पुख़्ता कंडीशनिंग को तोड़े। इंसान, जो कि ईमान से पहले माहौल का प्रोडक्ट बना हुआ था, वह ईमान के असर से रब्बानी शऊर का प्रोडक्ट बन जाए। इसी का नाम तज़्किया है। तज़्किया दरअसल सेल्फ डी-कंडीशनिंग का दूसरा नाम है यानी अपनी मुतास्सिर शख़्सियत को ग़ैर-मुतास्सिर शख़्सियत बनाना। फ़ितरत पर पड़े हुए पर्दे को फाड़कर इंसान को दोबारा अपनी फ़ितरी हालत पर क़ायम करना। यह तज़्किया है और तज़्किया सख़्त हालात ही में मुकम्मल सूरत में अंजाम पाता है। सख़्त हालात के बग़ैर किसी शख़्स के अंदर डी-कंडीशनिंग का प्रोसेस जारी नहीं होता। सख़्त हालात इंसान को आख़िरी हद तक झिंझोड़ देते हैं। सख़्त हालात गोया किसी इंसान के लिएएप्पल शॅाककी मानिंद हैं। न्यूटन को एप्पल शॅाक के बग़ैर ज़मीन की क़ुव्वत--कशिश की डिस्कवरी नहीं हुई। इसी तरह मोमिन के लिए सख़्त हालात एप्पल शॅाक का दर्जा रखते हैं। इस तजुर्बे के बग़ैर कोई शख़्स कामिल मायनों में मुज़क्की शख़्सियत (purified personality) नहीं बनता।

अस्हाब--आराफ़

क़ुरआन में आख़िरत के एक गिरोह का ज़िक्र है, जिन्हें अस्हाब--अल-आराफ़ (7:46-49) कहा गया है। आराफ़अर्फ़की जमा है। इसका लफ़्ज़ी मतलब अरबी ज़बान में बुलंदी का होता है। आराफ़ वाले का मतलब है बुलंदियों वाले। ये कौन लोग हैं? इससे मुराद पैग़ंबरों और दाइयों का वह गिरोह है, जिन्होंने मुख़्तलिफ़ हालात में लोगों को हक़ का पैग़ाम दिया। क़यामत में जब लोगों का हिसाब होगा और हर एक को मालूम हो चुका होगा कि उसका अंजाम क्या होने वाला है और दाई--हक़ की बात, जो वह दुनिया में कहता था, उसकी सच्चाई आख़िरी तौर पर सही साबित हो चुकी होगी, उस वक़्त हर दाई अपनी क़ौम को ख़िताब करेगा।

ख़ुदा के हुक्म से आख़िरत में उनके लिए ख़ुसूसी स्टेज मुहैया किया जाएगा, जिस पर खड़े होकर पहले वे अपने मानने वालों को ख़िताब करेंगे। ये लोग अभी जन्नत में दाख़िल नहीं हुए होंगे, मगर वे उसके उम्मीदवार होंगे। उसके बाद उन दाइयान--हक़ का रुख़ दावत--हक़ झुठलाने वालों की तरफ़ किया जाएगा। वे उनकी बुरी हालत देखकर कमाल--अब्दियत की वजह से कह उठेंगे कि ख़ुदाया! हमें इन ज़ालिमों में शामिल न कर। वे गिरोह--मुनकिरीन के लीडरों को उनके चेहरे के तास्सुरात से पहचान लेंगे और उनसे कहेंगे कि तुम्हें अपने जिस जत्थे और अपने जिस साज़--सामान पर भरोसा था और जिसकी वजह से तुमने पैग़ाम--हक़ को झुठला दिया, वह आज तुम्हारे कुछ काम न आ सका।

वे अभी जन्नत में दाख़िल नहीं हुए होंगे, मगर वे उम्मीदवार होंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि दूसरे सालेहीन पहले जन्नत में चले जाएँगे और अस्हाब--आराफ़ बाद में जाएँगे। यह किसी को तर्जी देना या पीछे रखने की बात नहीं है, बल्कि आख़िरत के ऐतबार से लोगों के अंजाम की बात है। जो लोग दावत का काम करेंगे, उनका मुआमला सादा मुआमला नहीं होगा, बल्कि वह दुनिया के मफ़ादात से महरूमी की बुनियाद पर अंजाम पाएँगे । यह वे लोग होंगे, जो दावत या शहादत की क़ीमत अदा करके दावत और शहादत का काम अंजाम देंगे और फिर आख़िरत में इसका इनाम पाएँगे।

इंसान का अंजाम

इंसान को क़ुरआन मेंमुकर्रम मख़्लूक़’ (17:70) कहा गया है। इंसान पैदा होता है, फिर वह बचपन, नौजवानी, जवानी और बुढ़ापे के मराहिल से गुज़रता है। आख़िरकार वह मर जाता है। इस दुनिया में मौत हर आदमी का आख़िरी मुक़द्दर है। आदमी दुनिया की ज़िंदगी में बहुत कुछ हासिल करता है, मगर आख़िरी अंजाम हर एक का सिर्फ़ एक है। जैसा कि क़ुरआन में है

وَلَقَدْ جِئْتُمُونَا فُرَادَى كَمَا خَلَقْنَاكُمْ أَوَّلَ مَرَّةٍ وَتَرَكْتُمْ مَا خَوَّلْنَاكُمْ وَرَاءَ ظُهُورِكُمْ

तुम हमारे पास अकेले अकेले आ गए, जैसा कि हमने तुम्हें पहली मर्तबा पैदा किया था और जो कुछ अस्बाब हमने तुम्हें दिया था, वह सब कुछ तुम पीछे छोड़ आए।”          (6:94

अब सवाल यह है कि इंसान का अंजाम क्या है? मौत के बाद इंसान के साथ क्या पेश आता है?

जहाँ तक मैं समझता हूँ, इंसान को एक काम करना है। वह यह कि अपने ज़मीर (conscience) को बचाकर रखे। ज़मीर के बारे में क़ुरआन में आया है

फिर उसे समझ दी, उसकी बदी की और उसकी नेकी की ।
                                                                      (
91:8)

इसका मतलब यह है कि इंसान को हक़ीक़त का इल्म पैदाइशी तौर पर दिया गया है। हक़ीक़त का इल्म उसके अंदर गहराई के साथ मौजूद है। यह इतना ज़्यादा ताक़तवर अंदाज़ में है कि कोई इंसान इससे इनकार नहीं कर सकता, मगर इससे वही फ़ायदा उठा सकता है, जो अपने ज़मीर को हर हाल में ज़िंदा रखे। ऐसी हालत में इंसान के लिए करने का एक काम यह है कि वह अपने ज़मीर को मुर्दा न होने दे, ताकि वह अपने ज़मीर की तरफ़ रुजू करे।

अगर इंसान अपने ज़मीर को लेकर सोचेगा, तो वह कभी रास्ते से भटक नहीं सकता। ज़मीर उसके लिए ऐसा गाइड बन जाएगा, जो हर हाल में उसे मंज़िल तक पहुँचाए। इसका तरीक़ा यह है कि जब ज़मीर किसी बात पर टोके, तो वह फ़ौरन उसकी आवाज़ को सुने। जब तक आदमी ऐसा करेगा, उसका ज़मीर ज़िंदा रहेगा। इसके बरअक्स जब ऐसा किया जाए कि ज़मीर के टोकने की परवाह न की जाए, तो धीरे-धीरे ज़मीर बे-हिस हो जाएगा। इसी को कहते हैं ज़मीर का मुर्दा हो जाना।

पुर-उम्मीद आयात--अहादीस

इमाम सियूती (वफ़ात : 911 हि०) ने लिखा है कि क़ुरआन की पुर-उम्मीद आयतों की तादाद दस से कुछ ज़्यादा है (अल-इतक़ान फ़ी उलूम-उल-क़ुरआन, 4:149), उनमें से एक आयत यह है

قُلْ یَا عِبَادِیَ الَّذِینَ أَسْرَفُوا عَلَى أَنْفُسِہِمْ لَا تَقْنَطُوا مِنْ رَحْمَةِ اللَّہِ إِنَّ اللَّہَ یَغْفِرُ الذُّنُوبَ جَمِیعًا إِنَّہُ ہُوَ الْغَفُورُ الرَّحِیمُ

कहो कि ऐ मेरे बंदो, जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है, अल्लाह की रहमत से मायूस न हों। बेशक अल्लाह तमाम गुनाहों को माफ़ कर देता है वह बड़ा बख़्शने वाला, मेहरबान है। (39:53)

इसी तरह अहादीस में भी इस क़िस्म के पुर-उम्मीद क़ौल आए हैं। एक हदीस--रसूल इन अल्फ़ाज़ में आई है

مَّا خَلَقَ اللہُ الْخَلْقَ، کَتَبَ کِتَابًا، فَہُوَ عِنْدَہُ فَوْقَ الْعَرْشِ:إِنَّ رَحْمَتِی سَبَقَتْ غَضَبِی

रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमायाजब अल्लाह ने मख़्लूक़ को पैदा किया तो उसने एक किताब लिखी। यह किताब उसके पास अर्श के ऊपर है : बेशक मेरी रहमत मेरे ग़ज़ब से आगे है। एक और रिवायत में है : बेशक मेरी रहमत मेरे ग़ज़ब पर ग़ालिब है।”                                             
                  (
मुसनद अहमद, हदीस नं० 7528 और 8127)

क़ुरआन की मज़्कूरा आयत एक बेहद पुर-उम्मीद आयत है। इसी तरह हदीस भी एक बहुत पुर-उम्मीद हदीस है। दोनों में जो मुश्तरक (common) बात है, वह यह है कि इस उम्मीद की बुनियाद रहमत है। अल्लाह रब्बुल आलमीन की सिफ़ात में एक सिफ़त उसका रहीम--करीम होना है। वह अपने बंदों के साथ हमेशा रहमत का मुआमला फ़रमाता है। अल्लाह रब्बुल आलमीन की यह सिफ़त बंदे के लिए बिलाशुबह सबसे ज़्यादा पुर-उम्मीद सिफ़त है। अल्लाह रब्बुल आलमीन का रहीम--करीम होना उसके बंदों को यह मौक़ा देता है कि वे ऐसे अल्फ़ाज़ में अपने रब को पुकारें, जो अल्लाह की रहमत को इनवोक (invoke) करने वाले हों। अगर बंदा ऐसी दुआ करे तो वह गोयाइस्म--आज़मके साथ अपने रब को पुकारता है और जो आदमी इस्म--आज़म के साथ अपने रब को पुकारे, तो अल्लाह रब्बुल आलमीन उसकी पुकार को ज़रूर क़बूल फ़रमाता है।

उम्मीद का पैग़ाम

क़ुरआन की एक आयत इन अल्फ़ाज़ में आई है— 

قُلْ یَاعِبَادِیَ الَّذِینَ أَسْرَفُوا عَلَى أَنْفُسِہِمْ لَا تَقْنَطُوا مِنْ رَحْمَةِ اللَّہِ إِنَّ اللَّہَ یَغْفِرُ الذُّنُوبَ جَمِیعًا إِنَّہُ ہُوَ الْغَفُورُ الرَّحِیمُ

कहो कि ऐ मेरे बंदो! जिन्होंने अपनी जानों पर ज़्यादती की है, अल्लाह की रहमत से मायूस न हों। बेशक अल्लाह तमाम गुनाहों को माफ़ कर देता है। वह बड़ा बख़्शने वाला, मेहरबान है।            (39:53)

हक़ीक़त यह है कि इंसान को दुनिया में तरह-तरह के फ़ितनों के दरम्यान ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ती है। उसे हमेशा यह अंदेशा रहता है कि कहीं वह फ़ितनों का शिकार न हो जाए। चुनाँचे अक्सर सहाबा और बुज़ुर्गों ने इस हैसियत से क़ुरआन पर ग़ौर किया है। उनकी रायें तफ़्सीर की किताबों में आई हैं, उनमें से चंद यह हैं

وَقَالَ عَلِیُّ بْنُ أَبِی طَالِبٍ: مَا فِی الْقُرْآنِ آیَةٌ أَوْسَعُ مِنْ ہَذِہِ الْآیَةِ... وَقَالَ عَبْدُ اللَّہِ بْنُ عُمَرَ:وَہَذِہِ أَرْجَى آیَةٍ فِی الْقُرْآنِ فَرَدَّ عَلَیْہِمُ ابْنُ عَبَّاسٍ وَقَالَ أرجى آیة فی القرآن قول تَعَالَى:وَإِنَّ رَبَّکَ لَذُو مَغْفِرَةٍ لِلنَّاسِ عَلى ظُلْمِہِمْ

अली बिन अबी तालिब कहते हैं कि क़ुरआन में इस आयत से ज़्यादा वसीअ आयत कोई दूसरी नहीं है। अब्दुल्लाह इब्ने-उमर कहते हैं कि यह आयत सबसे ज़्यादा उम्मीद वाली आयत है। इब्ने-अब्बास ने जब यह सुना तो कहा कि इसके बजाय सबसे ज़्यादा उम्मीद वाली आयत यह है

وَإِنَّ رَبَّکَ لَذُو مَغْفِرَةٍ لِلنَّاسِ عَلى ظُلْمِہِم

यानी तुम्हारा रब लोगों के ज़ुल्म के बावजूद उन्हें माफ़ करने वाला है।        (क़ुरआन 13:6)  

                            (तफ़्सीर अल-क़ुरतुबी, V.15, p.269)

इस सिलसिले में एक और  हदीस इन अल्फ़ाज़ में आई है

لَمَّا قَضَى اللَّہُ الخَلْقَ کَتَبَ فِی کِتَابِہِ فَہُوَ عِنْدَہُ فَوْقَ العَرْشِ إِنَّ رَحْمَتِی غَلَبَتْ غَضَبِی

अल्लाह ने जब तख़्लीक़ का फ़ैसला किया तो उसने एक किताब अपने पास लिखी, यह उसके पास अर्श के ऊपर है : मेरी रहमत मेरे ग़ज़ब पर ग़ालिब है।

                           (सहीह अल-बुख़ारी, हदीस नं० 3194)

इस तरह की आयतें और हदीसें इंसान को हौसला देती हैं।

फ़ितना--आम

एक हदीस--रसूल इन अल्फ़ाज़ में आई है

سَتَکُونُ فِتَنٌ، القَاعِدُ فِیہَا خَیْرٌ مِنَ القَائِمِ، وَالقَائِمُ خَیْرٌ مِنَ المَاشِی، وَالمَاشِی فِیہَا خَیْرٌ مِنَ السَّاعِی، مَنْ تَشَرَّفَ لَہَا تَسْتَشْرِفْہُ، فَمَنْ وَجَدَ مَلْجَأً أَوْ مَعَاذًا، فَلْیَعُذْ بِہِ

अनक़रीब फ़ितने होंगे। इसमें बैठने वाला खड़े रहने वाले से बेहतर होगा और खड़ा रहने वाला चलने वाले से बेहतर होगा और चलने वाला कोशिश करने वाले से बेहतर होगा। जो उसकी तरफ़ झाँकेगा, वह उससे मुतास्सिर हो जाएगा। जो भी कोई पनागाह या बचने की जगह पाए, तो वह उसमें पनाह ले ले।”        

                              (सही अल बुख़ारी, हदीस नं० 7082)

इस हदीस में एक उमूमी फ़ितने का ज़िक्र है। इससे मुराद ग़ालिबन वह दौर है, जबकि टेक्नोलॉजी की दरयाफ़्त के नतीजे में मवाक़े (opportunities) बहुत ज़्यादा बढ़ जाएँगे। हर आदमी को दिखाई देगा कि वह भी इन सब चीज़ों को पा सकता है, जो बज़ाहिर दूसरा आदमी पाए हुए है। माल के ऐतबार से, सियासी ओहदे के ऐतबार से, माद्दी फ़ायदे के ऐतबार से इमकानात इतने ज़्यादा बढ़ जाएँगे कि इसकी रसाई हर आदमी तक हो जाएगी। घर के मुआमले में, अपनी फ़ैमिली के मुआमले में, अपने बच्चों के मुआमले में हर आदमी बड़ी-बड़ी तरक़्क़ी का ख़्वाब देखने लगेगा। यह फ़ितना हर आदमी को दुनियापरस्त (materialistic) बना देगा। हर आदमी पर एक ही शौक़ ग़ालिब होगा कि वह और उसकी फ़ैमिली ज़्यादा से ज़्यादा दुनियावी तरक़्क़ी हासिल करे।

माद्दी तरक़्क़ी की दौड़ उस ज़माने में इतना ज़्यादा आम हो जाएगी कि दूसरी चीज़ आदमी को नज़र ही नहीं आएगी। दुनियापरस्ती का कल्चर मुकम्मल तौर पर आख़िरतपसंदी के ऊपर ग़ालिब आ जाएगा। आदमी को नज़र आएगा कि जन्नत जब मुझे इसी दुनिया में मिल रही है, तो मैं जन्नत को पाने के लिए आख़िरत का इंतज़ार क्यों करूँ। कोई आदमी अगर ख़ुद दुनिया की तरक़्क़ी हासिल न कर सका, तो वह अपनी औलाद को तरक़्क़ी की इस दौड़ में हमा-तन शामिल कर देगा।

इंसान की दरयाफ़्त

ख़ुदा तमाम ख़ूबियों का सरचश्मा है

God is the eternal source of all kinds of beauty and goodness.

ख़ुदा ने इंसान को बनाया। इंसान अपनी ज़ात में एक मुकम्मल वजूद है। उसके अंदर हर क़िस्म की आला सलाहियतें कमाल दर्जे में मौजूद हैं। इंसान के दिमाग़ में 100 मिलियन बिलियन-बिलियन  पार्टिकल्स हैं। यह वाक़या इस बात की अलामत है कि इंसान के ख़ालिक़ ने इंसान के अंदर ला-महदूद सलाहियतें रख दी हैं।

इसी के साथ इंसान को एक ऐसी अनोखी चीज़ दी गई है, जो वसीअ कायनात में किसी को हासिल नहीं। यह है एहसास--मसर्रत (pleasure)। इंसान इस कायनात में वाहिद मख़्लूक़ है, जो लुत्फ़ का एहसास रखता है और वह लुत्फ़ से इंजॉय करने की ला-महदूद बिसात (capacity) रखता है। इंसान के लिए हर चीज़ इमकानी तौर पर ख़ुशी का ज़रिया है।

ख़ुदा ने इसी क़िस्म की अनोखी सलाहियतों के साथ इंसान को पैदा किया। उसके बाद ख़ुदा ने एक हसीन दुनिया बनाई, जिसका नाम उसने जन्नत रखा। जन्नत एक परफ़ेक्ट दुनिया (Perfect World) है, जिसमें हर क़िस्म का लुत्फ़ अपनी आख़िरी परफ़ेक्ट सूरत में मौजूद है। इंसान और यह जन्नत दोनों गोया एक-दूसरे का जोड़ हैं। इंसान जन्नत के लिए है और जन्नत इंसान के लिए। जन्नत वह जगह है, जहाँ इंसान को पूरी तस्कीन (fulfillment) मिले। जन्नत गोया इंसान की तकमील है। जन्नत के बग़ैर इंसान बे-मायना  है और इंसान के बग़ैर जन्नत बे- मायना  जन्नत के बग़ैर इंसान की ज़िंदगी अधूरी है और इंसान के बग़ैर जन्नत अधूरी।

इंसान उस जन्नत का इमकानी बाशिंदा है, मगर यह जन्नत किसी इंसान को पैदाइशी या नस्ली हक़ के तौर पर नहीं मिलती। जन्नत में दाख़िले की शर्त यह है कि इंसान यह साबित करे कि वह अपनी ख़ुसूसियात के ऐतबार से इसका मुस्तहिक़—‘deserving candidate’ है।

मौजूदा दुनिया को ख़ुदा ने इसी मक़सद के लिए सिलेक्शन ग्राउंड के तौर पर बनाया है। मौजूदा दुनिया के हालात इस तरह बनाए गए हैं कि यहाँ का हर जुज़ इंसान के लिए एक टेस्ट पेपर की हैसियत रखता है। यहाँ इंसान का हर लम्हा एक इम्तिहान है। ख़ुदा हर इंसान के क़ौल--अमल का हिसाब तैयार कर रहा है। इसी हिसाब की बुनियाद पर यह फ़ैसला किया जाएगा कि वह कौन औरत और मर्द हैं, जो जन्नत में बसाने के लिए अहल--बाशिंदा की हैसियत रखते हैं।

इंसान को इस दुनिया में मुकम्मल आज़ादी मिली हुई है। यह आज़ादी इनाम के तौर पर नहीं, बल्कि इम्तिहान के तौर पर है। ख़ुदा यह देख रहा है कि इंसान अपनी आज़ादी को किस तरह इस्तेमाल करता है। जो औरत और मर्द अपनी आज़ादी को ख़ुदा के नक़्शे के मुताबिक़ दुरुस्त तौर पर इस्तिमाल करें, उन्हें जन्नत में बसाने के लिए चुना जाएगा और जो लोग आज़ादी का ग़लत इस्तेमाल करें, वे रोज़--हशर में क़ाबिल--रद्द (rejected lot) क़रार पाएँगे।

इंसान की ज़िंदगी दो दौरों में तक़्सीम हैमौत से पहले का दौर (pre-death period) और मौत के बाद का दौर (post-death period)। मौत से पहले का दौर इम्तिहानी दौर  है और मौत के बाद का दौर इनाम पाने का दौर । यही वह सबसे बड़ी हक़ीक़त है, जिसे जानने और इख़्तियार करने में इंसान की कामयाबी और नाकामी का राज़ छिपा हुआ है।

जन्नत के हुसूल का मेयार जिस चीज़ पर है, वह है अपनी ख़्वाहिशों पर कंट्रोल करना और अपनी अक़्ल को तरक़्क़ी देना। इंसान के अंदर बहुत-सी ख़्वाहिशें हैं। इसी ख़्वाहिश के रास्ते से शैतान ने आदम के ऊपर हमला किया और वह कामयाब हो गया। हर ख़्वाहिश इंसान के अंदर शैतान के दाख़िले का दरवाज़ा है। आदमी को चाहिए कि वह अपनी ख़्वाहिश के हर दरवाज़े पर चौकीदार बना रहे, ताकि शैतान उसके अंदर दाख़िल होकर उसे ख़ुदा की रहमत से दूर न कर सके।

यह असमानता क्यों

पर्सी बाइश शैली (Percy Bysshe Shelley) एक इंग्लिश शायर है। वह 1792 में पैदा हुआ और 1822 में उसकी वफ़ात हुई। उसने एक बार कहा था कि हमारे सबसे ज़्यादा शीरी नग़मे वह हैं, जो सबसे ज़्यादा ग़मनाक नग़मे हैं।

Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.

यह एक आम तजुर्बे की बात है। हर औरत और मर्द का यह हाल है कि उसे दर्दनाक कहानियाँ या ग़मअंगेज़ अशआर ज़्यादा पसंद आते हैं। अक्सर मक़बूल नाविल वह हैं, जो ख़ुशी के नहीं हैं, बल्कि दुख के हैं। इसी तरह अक्सर ऐसा होता है कि वह गीतकार ज़्यादा मक़बूल होते हैं, जो ग़मगीन लहजे में गाने की सलाहियत रखते हों। ऐसा क्यों है? क्या वजह है कि दर्द भरे अशआर या पुरसोज़ कहानियाँ इंसान के दिल के तारों को छेड़ने में ज़्यादा कामयाब हैं। इसका सबब यह है कि हर इंसान अमलन महरूमी की नफ़्सियात में जीता है। ऐसी हालत में ख़ुशी की बात उसे ग़ैर-वाक़ई मालूम होती है। इसके मुक़ाबले में ग़म की बात उसे हक़ीक़त के ज़्यादा नज़दीक नज़र आती हैं। ज़्यादा गहराई के साथ मुताअला कीजिए तो मालूम होगा कि इंसान एक लज़्ज़तपसंद हैवान है।

Man is a pleasure-seeking animal.

नाक़ाबिल--पैमाइश हद तक वसीअ कायनात के अंदर इंसान एक इस्तिस्नाई  मख़्लूक़ (exceptional creation) है। इस आलम में इंसान एक वाहिद मख़्लूक़ है, जो एहसास--लज़्ज़त की सिफ़त रखता है। यह इंसान की अनोखी सिफ़त है कि वह मुख़्तलिफ़ क़िस्म की लज़्ज़तों का एहसास रखता है और उससे लुत्फ़-अंदोज़ हो सकता है। वसीअ कायनात में बेशुमार मख़्लूक़ात हैं, मगर लज़्ज़त से लुत्फ़-अंदोज़ होने की सिफ़त इस्तिस्नाई तौर पर सिर्फ़ इंसान के अंदर पाई जाती है।

इंसान के लिए सोचना भी लज़्ज़त है, देखना भी लज़्ज़त है, सुनना भी लज़्ज़त है, बोलना भी लज़्ज़त है, खाना और पीना भी लज़्ज़त है, सूँघना भी लज़्ज़त है और छूना भी लज़्ज़त है, हत्ता कि हरी घास का लॉन हो और आप उस पर नंगे पाँव चलें, तो इस लम्स (sense of touch) में भी आपको बेपनाह लज़्ज़त महसूस होगी, मगर यहाँ एक अजीब असमानता पाई जाती है। इंसान के अंदर लज़्ज़त का एहसास तो इंतिहा दर्जे में मौजूद है, मगर लज़्ज़त से लुत्फ़-अंदोज़ होना इस दुनिया में उसके लिए मुमकिन नहीं। मैं एक बार कश्मीर गया, वहाँ पहलगाम के इलाक़े में एक पहाड़ी दरिया है, जो पहाड़ों के ऊपर बर्फ़ पिघलने से जारी होने वाले चश्मों के ज़रिये से बनता है। उसका पानी इंतिहाई ख़ालिस पानी है। जब मैं पहलगाम पहुँचा और वहाँ दरिया के साफ़--शफ़्फ़ाफ़ पानी को देखा तो मुझे ख़्वाहिश हुई कि में उसका पानी पियूँ। मैंने बहते हुए दरिया से एक गिलास पानी लेकर पिया तो वह मुझे बहुत ज़्यादा अच्छा लगा, तमाम शर्बतों से ज़्यादा अच्छा। मैंने एक गिलास के बाद दूसरा गिलास पिया, यहाँ तक कि मैं छः गिलास पानी पी गया।

छठे गिलास के बाद भी मेरा ख़्वाहिश बाक़ी थी, मगर मैं मज़ीद पानी न पी सका। अब मेरे सिर में सख़्त दर्द शुरू हो गया। दर्द इतना शदीद था कि मुझे फ़ौरन वहाँ से वापस होना पड़ा। मैं वापस होकर श्रीनगर पहुँचा। श्रीनगर में एक कश्मीरी ताजिर के यहाँ मेरे शाम के खाने का इंतज़ाम था। कई और लोग इस मौक़े पर बुलाए गए थे। मैं वहाँ पहुँचा तो मेरे सिर में इतना शदीद दर्द हो रहा था कि मैं खाने में शरीक न हो सका, बल्कि एक और कमरे में जाकर लेट गया।

यही हाल दुनिया की तमाम लज़्ज़तों का है। इंसान दौलत कमाता है। इक़्तिदार हासिल करता है। अपनी पसंद की शादी करता है। अपने लिए शानदार घर बनाता है। ऐश के तमाम सामान इकट्ठा करता है, मगर जब वह यह सब कुछ कर चुका होता है तो उसे मालूम होता है कि उसके और लज़्ज़तों के दरम्यान एक अटल रुकावट हायल है। किसी भी लज़्ज़त से वह अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ लुत्फ़-अंदोज़ नहीं हो सकता। लज़्ज़त के तमाम सामान भी उसे ख़ुशी और सुकून देने में नाकाम रहते हैं।

लज़्ज़तों के बारे में इंसान की ख़्वाहिश ला-महदूद है, मगर लज़्ज़तों को इस्तेमाल करने के लिए वह ख़ुद एक महदूद सलाहियत रखने वाला इंसान है। इंसान की यही महदूदियत हर जगह उसके और सामान--लज़्ज़त के दरम्यान हायल हो जाती है। सब कुछ पाने के बाद भी वह बदस्तूर एहसास--महरूमी में मुब्तिला रहता है। इंसान की जिस्मानी कमज़ोरी, जवानी का ज़वाल, बुढ़ापा, बीमारी, हादसात और आख़िर में मौत, मुसलसल तौर पर उसकी ख़्वाहिशों की नफ़ी करते रहते हैं। लज़्ज़त का सामान हासिल कर लेने के बावजूद यह होता है कि जब वह उसे इस्तेमाल करना चाहता है तो ख़्वाहिश की तकमील से पहले ही उसकी ताक़त की हद आ जाती है। वह एक ख़त्मशुदा ताक़त (spent force) की मानिंद बनकर रह जाता है।

इस तज़ाद (contradiction) को लेकर मज़ीद मुताअला किया जाए तो मालूम होता है कि यह तज़ाद दरअसल तज़ाद नहीं है, बल्कि वह तरतीब के फ़र्क़ का नतीजा है। वह फ़र्क़ यह है कि फ़ितरत के निज़ाम के तहत इंसान के लिए यह मुक़द्दर किया गया है कि वह मौत से पहले के दौर में अपनी मतलूब लज़्ज़तों का सिर्फ़ तआरुफ़ हासिल करे और मौत के बाद के दौर में उन लज़्ज़तों को हक़ीक़ी तौर पर और मुकम्मल तौर पर हासिल करे।

यह तरतीब इत्तिफ़ाक़ी नहीं है, यह ख़ुद फ़ितरत का हिस्सा है। यह फ़ितरत के पूरे निज़ाम में पाई जाती है। इस दुनिया में इंसान को जो कामयाबी भी मिलती है, वह इसी तरतीब के उसूल के तहत मिलती है। इस दुनिया की कोई भी कामयाबी तरतीब के इस उसूल से अलग नहीं।

खेती में पहले बोना होता है, उसके बाद काटना। बाग़बानी में पहले पौधा उगाना होता है और उसके बाद उसका फल हासिल करना। लोहे को पहले पिघलाना होता है और उसके बाद उसे स्टील बनाना। ग़रज़ इस दुनिया में जितनी भी चीज़ें हैं, उनमें से हर एक के साथ यही तरतीब और तदरीज का मुआमला होता है। हर चीज़ पहले अपने इब्तिदाई दौर से गुज़रती है और फिर वह अपने इंतिहाई मरहले तक पहुँचती है। फ़ितरत के इस उसूल में किसी भी चीज़ का कोई इस्तिस्ना (exception) नहीं।

यही मुआमला इंसान का है। इंसान को लज़्ज़त का ला-महदूद एहसास दिया गया है, मगर लज़्ज़तों से ला-महदूद तौर पर आनंद लेने का सामान मौत के बाद आने वाली अगली दुनिया में रख दिया गया है। मौजूदा दुनिया में आदमी अपनी लज़्ज़त-तलबी की सलाहियत को दरयाफ़्त करता है और अगली दुनिया में वह अपनी लज़्ज़त-तलबी के मुताबिक़ लज़्ज़त के तमाम सामानों को हासिल करेगा। मौत से पहले के मरहला--हयात में लज़्ज़त का एहसास और मौत के बाद के मरहला--हयात में लज़्ज़त से आनंद।

ख़ालिक़--कायनात ने अपने तख़्लीक़ी नक़्शे के मुताबिक़ ऐसा किया है कि मौजूदा दुनिया में वह इंसान को मुमकिन लज़्ज़तों का इब्तिदाई तआरुफ़ कराता है। इस तरह वह इंसान को यह पैग़ाम दे रहा है कि अगर तुम इन लज़्ज़तों से अब्दी तौर पर और कामिल तौर पर फ़ायदा उठाना चाहते हो तो अपने अंदर इसकी क़ाबिलियत पैदा करो।

यह क़ाबिलियत क्या है? यह क़ाबिलियत एक लफ़्ज़ में यह है कि आदमी अपने आपको पाकीज़ा रूह (purified soul) बनाए
(
सूरह ताहा:76) यानी वह अपने आपको हर क़िस्म के मनफ़ी एहसासात से पाक करे। वह अपने आपको लालच, ख़ुदग़रज़ी, हसद, बद-दियानती, झूठ, गु़स्साइंतक़ाम, तशद्दुद और नफ़रत जैसे तमाम ग़ैर-इंसानी जज़्बात का शिकार होने से बचाए। वह अपने अंदर वह आला इंसानी शख़्सियत पैदा करे, जो मुकम्मल तौर पर मुस्बत शख़्सियत हो। जो अपने आला औसाफ़ के ऐतबार से इस क़ाबिल हो कि वह ख़ुदा के पड़ोस में रह सके। जो शैतानी इंसान से ऊपर उठकर मलकूती इंसान (Divine personality) बन जाए।

इंसान की ज़िंदगी दो मरहलों में तक़सीम हैमौत से पहले का मरहला और मौत के बाद का मरहला। इस मरहला--हयात का निस्बतन मुख़्तसर हिस्सा मौत से पहले के दौर में रखा गया है और इसका ज़्यादा बड़ा अरसा मौत के बाद के दौर में। इंसान की कहानी को अगर सिर्फ़ मौत से पहले के मरहला--हयात की निस्बत से देखा जाए तो वह एक ट्रेजेडी नज़र आएगी, लेकिन अगर इंसान की कहानी को मौत के बाद के मरहला--हयात को सामने रखकर देखा जाए तो वह मुकम्मल तौर पर एक बेहद ख़ुशगवार ज़िंदगी नज़र आने लगेगी।

फ़ितरत के इस तख़्लीक़ी नक़्शे (Creation Plan) के मुताबिक़, इंसान एक इंतिहाई नाज़ुक मुक़ाम पर खड़ा हुआ है। वह एक ऐसे मुक़ाम पर है, जहाँ उसे दो मुमकिन इंतिख़ाबात में से एक का इंतिख़ाब करना है। मौजूदा दुनिया के मवाक़े को फ़ितरत के नक़्शे के मुताबिक़ इस्तिमाल करना और फिर अब्दी लज़्ज़तों में जीने का मुस्तहिक़ बन जाना या मौजूदा दुनिया में ग़फ़लत की ज़िंदगी गुज़ारना और बाद के दौर--हयात में अब्दी तौर पर लज़्ज़तों से महरूम हो जाना।

अहल--जन्नत के दर्जात

क़ुरआन की सूरह अल-हदीद में जन्नत का ज़िक्र करते हुए ये अल्फ़ाज़ आए हैं

.سَابِقُوا إِلَى مَغْفِرَةٍ مِنْ رَبِّکُمْ وَجَنَّةٍ عَرْضُہَا کَعَرْضِ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ

लोगो, दौड़ो अपने रब की माफ़ी की तरफ़ और ऐसी जन्नत की तरफ़, जिसकी वुसअत आसमान और ज़मीन की वुसअत के बराबर है।”                                                     (57:21)

दूसरी जगह अहल--जन्नत की ज़बान से ये ख़बर दी गई

قَالُوا الْحَمْدُ لِلَّہِ الَّذِی صَدَقَنَا وَعْدَہُ وَأَوْرَثَنَا الْأَرْضَ نَتَبَوَّأُ مِنَ الْجَنَّةِ حَیْثُ نَشَاءُ فَنِعْمَ أَجْرُ الْعَامِلِینَ

और वे कहेंगे कि शुक्र है उस अल्लाह का जिसने हमारे साथ अपना वादा सच कर दिखाया और हमेंइस ज़मीन का वारिस बना दिया। हम जन्नत में जहाँ चाहें मुक़ाम करें। पस क्या ख़ूब बदला है अमल करने वालों का।”             (39:74)

क़ुरआन के इस बयान से अंदाज़ा होता है कि जन्नत एक ऐसी दुनिया होगी, जो तमाम जन्नतियों के लिए खुली हुई होगी। कोई जन्नती इंसान उस वसीअ दुनिया में जहाँ चाहेगा अपना ठिकाना बना सकेगा। रहने के ऐतबार से हर जन्नती को यकसाँ आज़ादी हासिल होगी।

दूसरी आयतों और हदीसों से यह साबित है कि जन्नत में दर्जात का फ़र्क़ होगा। कुछ जन्नती अफ़राद दूसरे जन्नतियों के मुक़ाबले में ज़्यादा ऊँची जन्नत के मालिक होंगे। मसलन क़ुरआन के मुताबिक़, उनमें से कुछ लोग सबसे आला दर्जात के होंगे और कुछ उनके नीचे (35:32)। अब सवाल यह है कि यह दर्जात का फ़र्क़ किस ऐतबार से होगा? ग़ौर करने से यह समझ में आता है कि यह फ़र्क़ लुत्फ़-अंदोज़ी (enjoyment) के ऐतबार से होगा। जन्नत अपने ज़ाहिरी ऐतबार से ग़ालिबन हर एक के लिए यकसाँ होगी, मगर जन्नत की नेअमतों से लुत्फ़ उठाने का जो मुआमला है, वह हर एक के लिए यकसाँ नहीं होगा। किसी को जन्नत की नेअमतों से ज़्यादा लुत्फ़  मिलेगा और किसी को निस्बतन कम।

लुत्फ़ का यह फ़र्क़ मअरिफ़त या शऊर के फ़र्क़ की बुनियाद पर होगा। दुनिया की ज़िंदगी में जो शख़्स शऊर या मअरिफ़त के जिस दर्जे पर पहुँचा होगा, उसी दर्जे के बराबर वह जन्नत की नेअमतों से लुत्फ़ उठा सकेगा। गोया मकानी ऐतबार से जन्नत के तमाम अफ़राद यकसाँ तौर पर रहने में शरीक होंगे, मगर जो शख़्स शऊरी ऐतबार से इर्तिक़ा (intellectual development) के जिस दर्जे पर होगा, उसी निस्बत से वह जन्नत की नेअमतों से लुत्फ़ उठा सकेगा।

इस मुआमले को समझने के लिए एक हदीस का मुताअला कीजिए। मुहद्दिस अल-बैहक़ी ने एक रिवायत इन अल्फ़ाज़ में नक़ल की है

أَنَّ عَبْدَ اللہِ بْنَ رَوَاحَةَ قَالَ لِصَاحِبٍ لَہُ تَعَالَ حَتَّى نُؤْمِنَ سَاعَةً  قَالَ:أَوَلَسْنَا بِمُؤْمِنَیْنِ؟ قَالَ:بَلَى، وَلَکِنَّا نَذْکُرُ اللہَ فَنَزْدَادُ إِیمَانًا

अब्दुल्लाह इब्ने-रवाहा सहाबी ने अपने एक साथी से कहा कि आओ, हम एक कुछ देर के लिए ईमान लाएँ। साथी ने कहा कि क्या हम मोमिन नहीं हैं? इब्ने-रवाहा ने कहा कि हाँ, मगर जब हम अल्लाह को याद करते हैं तो हम अपने ईमान में इज़ाफ़ा करते हैं।                 (शुएबुल-ईमान अल-बैहक़ी, हदीस नं० 49)

इस रिवायत से अंदाज़ा होता है कि एक इंसान वह है, जो कलमा--तौहीद का इक़रार करने के बाद यह समझे कि वह साहिब--ईमान हो गया। जो ईमान उसे मिलना था, वह उसे मिल गया। ईमान या अक़ीदे के ऐतबार से अब उसे कुछ और पाना नहीं है। इसके मुक़ाबले में दूसरा इंसान वह है, जो बार-बार अल्लाह को याद करे, वह अल्लाह पर ग़ौर--फ़िक्र करे और इस तरह वह अपनी मअरिफ़त--ईमानी को बढ़ाता रहे। उसका ईमान मुसलसल शऊरी तरक़्क़ी करता रहे।

इस मिसाल से अंदाज़ा होता है कि अस्हाब--ईमान में मअरिफ़त के ऐतबार से दर्जात होते हैं। कोई आला मअरिफ़त के दर्जे पर होता है और कोई उससे कम मअरिफ़त के दर्जे पर। मअरिफ़त--हक़ का यह फ़र्क़ जन्नत में लुत्फ़ लेने (enjoyment) के ऐतबार से फ़र्क़ पैदा कर देगा।

एक मोमिन वह है जिसने क़ुरआन मेंअल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीनपढ़ा, तो उसने किसी शक और तरद्दुद के बग़ैर इस हक़ीक़त को मान लिया। उसने यक़ीन (conviction) के दर्जे में उसे क़बूल कर लिया। क़ुरआन का दूसरा क़ारी वह है कि जब उसनेअल्हम्दुलिल्लाहि रब्बिल आलमीनपढ़ा तो इस आयत में तख़्लीक़--इलाही के ऐसे गहरे मायने उसके ज़हन में ताज़ा हो गए कि उसके अंदर उत्साह (thrill) की कैफ़ियत पैदा हो गई। वह हम्द--ख़ुदावंदी के जज़्बे से सरशार हो गया।

इसी तरह एक मोमिन वह है जिसके सामने अल्लाह का ज़िक्र किया जाए तो वह उसे एक सच्चाई मानकर क़बूल कर ले। मसलन छींक आने पर एक शख़्स अगर कहेअल्हम्दुलिल्लह, तो उसे सुनकर उसकी ज़बान पर यह कलिमा आ जाएयर-हमुकल्लाह। इसके मुक़ाबले में दूसरा मोमिन वह है जिसके सामने अल्लाह का ज़िक्र किया जाए तो अपनी बढ़ी हुई मअरिफ़त की बिना पर उसका यह हाल हो कि अल्लाह की अज़्मत के एहसास से उसके बदन के रोंगटे खड़े हो जाएँ। अल्लाह की बड़ाई को सोचकर उसका दिल दहल उठे, जैसा कि क़ुरआन में है

إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِینَ إِذَا ذُکِرَ اللَّہُ وَجِلَتْ قُلُوبُہُمْ وَإِذَا تُلِیَتْ عَلَیْہِمْ آیَاتُہُ زَادَتْہُمْ إِیمَانًا وَعَلَى رَبِّہِمْ یَتَوَکَّلُونَ  

ईमान वाले तो वे हैं कि जब अल्लाह का ज़िक्र किया जाए तो उनके दिल दहल जाएँ और जब अल्लाह की आयतें उनके सामने पढ़ी जाएँ, तो वे उनका ईमान बढ़ा देती हैं और वे अपने रब पर भरोसा रखते हैं।”            (8:2)

इसी तरह एक मोमिन वह है जिसने क़ुरआन में यह आयत पढ़ी

وَالَّذِی ہُوَ یُطْعِمُنِی وَیَسْقِینِ

       “और जो मुझे खिलाता है और पिलाता है ।”  (26:79)

 उसने इस आयत को उसके ज़ाहिरी मफ़हूम के ऐतबार से लिया और उसकी ज़बान पर शुक्र के अल्फ़ाज़ आ गए। दूसरा मोमिन वह है, जो इस आयत को पढ़े तो उसके ज़हन में हक़ाइक़ का एक दफ़्तर खुल जाए। वह सोचे कि ज़मीन व आसमान के अंदर बेशुमार सरगर्मियाँ ज़हूर में आईं। उसके बाद यह मुमकिन हुआ कि वह चीज़ बनकर तैयार हो, जिसे हम खाना और पानी कहते हैं और जो ज़िंदगी के वजूद के लिए लाज़िमी तौर पर ज़रूरी है। यह सोचकर उसके सीने में कमालात--ख़ुदावंदी के ऐतराफ़ का एक समंदर बहने लगे। हत्ता कि यह एहसास उसकी आँखों से आँसुओं की शक्ल में बह पड़े।

यह दोनों ही मोमिन हम्द--ख़ुदावंदी के एहसास के हामिल हैं, मगर मअरिफ़त के फ़र्क़ के ऐतबार से दोनों के दरम्यान इतना ज़्यादा फ़र्क़ पैदा हो गया है कि उसे लफ़्ज़ों में बयान करना मुमकिन नहीं।

क़ुरआन व हदीस से साबित है कि जो लोग सच्चे दिल के साथ ईमान लाएँ, जिनकी नीयतें दुरुस्त हों। जो अपनी  सलाहियत (capability) के मुताबिक़ अल्लाह के अहकाम की पाबंदी करें, वे जन्नत में जाएँगे; मगर यह ईमान का इब्तिदाई दर्जा है। ईमान का आला दर्जा वह है, जो मअरिफ़त के सफ़र के साथ तरक़्क़ी करता रहता है। जो रब्बानी समंदर में फ़िक्री ग़ोता लगाने से हासिल होता है। इसमें शक नहीं कि दोनों क़िस्म के अस्हाब--ईमान के लिए जन्नत है, मगर जन्नत की नेअमतों से लुत्फ़-अंदोज़ होने के मुआमले में एक मोमिन और दूसरे मोमिन के दरम्यान वही फ़र्क़ हो जाएगा, जो दुनिया में मअरिफ़त--हक़ के ऐतबार से दोनों के दरम्यान पाया जाता था। 

इंतिख़ाब--डायरी, 1985

26 जनवरी, 1985

लॉर्ड मेयो ने अपना एक वाक़या लिखा है कि वह एक बार एक जज़ीरे में थे। वहाँ उन्हें ग़ुरूब--आफ़ताब का मंज़र देखने का मौक़ा मिला। वह लिखते हैं कि यह मंज़र इतना हसीन था कि मैंने चाहा कि इसे हमेशा देखता रहूँ।

I wish I could see this sunset forever.

क़ुदरत बेहद हसीन है। इसे देखने से कभी आदमी का जी नहीं भरता। आदमी चाहता है कि क़ुदरत को मुस्तक़िल तौर पर देखता रहे, मगर ज़िंदगी के तक़ाज़े उसे मजबूर करते हैं और उससे मुतमईन हुए बग़ैर वह उसे छोड़कर चला जाता है।

क़ुदरत मौजूदा दुनिया में जन्नत की नुमाइंदा है। वह आख़िरत की जन्नत की एक झलक है। जन्नत में जो लताफ़त, जो हुस्न, जो बेपनाह कशिश होगी, उसका एक दौर का मुशाहिदा मौजूदा दुनिया में क़ुदरत की सूरत में होता है। क़ुदरत हमें जन्नत की याद दिलाती है। वह हमें बताती है कि दुनिया में जन्नत वाले अमल करो, ताकि आख़िरत में ख़ुदा की जन्नत को पा सको। दुनिया में आदमी जन्नत की झलक से भी पूरी तरह लुत्फ़-अंदोज़ नहीं हो सकता, मगर आख़िरत की कामिल दुनिया में आदमी के लिए मुमकिन होगा कि वह जन्नत से आख़िरी हद तक लुत्फ़-अंदोज़ हो सके।

6 मई, 1985

आख़िरत में ख़ुदा की जन्नत के दरवाज़े उन लोगों के लिए खोले जाएँगे, जो दुनिया में अपने दिल के दरवाज़े ख़ुदा की नसीहत के लिए खोलें।

जन्नत और जहन्नम का फ़ैसला दरअसल दिल की दुनिया में होता है। ख़ुदा अपने किसी बंदे के ज़रिये आदमी के दिल के दरवाज़े पर दस्तक देता है। वह किसी बंदा--ख़ास के ज़रिये उसके पास अपना पैग़ाम भेजता है। यह लम्हा किसी इंसान की ज़िंदगी में नाज़ुकतरीन लम्हा होता है। अगर वह उस वक़्त अपने दिल के दरवाज़े खोल दे तो गोया उसने अपनी जन्नत का दरवाज़ा खोल लिया। अगर वह उस वक़्त अपने दिल के दरवाज़े बंद रखे तो गोया उसने अपने ऊपर जन्नत के दरवाज़े को बंद कर लिया।  इस दुनिया में हक़ को क़बूल करना या हक़ का इनकार करना ही वह ख़ास लम्हा है, जबकि आदमी के लिए अब्दी जन्नत या अब्दी जहन्नम का फ़ैसला होता है।

23 मई, 1985

ग़ालिबन 1970 में मुझे ताजमहल देखने का इत्तिफ़ाक़ हुआ। ताजमहल को देखने से पहले ताजमहल के बारे में बहुत से मज़ामीन पढ़े थे। उन मज़ामीन में ताजमहल मुझे बहुत अज़ीम महसूस होता था, मगर जब मैंने ताजमहल को देखा तो वह उससे बहुत कम था, जो मैंने अपने ज़हन में समझ रखा था।

यही हाल तमाम इंसानी तख़्लीक़ात का है। इंसानी साख़्त की किसी चीज़ के बारे में उसे देखने से पहले जो मेरी राय थी, वह उसे देखने के बाद बाक़ी न रही। हर इंसानी चीज़ देखते ही उससे कम नज़र आई, जो देखने से पहले महसूस होती थी, मगर फ़ितरत के मनाज़िर का मुआमला इससे मुख़्तलिफ़ है। कोई फ़ितरी वाक़या इससे बहुत ज़्यादा अज़ीम है, जो देखने से पहले सुनकर या पढ़कर मैं समझ रहा था।

इसकी वजह यह है कि फ़ितरत का हर वाक़या अथाह हद तक अज़ीम और हसीन है। इंसानी अल्फ़ाज़ उसे पूरी तरह बयान नहीं कर पाते। यहाँ हर बोला हुआ लफ़्ज़ असल हक़ीक़त से बहुत कम होता है। यही वजह है कि फ़ितरत देखने में उससे ज़्यादा नज़र आती है, जितना कि वह पढ़ने या सुनने में महसूस हो रही थी।

19 सितंबर, 1985

मौजूदा ज़माने के माहिरीन ने अंदाज़ा लगाया है कि इंसान के दिमाग़ में जो पार्टिकल्स हैं, वे पूरी कायनात के मजमूई पार्टिकल्स से भी ज़्यादा हैं। इंसानी दिमाग़ की सलाहियत बेपनाह है, मगर कोई बड़े-से-बड़ा इंसान भी अब तक अपने दिमाग़ को दस फ़ीसद से ज़्यादा इस्तेमाल न कर सका।

हक़ीक़त यह है कि आदमी एक इमकान (potential) है, मगर मौजूदा दुनिया अपनी महदूदियतों (limitations) के साथ इस पोटेंशियल को एक्चुअल बनाने के लिए नाकाफ़ी है। इंसानी इमकान के ज़हूर में आने के लिए एक ला-महदूद और वसीअतर दुनिया दरकार हैजन्नत की दुनिया, एक ऐतबार से, इसीलिए बनाई गई है कि वहाँ आदमी के इमकानात पूरी तरह ज़हूर में आ सकें।

14 अक्तूबर, 1985

जन्नत के बारे में क़ुरआन मेंइंद्का’— तुम्हारे पास औरइंदा रब्बिहिम’— उनके रब के पास (2:76) के अल्फ़ाज़ आए हैं। इससे मैं यह समझा हूँ कि जन्नत मजलिस--ख़ुदावंदी में जगह पाने का दूसरा नाम है। ख़ुदा की सिफ़त--ख़ास यह है कि वह परफ़ेक्ट है। ख़ुदा के क़रीब जो दुनिया होगी, वहाँ हर चीज़ परफ़ेक्ट होगी। वहाँ परफ़ेक्ट बातें होंगी। परफ़ेक्ट सुलूक होगा। परफ़ेक्ट सामान होंगे। यह एक परफ़ेक्ट माहौल होगा और परफ़ेक्ट माहौल में जीने ही का नाम जन्नत है।

यह परफ़ेक्ट दुनिया इतनी ज़्यादा क़ीमती है कि इंसान का कोई भी अमल, ख़्वाह वह कितनी ही मिक़दार में हो, उसकी क़ीमत नहीं बन सकता। हक़ीक़त यह है कि किसी भी शख़्स को अपने अमल की क़ीमत पर जन्नत में जगह नहीं मिल सकती। ताहम एक चीज़ है, जो जन्नत की क़ीमत है और वह है परफ़ेक्ट थिंकिंग। आदमी अमल की सतह पर परफ़ेक्ट नहीं बन सकता, मगर सोच की सतह पर वह परफ़ेक्ट बन सकता है। यही वह चीज़ है, जो मौजूदा दुनिया में आदमी को हासिल करनी है और यही वह चीज़ है, जो किसी आदमी को जन्नत में दाख़िले का मुस्तहिक़ बनाएगी।

19 अक्तूबर, 1985

जन्नत सब्र के उस पार है, मगर अक्सर लोग जन्नत को सब्र के इस पार तलाश करने लगते हैं।

6 नवंबर, 1985

क़ुरआन में अहल--जन्नत के बारे में आया है कि वे बा-इक़्तिदार बादशाह के पास सच्ची नशिस्तों (सीटों) पर बैठे हुए होंगे— (54:55)

فِی مَقْعَدِ صِدْقٍ عِنْدَ مَلِیکٍ مُقْتَدِرٍ

मौजूदा दुनिया में आदमी झूठी नशिस्तों पर बैठा हुआ है। आख़िरत में आदमी सच्ची नशिस्तों पर बैठाया जाएगा। हर आदमी फ़रेब और शोषण (exploitation) के ज़रिये ऊँची जगह पाए हुए है। यहाँ हमें ऐसे लोगों के दरम्यान ज़िंदगी गुज़ारनी पड़ती है, जो अपने आपको इसका पाबंद नहीं समझते कि वे अपने इख़्तियार को सिर्फ़ इंसाफ़ के दायरे में इस्तेमाल करें।

आख़िरत का मुआमला इससे मुख़्तलिफ़ होगा। अल्लाह तआला को हर क़िस्म का कामिल इख़्तियार हासिल है, मगर उसने अपने आपको इसका पाबंद बना रखा है कि वह अदल और रहमत के दायरे में ही अपने आला इख़्तियारात को इस्तेमाल करे । इसी के साथ वह एक ऐसी हस्ती है, जो आलातरीन मेयारी ज़ौक़ रखता है। वह परफ़ेक्ट से कम पर कभी राज़ी नहीं होता। ऐसे शहंशाह के पड़ोस में जगह पाना किस क़दर पुर-मसर्रत और लज़ीज़ होगा, इसका अंदाज़ा नहीं किया जा सकता।

22 नवंबर, 1985

क़ुरआन में अहल--जन्नत की सिफ़ात में से एक सिफ़त यह बयान हुई है कि वे उस दिन की मुसीबत से डरते हैं, जो हर तरफ़ फैल जाएगी। वे अल्लाह की मुहब्बत में मुहताज को और यतीम को और क़ैदी को खिलाते हैं। (और यह कहते हैं) कि हम जो तुम्हें खिलाते हैं तो सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी चाहने के लिए खिलाते हैं। हम तुमसे न बदला चाहते हैं और न शुक्रगुज़ारी। हम अपने रब से एक ऐसे दिन के बारे में डरते हैं, जो बड़ी उदासी वाला और सख़्ती वाला होगा (76:7-10)। इन आयात को पढ़कर एक साहब ने कहा कि ऐसे मौक़े पर ये अल्फ़ाज़ अरबी में कहने चाहिए या उन्हें अपनी ज़बान में भी कहा जा सकता है।

मैंने कहा कि आप इस आयत का मतलब नहीं समझे। इसका मतलब यह नहीं है कि जब किसी हाजतमंद की मदद की जाए तो उस वक़्त ज़बान से ये अल्फ़ाज़ दोहराए जाते रहें। इससे मुराद अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि एहसासात हैं यानी जब किसी के साथ हुस्न--सुलूक किया जाए तो आदमी के दिल में यह एहसास तारी होना चाहिए। इसका यह मतलब नहीं कि वह इन अल्फ़ाज़ को याद कर ले और हर ऐसे मौक़े पर इन अल्फ़ाज़ को दोहरा दिया करे। कभी ज़बान से कुछ अल्फ़ाज़ भी निकल पड़ते हैं, मगर असलन यहाँ जिस चीज़ का ज़िक्र है, वह एहसासात ही हैं।

19 दिसंबर, 1985

क़ुरआन में आया है

کَتَبَ عَلَى نَفْسِہِ الرَّحْمَةَ

अल्लाह ने अपने ऊपर रहमत को लिख रखा है।”   (6:12)

मौजूदा दुनिया में इंसान के पास इक़्तिदार है, मगर उसने अपने आपको रहमत और अदल का पाबंद नहीं किया है, इसलिए मौजूदा दुनिया फ़साद और ख़राबियों से भर गई है; मगर आख़िरत में सारा इक़्तिदार सिर्फ़ एक अल्लाह के पास होगा और अल्लाह ने हर क़िस्म का मुतलक़ इख़्तियार रखने के बावजूद अपने आपको रहमत और अदल का पाबंद कर रखा है। इसलिए आख़िरत की दुनिया सरापा ख़ैर होगी। वहाँ सिर्फ़ वही होगा, जो हक़ की बुनियाद पर होना चाहिए और वह न हो सकेगा, जोअज़-रु--हक़नहीं होना चाहिए। आख़िरत की यह ख़ुसूसियत आख़िरत को एक मेयारी दुनिया बना देगी। इसी मेयारी दुनिया का दूसरा नाम जन्नत है।